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1.09.2022

'विश्व हिंदी दिवस'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     09 January     आलेख     No comments   

आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, डॉ. सदानंद पॉल द्वारा लिखित 'विश्व हिंदी दिवस' पर अद्वितीय आलेख.......

डॉ. सदानंद पॉल

आज़ादी से पहले हिंदी के लिए कोई समस्या नहीं थी, आज़ादी के बाद हिंदी की कमर पर वार उन प्रांतों ने ही किया, जिनके आग्रह पर वहाँ हिंदी प्रचारिणी सभा गया था- मद्रास हिंदी सोसाइटी, असम हिंदी प्रचार सभा, वर्धा हिंदी प्रचार समिति, बंगाल हिंदी एसोसिएशन, केरल हिंदी प्रचार सभा इत्यादि। मेरा मत है, भारत की 80 फ़ीसदी आबादी किसी न किसी प्रकार या तो हिंदी से जुड़े हैं या हिंदी जरूर जानते हैं , बावजूद 80 फ़ीसदी कार्यालयों में हिंदी में कार्य नहीं होते हैं। अब तो हिंदी के अंग एकतरफ ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, मगही, बज्जिका इत्यादि अलग भाषा बनने को लामबंदी किए हैं। संविधान की 8 वीं अनुसूची की भाषा भी हिंदी के लिए खतरा है। हमें हिंदी के लिए खतरा नामवर सिंहों से भी है, जो सिर्फ नाम बर्बर हैं या नाम गड़बड़ हैं। हिंदी में मोती चुगते 'हंस' निकालने वाले भी हिंदी के लिए भला नहीं सोचते हैं। ये सरकारी केंद्रीय हिंदी संस्थान भी मेरे शोध-शब्द 'श्री' को हाशिये में डाल दिए हैं। 10 सालों की मेहनत के बाद लिखा 2 करोड़ से ऊपर तरीके से लिखा 'श्री' और 'हिंदी का पहला ध्वनि व्याकरण' को हिंदी गलित विद्वानों ने एतदर्थ इसके लिए अपने विधर्मी रुख अपनाये रखा। सम्पूर्ण संसार में हिंदी तीसरी बोली जानेवाली भाषा है।

नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं। इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय।

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11.03.2021

'इस दीपावली में दीप और दिल साथ-साथ...'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     03 November     आलेख     No comments   

इतिहास के गूढ़ पन्नों से हमें यह जानकारी मिलती है कि बारूद और तोप का सबसे पहले उपयोग बाबर ने 1526 में किया था, लेकिन इससे काफी वर्षों पहले भी 7वीं सदी से पटाखों का इस्तेमाल हो रहा है। 

परंतु इनका श्रेय हर वक़्त चीन लेना चाहता है, लेकिन इतिहास के जितना हम पास जाएंगे 'चीन' की झूठी सनक से हम अवगत होते जायेंगे ! गत वर्षों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों पर बैन लगा दिया है, हमें माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि गत वर्ष दिल्ली में जैसा कुहासा का माया छाया रहा, उनसे सभी भली-भाँति परिचित हैं ! 

भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, हम सभी धर्म सेवक साथ-साथ हैं, इसलिए धर्मनिरपेक्ष सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना करना 'गुनाह' है। आखिर हम क्यों धर्म के नाम पर लड़ते हैं ? अगर हम अपनी भावी पीढ़ी को ईर्ष्या छुड़ाकर 'कम्पीटीटिव' एग्जाम की तैयारी के लिए प्रेरित करें, तो उसमें हम 'न्यू इंडिया' की झलक पा बैठेंगे। आज 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' में पढ़ते हैं, 'संपादक' के विचार, जिनमें प्रिय दोस्तों के विचार भी संवाहित हैं.... तो, आइये पढ़ ही डालते हैं.....


गत साल की बात है, मेरे अज़ीज़ मित्र ने मुझे एक रोचक शोध-पिक्चर भेजा। पिक्चर में गूगल मैप की सहायता से भारत में अयोध्या और श्रीलंका के बीच के सबसे शॉर्टकट रास्ता को उन्होंने खुद रेखांकित किया है तथा किलोमीटर तक का उल्लेख किया है, जिनमें उन्होंने बताया है कि श्रीलंका से अयोध्या की दूरी 2586 KM है, जो भारतीय राष्ट्रीय उच्चपथ की विविधता लिए हैं (पर उस समय वह बला नहीं होगा, जिसे आज ट्रैफिक-जाम कहते हैं, अन्यथा श्रीराम और उनके साथीगण काफी परेशान हो जाते ! खैर, तब भी परेशान थे-- जंगल-जाम के कारण ! ) और हाँ, यह कहना तो मैं भूल ही गया कि इस दूरी को तय करने में 21 दिन 10 घंटे लगेंगे, अगर कोई सामान्य मानवीय पैदलचाल के हिसाब से चले। कहा जाता है, दीपावली के दिन श्रीराम श्रीलंका से सीधे रावण को विजित कर वापस अयोध्या पुष्पक विमान से आये थे, परंतु अगर हम श्रीराम द्वारा रावण पर विजयादशमी के दिन विजय मान लिया जाए, तो विजयादशमी से दीपावली तक 20 दिन होते हैं, फिर तो ऐसा लगता है-- श्रीलंका से राम अयोध्या के लिए वापस पैदल ही आये थे। यह संभव है, वे शायद 1 दिन 10 घंटे पहले ही आ गए होंगे !.... ऐसा उन्नीस-बीस हो सकता है, इसलिए उनका शोध काफी तर्कपूर्ण है यानि रामायण-रचयिता बाल्मीकि जी के पास उस समय भी दूरी ज्ञात करने के न कोई-कोई यन्त्र जरूर होंगे !
अब कोई अन्य प्रसंग-
किसी गहनतम तजुर्बेकार ने काफी महीन झरोखों से यह देख कर लिखा है कि 'दीपावली' या 'दीवाली' से विच्छेद कर 'अली' और 'मुहर्रम' में उसी भाँति विच्छेद कर 'राम' उदधृत की जा सकती है, जिससे हिन्दू, मुस्लिम के निकट बोध लिए यह त्योहार है। सिख, जैन और बौद्ध भी इस पर्व को किसी न किसी भाँति मनाते हैं--
जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर 'महावीर स्वामी' को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। उनके लिए तो प्रकाश पर्व ही है। बौद्ध 'अप्पो दीपो भवः' के नाम से ख्यात् है।
दीपों का पर्व दीपावली; हर कहानी की तरह इनकी भी कहानी पुरानी है। दादी की कहानी, नानी की कहानी, फिर दादा-नाना के मुँह वाणी की कहानियों को बचपन में किस्सा के रूप में रूचि ले-लेकर सुना है। इन कहानियों से मज़ा आता, खासकर इन कहानियों में डूबने-उतरने से ज्यादा।
अन्य प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार, 12 वर्षों के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी के प्रतीक रूप में दीपावली मनाये जाते हैं। कई हिंदू दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी व उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का 5 दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई क्षीरशायी लक्ष्मी के जन्मदिवस से शुरू होती है, दीपावली की रात वह होती है, जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को न केवल वरन् की, अपितु उनसे शादी भी कर ली.... यानि यहाँ प्यार परवान चढ़ गए और अंतरजातीय विवाह को लेकर कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई, लेकिन आज के मानव अपनी लक्ष्मी की तलाश में आँखें-फ़ाड़े प्रतीक्षारत रहते हैं ! गलत मत समझिये मैं लक्ष्मी यानी रुपयों की बात कर रहा हूँ !....नहीं तो अपने कानून में '14 सेकंड' किसी 'लक्ष्मी' को घूर नहीं सकते, चाहे ये लक्ष्मी आपकी बहन, माँ या पत्नी ही क्यों न हो, पता नहीं 'घूरना' किस अर्थ में है ?

लक्ष्मी के साथ-साथ सनातनी भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश, संगीत-साहित्य की प्रतीक सरस्वती और धन-प्रबंधक कुबेर को 'प्रसाद' अर्पित करते हैं। कुछ व्यक्ति दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते हैं।
मान्यता है, इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग इस दिन लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं, वे आगामी साल के दौरान मानसिक और शारीरिक दुःखों से दूर रहतेे हैं, लेकिन आज के युग में यदि लक्ष्मी जी उस लोक से यहाँ आईं अगर, तो पहले ट्रैफिक जाम से परेशान, फिर पटाखों के शोर में इतनी प्रदूषित हो जायेंगी 'लक्ष्मी' जी कि उन्हें स्वयं की दवाई लेने के बाद ही इंसानो के दुःख-दर्द दूर कर पायेंगी !
मेरे गांव में दीपावली का उत्सव 'माँ काली की पूजा' करने के बाद ही मनाई जाती है, यानि 'काली माता' की मूर्ति उनकी प्रदत्त स्थान में विस्थापित करने के बाद....पूजा के बाद घर में बड़े लोग बच्चों को 'चुमाने' का रस्म निभाते हैं, परंतु "शादी-शुदा" महिलाओं और पुरुषों को नहीं चुमाये जाते हैं। ये बातें मेरे लिए आजतक असमझ भरा रहा है, उसके बाद हम सभी परिवार वाले अपने-अपने परिवार में 'संठी' (पटसन का तना) से बना सामग्री व 'हुका-हुकी' खेलते हैं और उसमें एक मंत्र जाप होता है-- 'लक्ष्मी घर, दरिदर बाहर; मच्छरों के गांड़ में लगा तित्ति'..... सेंटेंस कुछ गन्दा जैसा है, पर क्या करें ? उसके बाद 'हुका-हुकी' से 5 'संटी' निकालकर 5 फलों का नाम लेकर चुनकर रख लिया जाता है। फिर पटाखा फोड़े जाते हैं, लेकिन रामायण में कही यह उल्लेख नहीं है कि राम के आने के बाद अयोध्या के लोगों ने पटाखा फोड़े थे, क्योंकि पटाखा तो 'नवयुगी' देन है !


पर कुछ बात ऐसी है, सुन्दर लड़की को देखा, कह दीहीस-- क्या पटाखा माल है, अरे ! यह फूलझड़ी है। इंसान मटकी तो फोड़ेंगे, पर मिट्टी के दीये न जला कुम्हार के घर अँधेरा की dreamlight रहने देंगे सतत् ! हम बस 'चीनी सामान का विरोध' सोशल मीडिया पर करेंगे, परंतु अंदर से वैसे ही रहेंगे......! अपनी संस्कृति की अक्षुण्णता राजनीतिक बयानबाजी से दूर नहीं हो सकते, ज़नाब !
ऊर्जा बचाएँ, दीवाली मनाएँ, पर दीवाला मत हो जययो !

-- प्रधान प्रशासी सह संपादक ।

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10.17.2021

कालजयी कृति 'मूठ' का पोस्टमार्टम...(लघु प्रेरक समीक्षा)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     17 October     आलेख, समीक्षा     No comments   

आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, उपन्यास वेंटिलेटर इश्क़ के लेखक द्वारा समीक्षित कथासम्राट प्रेमचंद की कथा मूठ की लघु समीक्षा.......

फ़ोटो साभार : गूगल
प्रेमचंद की कहानी 'मूठ' !

क्या आदि और इत्यादि में अंतर नहीं होते ? कथानुसार स्थान से गंगा नदी की दूरी कितनी है ? क्या कथाकाल में ७५० रुपये मामूली रकम होती थी ? क्या कथाकाल में 'मेस्मेरिजम' शब्द हिंदी जुबां में प्रसिद्ध था ? दूसरे पक्ष को कैसे मालूम होंगे कि उनपर 'मूठ' चला है ? क्या विज्ञान को माननेवाले डॉक्टर 'ओझा' के पास जा सकते हैं ? चोर का पता 'ओझा' लगा दें, तो फिर लोग 'पुलिस' क्यों बनते हैं ?

जो भी हो, प्रेमचंद रचित 'मूठ' अर्द्धवास्तविक कथा है, जिनका जीवन से संबंध है भी और नहीं भी !

नमस्कार दोस्तों ! 


'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं। इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय।


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12.06.2018

"डॉ. अम्बेडकर पर कुछ अविस्मरणीय तथ्य : एक सिंहावलोकन" (आलेखक : श्री सदानंद पॉल)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     06 December     आलेख     No comments   

मैसेंजर ऑफ आर्ट हमेशा से पुरानी चीजों को नये-नये तरीके से प्रकाशित करते आ रहे हैं । आज डॉ. अम्बेडकर साहब का महापरिनिर्वाण दिवस है । आइये पढ़ते हैं, उनपर अद्भुत आलेख, जो कि डॉ. सदानंद पॉल द्वारा लिखित है.....


 1.] डॉ. आम्बेडकर ने 1952 में बॉम्बे (उत्तर मध्य) निर्वाचन क्षेत्र से पहले लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा, किन्तु वे हार गये। इस चुनाव में आम्बेडकर को 123,576 मत तथा उनके कभी सहायक रहे नारायण सडोबा काजोलकर को 138,137 मत प्राप्त हुए थे । उन्होंने भंडारा से 1954 के उपचुनाव में फिर से लोकसभा में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहे । इस उपचुनाव में भी कांग्रेस पार्टी जीती।  वोटों का मतदान किया गया था। मार्च 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन व राज्य सभा के लिए मनोनीत सदस्य के रूप में भेजा गया, जो मृत्युपर्यन्त वह इस सदन के सदस्य रहे।

2.] डॉ. आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को 'अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ' में बदलते देखा, परंतु 1946 में भारत के 'संविधान सभा' के लिए हुये चुनाव में उनकी पार्टी ने खराब प्रदर्शन किया। बाद में वह बंगाल, जहां मुस्लिम लीग सत्ता में थी, वहां से संविधान सभा के लिए चुने गए।

3.] डॉ. आम्बेडकर ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 का विरोध किया, जिसने जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिया है । यह अनुच्छेद उनकी इच्छाओं के खिलाफ संविधान में शामिल किया गया था। डॉ. अम्बेडकर ने शेख अब्दुल्ला को स्पष्ट रूप से कहा था, "आप चाहते हैं कि भारत को आपकी सीमाओं की रक्षा करनी चाहिए, उसे आपके क्षेत्र में सड़कों का निर्माण करना चाहिए, उसे आपको अनाज की आपूर्ति करनी चाहिए, परंतु कश्मीर को भारत के समान दर्जा देना चाहिए और भारत सरकार के पास केवल सीमित शक्तियां होनी चाहिए और भारतीय लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। इस प्रस्ताव को सहमति देने के लिए, भारत के कानून मंत्री के रूप में भारत के हितों के खिलाफ एक विश्वासघाती बात होंगी, यह वह कभी नहीं करेगा।"

4.] डॉ. आम्बेडकर वास्तव में 'समान नागरिक संहिता' के पक्षधर थे। भारत को वे आधुनिक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत सोच-विचारोंवाले देश के रूप में देखना चाहते थे, जिनमें कोई भी पर्सनल कानून की जगह नहीं हो। 'संविधान सभा' में बहस के दौरान उन्होंने एक समान नागरिक संहिता को अपनाने की सिफारिश करके भारतीय समाज में सुधार करने की अपनी इच्छा प्रकट कि। सन 1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल (हिंदू संहिता विधेयक) के मसौदे को रोके जाने के बाद डॉ. आम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। हिंदू कोड बिल द्वारा भारतीय महिलाओं को कई अधिकारों प्रदान करने की बात कही गई थी। 

5.] डॉ. आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने समर्थकों के साथ एक औपचारिक सार्वजनिक धर्मांतरण समारोह का आयोजन किया। जहाँ  उसने अपनी पत्नी सविता एवं कुछ सहयोगियों के साथ भिक्षु महास्थवीर चंद्रमणी द्वारा पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया । वह बौद्ध धर्म में मृत्यु तक यानी कुल 54 दिन रहे!

6.] डॉ. आम्बेडकर की पहली पत्नी रमाबाई की मृत्यु 27 मैं 1935 को एक लंबी बीमारी के बाद हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं, परन्तु डॉ. आम्बेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी और कहा, "उस हिन्दू तीर्थ में जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है ।" इसके बजाय उन्होंने पत्नी के लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही।

7.] डॉ. आम्बेडकर ने भारतीय संविधान के मसौदे को पूरा करने के बाद अनिद्रा से पीड़ित रहने लगे । उनके पैरों में न्यूरोपैथिक दर्द था, इंसुलिन और होम्योपैथिक दवाएं ले रहे थे। वह इलाज के लिए बॉम्बे (मुम्बई) गए और वहां डॉक्टर शारदा कबीर से मिले, जिनके साथ उन्होंने 15 अप्रैल 1948 को नई दिल्ली में अपने घर ही विवाह किए । डॉक्टरों ने एक ऐसे जीवन साथी की सिफारिश की जो एक अच्छा खाना पकाने वाली हो और उनकी देखभाल करने के लिए चिकित्सा ज्ञान हो। ब्राह्मणी डॉ. शारदा कबीर ने शादी के बाद सविता आम्बेडकर नाम अपनाया और उनके शेष जीवन में उनकी देखभाल की।  

8.] डॉ. आम्बेडकर की मृत्यु के बाद परिवार में उनकी दूसरी पत्नी सविता आम्बेडकर रह गयी थीं, जो बौद्ध आंदोलन में आम्बेडकर के साथ बौद्ध बनने वाली पहली महिला थी। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम डॉ. शारदा कबीर था। डॉ. सविता आम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में 29 मई 2003 में 94 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। प्रथम पत्नी से प्राप्त पुत्र यशवंत आम्बेडकर रहे, फिर उनके पुत्र यानी डॉ. आम्बेडकर के पौत्र प्रकाश आम्बेडकर भारतीय संसद के दोनों सदनों के सदस्य रह चुके हैं। इसप्रकार प्रकाश, आनंदराज तथा भीमराव -- तीनों यशवंत आम्बेडकर के पुत्र हैं । डॉ. आम्बेडकर जब पाँचवी अंग्रेजी कक्षा पढ़ रहे थे, तब उनकी शादी रमाबाई से हुई। रमाबाई से पाँच बच्चे प्राप्त हुए थे, जिनमें चार पुत्र यशवंत, रमेश, गंगाधर, राजरत्न और एक पुत्री इन्दु थी, किंतु 'यशवंत' को छोड़कर सभी संतानों की बचपन में ही मृत्यु हो गई। सविता आम्बेडकर, जिन्हें 'माई' या 'माइसाहेब' कहा जाता है, जिनकी मृत्यु 29 मई 2003 को महरौली, नई दिल्ली में 93 वर्ष की आयु में हो गयी ।

9.] डॉ. आम्बेडकर तीन महान व्यक्तियों को अपना गुरु मानते थे यानी  महात्मा बुद्ध, संतकवि कबीर और महात्मा ज्योतिबा फुले। भारतीय जनता पार्टी समर्थित बीपी सिंह की सरकार ने 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया, इनके प्रति यह प्रतिष्ठा 'कांग्रेस' ने कभी नहीं सोचा।

10.] डॉ. आम्बेडकर ने पाकिस्तान की मांग कर रहे मुस्लिम लीग के लाहौर रिज़ोल्यूशन-1940 के बाद 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' नामक 400 पृष्ठों की एक पुस्तक लिखा, जिसने अपने सभी पहलुओं में 'पाकिस्तान' की अवधारणा का विश्लेषण किया। इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। साथ ही यह तर्क भी दिया कि हिंदुओं को मुसलमानों के पाकिस्तान का स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने प्रस्तावित किया कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम बहुमत वाले हिस्सों को अलग करने के लिए क्रमशः पंजाब और बंगाल की प्रांतीय सीमाओं को फिर से तैयार किया जाना चाहिए। उन्होंने सोचा कि मुसलमानों को प्रांतीय सीमाओं को फिर से निकालने के लिए कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। विद्वान वेंकट ढलीपाल ने कहा कि 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' ने एक दशक तक भारतीय राजनीति को रोका ! इसने मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच संवाद के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया, जो भारत के विभाजन के लिए रास्ता तय कर रहा था, हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे, किन्तु उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये, क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए व जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी!

11.] डॉ. आम्बेडकर का गांधीजी से कई दृष्टिकोणों को लेकर मतभेद था । गांधीजी जब पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही गांधीजी ने पहले तो अंग्रेजी हुकूमत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने की मांग की, लेकिन जब उनको लगा कि उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा कर दी । इसी बीच डॉ. आम्बेडकर ने कहा, ''यदि गांधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखता तो अच्छा होता, लेकिन उन्होंने दलित लोगों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। जबकि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी पृथक निर्वाचन के अधिकार को लेकर गांधी की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई है । वैसे गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं। भारत में न जाने कितने ऐसे लोगों ने जन्म लिया और चले गए। गांधी की जान बचाने के लिए वह दलितों के हितों का त्याग नहीं कर सकते।'' इधर आमरण अनशन के कारण गांधीजी की तबियत लगातार बिगड़ रही थी और तब पूरा हिंदू समाज 'आम्बेडकर' का विरोधी हो गया। देश में बढ़ते दबाव को देख डॉ. आम्बेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे येरवडा जेल पहुंचे। यहां गांधीजी और डॉ. आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से जाना गया !

12.] डॉ. आम्बेडकर ने कहा, 'छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।' बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन में अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ.  भीमराव आम्बेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में कार्य करने लगे। यहाँ तक कि उन्होंने अपना परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया, जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा। अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। 

13.] डॉ. आम्बेडकर ने 1920 में कोल्हापुर के शाहू महाराज और अपने एक पारसी मित्र के सहयोग तथा कुछ अपनी बचत से इंग्लैंड जाने में सफ़ल हो पाए तथा 1921 में विज्ञान स्नातकोत्तर (एम॰एससी॰) प्राप्त की। 1922 में उन्हें ग्रेज इन ने बैरिस्टर-एट-लॉज डिग्री प्रदान की और उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। फिर 1923 में उन्होंने अर्थशास्त्र में डी॰एससी॰ (डॉक्टर ऑफ साईंस) उपाधि प्राप्त की। उनकी थीसिस 'दी प्राब्लम आफ दि रुपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन' (रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान) पर थी। लंदन का अध्ययन पूर्ण कर भारत वापस लौटते हुये डॉ. भीमराव आम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। किंतु समय की कमी के कारण वे विश्वविद्यालय में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सके । उनकी तीसरी और चौथी डॉक्टरेट्स [एलएल॰डी॰, कोलंबिया विश्वविद्यालय, 1952 और डी॰लिट॰, उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1953] भी उन्होंने प्राप्त कर लिये । इसके पूर्व लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और कोलंबिया यूनिवर्सिटी, USA से उन्होंने स्नातकोत्तर किया । इसप्रकार डॉ. आम्बेडकर विदेश से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री लेने वाले पहले भारतीय थे।

14.] डॉ. आम्बेडकर दक्षिण एशिया के इस्लाम की रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया, पर मुस्लिमो में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंंने हरिजन, रखैल आदि शब्दों का विरोध किया, क्योंकि यह घृणित शब्द हैं ।

**भारतरत्न डॉ. आम्बेडकर  के महापरिनिर्वाण दिवस (6 दिसंबर) पर सादर नमन !


नमस्कार दोस्तों !

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11.12.2018

'शारदा सिन्हा के 'छठ' गीतों में 'अभद्र' शब्दों का बोलबाला !'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     12 November     अतिथि कलम, आलेख     No comments   

पूरी दुनिया में उगते हुए सूर्य को प्रणाम व नमस्कार किया जाता है, अर्थात अच्छे दिनों में लोगों की सबकोई हौसले अफजाई करते हैं, लेकिन पूरी दुनिया में भारत के मुख्यरूपेण  बिहार राज्य में ऐसा ही प्रतिवर्ष होता है, जहां 'डूबते हुए सूर्य' को भी प्रणाम किया जाता हैं । डूबते हुए 'सूर्य' देव का नमन यानी छठ पर्व का पहला अर्घ्य । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर प्रो.सदानंद पॉल का आलेख...,आइये देर न करते हुए पढ़ ही लेते हैं --



शारदा सिन्हा के 'छठ' गीतों में 'अभद्र' शब्दों का बोलबाला !

सूर्योपासना और लोकआस्था का महापर्व 'छठ' के आते ही बिहार, झारखंड, पश्चिमी प. बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल इत्यादि अवस्थित श्रद्धालुओं द्वारा कैसेट, सीडी, मोबाइल, लाउडस्पीकर, साउंड बॉक्स इत्यादि के मार्फ़त 'छठ' गीत सुनने को मिलने लग जाते हैं।

पहले पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी, अनुराधा पौडवाल के द्वारा गाई गई लोकगीतों को सुनी जा सकती थी । हालांकि यह अब भी है, किन्तु लगभग 3 दशकों से जिस प्रकार से 'छठी' मैया के लोकगीतों को लेकर 'शारदा सिन्हा' के गीतों की घर-घर चर्चा है, इसे सुनते हुए बिहार सरकार ने 2009 में उन्हें 'भोजपुरी की लता मंगेशकर सम्मान' प्रदान की ।

किन्तु हर किसी को भारत रत्न लता मंगेशकर कह देने से 'शारदा जी' को लेकर अभिमानबोध गृहीत होती है । वैसे शारदा सिन्हा के बोल में न सिर्फ भोजपुरी, अपितु हिंदी, मैथिली, मगही, वज्जिका, अंगिका इत्यादि भाषाई भी शामिल हैं । जिसतरह से उनकी द्वारा गाई गयी छठी गीतों में कुष्ठ रोगियों के लिए अपशब्द जैसे- कोढ़िया, फिर दृष्टिहीन व्यक्ति के लिए अन्हरा, संतानहीन माता-बहनों के लिए बांझ इत्यादि सहित अनुसूचित जाति के लिए 'डोमरा' कह इनके कार्य 'सुपवा' को गीतों में पिरोया गया है, यह उक्त रोगी, दिव्यांग व जाति-पाँति के भाव लिए असम्मान करने के गुरेज़ से है । यही नहीं, किसी को 'कुरूप' (ugly) कह ऐसे लोगों को उबारना नहीं, अपितु उनमें हीनभावना भरना ही कहा जायेगा । रही-सही कसर, शारदा सिन्हा के इन गीतों के माध्यम से छठी मैया से 'पुत्र' प्राप्ति की प्रबलतम इच्छा को उद्भूत कर 'बेटी बचाओ' अभियान को तिरोहित की जा रही है ! उनकी छठ गीतों में -- ओ हो दीनानाथ, पहले-पहले छठी मैया, केलवा के पात पर, नदिया के तीरे-तीरे, उठहु सुरुज भेले बिहान, हे गंगा मैया, पटना के घटवा पर..... इत्यादि को सर्वप्रथम HMV ने स्वरबद्ध किया, बाद में T-series ने ।

जबकि पद्मभूषण शारदा सिन्हा की कविता कितनी ही भाव-प्रवण है, देखिए तो सही---

"कौम को कबीलों में मत बाँटो,
सफ़र को मीलों में मत बाँटो,
बहने दो पानी जो बहता है --
अपनी रवानी में उसे कुँआ,
तालाबों, झीलों में मत बाँटो !"

परंतु, गायन में अभद्र शब्द क्यों ?

यह दीगर बात है, 1988 में मॉरीशस के स्वतंत्रता-समारोह में इनकी प्रस्तुति ने खास पहचान बनाई, तो 1991 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित की, तो 26 वर्ष बाद यानी 2017 में 'पद्मभूषण' से सम्मानित भी किया । इस बीच 2000 में संगीत नाटक अकादमी ने भी सम्मानित की है ।

ध्यातव्य है, सुपौल (बिहार) के हुलास गाँव में शिक्षाधिकारी पिता शुकदेव ठाकुर के घर अक्टूबर 1952 में जन्मी शारदा ठाकुर की शादी डॉ. ब्रज किशोर सिन्हा से होने के बाद वह शारदा सिन्हा हो गई । हालांकि वे खुद महिला महाविद्यालय, समस्तीपुर में प्राध्यापक थी। बांकीपुर बालिका उच्च विद्यालय, पटना से मैट्रिक करने के बाद मगध महिला महाविद्यालय, पटना से इंटर, स्नातक और अंग्रेजी में स्नातकोत्तर, तो पुनः 'प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद' से संगीत में भी स्नातकोत्तर की। इतना ही नहीं, टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, समस्तीपुर से बी एड की । बहरहाल, 2017 में प्राध्यापिका पद से अवकाशप्राप्ति के बाद राजेंद्रनगर, पटना में अपने आवास 'नारायणी' में रह रही हैं ।


नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।


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9.14.2017

'एकराष्ट्र_एकभाषा_एकतिरंगा : हर दिन बोली जाने वाली भाषा की पूजा एक दिन क्यों ?'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     14 September     आलेख     No comments   

संविधान बहुत चीजें कहती हैं, वह भी लिखित में, परंतु कुछ चीजों को व्यक्ति द्वारा न मानने की कसमें व जिद उन्हें इतिहास विस्मृत कर डालते हैं । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, डॉ. सदानंद पॉल की हिन्दी - दिवस पर आलेख,आइये पढ़ते है और जानते हैं हिन्दी की सच्चाई, महती भूमिका के साथ.....




1949 के 14 सितम्बर को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया, इसलिए इस तिथि को 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाये जाने का प्रचलन है, कोई उल्लिखित नियम नहीं ! भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप कहीं कोई उल्लेख नहीं है । परंतु हिंदी के लिए देवनागरी लिपि का उल्लेख संवैधानिक व्यवस्था लिए है, किन्तु भारतीय संविधान में अँग्रेजी लिखने के लिए किसी लिपि का उल्लेख नहीं है । गृह मंत्रालय, भारत सरकार ने भी एक RTI जवाब में अँग्रेजी की ऐसी स्थिति को लेकर मुझे पत्र भेजा है । बुरी स्थिति हिंदी के लिए नहीं अँग्रेजी के लिए है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार उसकी कोई लिपि नहीं है । इसतरह से अंतरराष्ट्रीय अँग्रेजी और भारतीय अँग्रेजी में अंतर है । चूँकि भारत से बाहर अँग्रेजी रोमन लिपि में है और भारत में यह किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है । (अँग्रेजी के 'लिङ्ग' पर मैंने ध्यान नहीं दिया है!) 

ये लिङ्ग, ये वचन, ये संज्ञा, ये सर्वनाम, ये क्रिया-कर्म, संधि-कारक (अलंकार और समास की बात छोड़िये ) ने तो हिंदी के विकास को और चौपट किया है, इनमें संस्कृतनिष्ठ शब्द उसी भाँति से पैठित है, जिस भाँति से जो-जो आक्रमणकारी भारत आये, वे अपनी भाषा को भी कुछ-कुछ यहाँ देते गए, तो यहाँ की भाषा को कुछ-कुछ ले भी गए । 'आधुनिक हिंदी व्याकरण और रचना' (23 वाँ संस्करण) में लिखा है कि हिंदी,हिन्दू और हिन्दुस्तान जैसे शब्दों को पारसियों ने लाया है, ये तीनों शब्द 'जेंदावस्ता' ग्रन्थ में संकलित हैं । अमीर ख़ुसरो और मालिक मुहम्मद जायसी ने इसे 'हिन्दवी' कहा । इस हिन्दवी के पहले की हिंदी को कोई आरंभिक हिंदी कहा, तो प्रो0 नामवर सिंह ने 'अपभ्रंश' कहा, जबकि कई ने कहा - ऐसी कोई हिंदी नहीं है, जब अपभ्रंश का अर्थ बिगड़ा हुआ रूप होता है, तो उस लिहाज़ से संस्कृत का बिगड़ा रूप हिंदी हो, किन्तु जिस भाँति के संस्कृत के वाक्य-विन्यास है, उससे नहीं लगता कि वर्तमान हिंदी 'संस्कृत' से निकला हो । हाँ, अच्छा लिखा जाने के लिए संस्कृत के शब्दों को लिया गया । इसके साथ ही मुझे यह भी कहना है, पारसियों की भाषा-विन्यास से यह कतई नहीं लगता कि हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान जैसे शब्द-त्रयी पारसियों की देन हो सकती है ! क्योंकि सिंधु-सभ्यतावासियों की अबूझ लिपि, महात्मा बुद्ध काल के पालि भाषा या ब्राह्मणत्व संस्कृत से विलग हो संस्कृत की गीदड़ी लोकभाषा लिए समाज से बहिष्कृत पार्ट दलित और बैकवर्ड की भाषा के रूप में 'हिंदी' निःसृत हुई , जैसा मेरा मानना है । क्या यह आश्चर्य नहीं है, दलित-बैकवर्ड की भाषा 'हिंदी' पर भी भारत के कथित सवर्ण व 'ब्राह्मण' की नज़र गड़ गया-- पंडित कामता प्रसाद गुरु ने 'हिंदी व्याकरण' को संभाला, तो पंडित रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी साहित्य के इतिहास' को सरकाने का ठीका ले लिया, आज इसी ठीकेदारों की प्रस्तुत तथाकथित ठीकेदारी को मॉडर्न आलोचक, समीक्षक अपनाने का एवेरेस्टी बीड़ा उठा रखे हैं । हाँ, उर्दू के लिए कुंजड़िन की बोली- 'भिवरु ले लई' से आगे बढ़कर मोमिन, राईन आदि ने शेखु, सैय्यद आदि को पछाड़ते हिंदी के समानांतर वो आबद्ध हुई । हाँ, दोनों में अंतर सिर्फ लिपि का रहा ।

भारतीय आज़ादी से पूर्व हिंदी स्वतंत्रता प्राप्तार्थ एक आंदोलन के रूप में था, आज की हिंदी स्वयं में एक त्रासदी है । तब पूरे देश को हिंदी ने मिलाया था , आज हम चायवाले की हिंदी, खोमचेवाले की हिंदी, गोलगप्पेवाले की हिंदी के स्थायी और परिष्कृत रूप हो गए हैं । हमें 'नेकटाई' वाले हिंदी के रूप में कोई नहीं जानते हैं । हम अभी भी जनरल बोगी के यात्री हैं... कुंठाग्रस्त और अँग्रेजी कमिनाई के वितर । क्लिष्ट हिंदी में पंडित कहाओगे, सब्जीफरोशी उर्दू के बनिस्पत कोइरीमार्का हिंदी के प्रति अंग्रेजीदाँ लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं ! हिंदी से असमझ लोग वैसे ही हैं, जैसे कोई नर्स की स्टैंडर्डमार्का को देख उन्हें माँ कह उठते हैं । आज़ादी से पहलेे हिंदी के लिए कोई समस्या नहीं थी, आज़ादी के बाद हिंदी की कमर पर वार उन प्रांतों ने ही किया, जिनके आग्रह पर वहाँ हिंदी प्रचारिणी सभा गया था - मद्रास हिंदी सोसाइटी, असम हिंदी प्रचार सभा, वर्धा हिंदी प्रचार समिति, बंगाल हिंदी एसोसिएशन, केरल हिंदी प्रचार सभा इत्यादि । 

मेरा मत है, भारत की 80 फ़ीसदी आबादी किसी न किसी रूप में या तो हिंदी से जुड़े हैं या हिंदी अथवा सतभतारी हिंदी जरूर जानते हैं , बावजूद 80 फ़ीसदी कार्यालयों में हिंदी में कार्य नहीं होते हैं, सिर्फ़ एक पंचलाइन लिखकर टांग दिया जाता है कि 'यहाँ हर कार्य, वार्त्तालाप तथा पत्रोत्तर तक में हिंदी में कार्य होते हैं ।' अब तो हिंदी के अंग एकतरफ ब्रज, अवधी, तो मैथिली, भोजपुरी, मगही, बज्जिका इत्यादि अलग भाषा बनने को लामबंदी किए हैं । संविधान की 8 वीं अनुसूची की भाषा भी हिंदी के लिए खतरा है । हमें हिंदी के लिए खतरा नामवर सिंहों से भी है, जो सिर्फ नाम बर्बर हैं या नाम गड़बड़ हैं । हिंदी में मोती चुगते 'हंस' निकालने वाले भी हिंदी के लिए भला नहीं सोचते हैं । ये सरकारी केंद्रीय हिंदी संस्थान भी मेरे शोध-शब्द 'श्री' को हाशिये में डाल दिए हैं । 10 सालों की मेहनत के बाद लिखा 2 करोड़ से ऊपर तरीके से लिखा हिंदी शब्द  'श्री' और 'हिंदी का पहला ध्वनि व्याकरण' को हिंदी गलित विद्वानों ने एतदर्थ इसके लिए अबतक अपने विधर्मी रुख अपनाये हुए हैं । ... और हिंदी में भी फॉरवर्ड हिंदी है, तो बैकवर्ड हिंदी है । इधर दैनिक जागरण ने 'बेस्ट सेलर' अभियान के तहत 'नई वाली हिंदी' को जोर-शोर से प्रचार - प्रसार कर रखा है । युवा प्रकाशक शैलेश भारतवासी भी इस हेतु अपना दम-खम भिड़ा चुके हैं । इधर इ-मैगज़ीन 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' ने एक अभियान चला रखा है-- 'एक राष्ट्र, एक भाषा, एक तिरंगा' । यहाँ भाषा से तात्पर्य हिंदी है । बकौल, मैसेंजर ऑफ आर्ट:---

"भारत धर्मनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष देश है, हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां भाषाई विविधताएँ हैं, लेकिन धर्म, भाषा व बोलियों में विविधता होने के बावजूद भी हमारा देश महान है, इसके कारण तो यहाँ की सामाजिक संस्कृति है ! हमारे देश में ऐसी महान संस्कृतियाँ विराजमान हैं, परंतु यहाँ पर ऐसे लोग भी हैं, जो 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे नारों को भी ईजाद कर डालते हैं, वो भी देश के एक बड़े यूनिवर्सिटी के प्रांगण में ! ऐसे लोग कैसे और किन कारणों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुलूस निकालकर भी जमानत पाकर देश में छुट्टा साँड़ की तरह घूमते हैं और कभी देश के अंदर अन्य तिरंगों की बात भी गाहे बगाहे करते रहते है ! 

डाइवर्सिटी..... !!! हमारी पहचान है, लेकिन जब बिहार के लोग पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु घूमने निकल जाते हैं, तो हिंदी भाषा में अगर हम उसके प्रांतीय बंधुओं से उनके राज्य में भ्रमणार्थ कहीं जाने हेतु 'पता' पूछते हैं, तो वे लोग हिंदी जानकर भी क्रमशः बांग्ला अथवा तमिल में ही जवाब देते है ! जबकि हिंदी किसी एक राज्य विशेष की भाषा आखिर है कहाँ ? भारतीय संविधान में 2 ही राजभाषा है, एक हिंदी और दूजे अंग्रेजी । किन्तु हिंदी के विशेष प्रचारार्थ संविधान में अलग से अनुच्छेद भी है । वैसे भारत मे कुल 1652 बोलियाँ  हैं और संवैधानिक रूप से, किन्तु सानुच्छेद नहीं व संशोधित व जोड़कर  '22' भाषायें उपलब्ध हैं ! मैं इन सभी भाषाओं के प्रति सम्मान की नज़र से नतमस्तक हूँ, लेकिन हमारी प्राथमिकता हिंदी भाषा है,क्योंकि हिंदी किसी एक राज्य की भाषा नहीं है, परंतु वैश्विक परिदृश्य लिए भारत सहित पूरी दुनिया में 90 करोड़ लोग हिंदी को बोलते व समझते हैं, यही कारण है, यह भाषा हर भारतीय लोगों को अच्छी तरह से जानना नहीं, तो समझ में अवश्य आनी चाहिए ! अन्यथा ऐसा नहीं हो कि 'साउथ स्टेट्स' में जब हिंदी भाषी लोग घूमने जाय,तो उन्हें अपना देश ही बेगाना न लगने लग जाय ! महाराष्ट्र की बात ही छोड़िये, वहाँ मराठियों के लिए जो भी हो, किन्तु वहाँ हिंदी सिनेमा का 'वोलीवुड' विस्तार है । अगर हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्पूर्ण देश के लिए नहीं हो पाई, तो संविधान में इन्हें विशेष सम्मानित करने का मतलब ही नहीं रह जाता है, न ही प्रति वर्ष हिंदी दिवस मनाने का मतलब रह जाता है ।!

उसी भाँति से कोई देश अखंड तभी रह सकता है, जब उस देश के एक राष्ट्रध्वज हो, किन्तु यहाँ जम्मू-कश्मीर के बाद कर्नाटक के लिए अपना 'ध्वज' अपनाने के लिए जो नाटक हो रही है, यह किसी देश की अखंडता और अक्षुण्णता के लिए अच्छी बास्त नहीं कही जाएगी ! तभी तो आप सभी दोस्त जब मेरे अभियान को हमारा अभियान बनाऐंगे और अपने टाइमलाइन में कैप्शन के साथ लिखेंगे----  #एकराष्ट्र_एकभाषा_एकतिरंगा 
तभी हमारे मन को 'मन की बातें ' आ पाएंगी ! जय भारत !"

                                                        इसप्रकार से हम हिंदी को आज के उन बकलोल साहित्यकारों व उपासकों के जिम्मे बड़ा-बरगद होने के  लिए छोड़ दिए है, जो कि सरलीकरण के बजाय क्लिष्ट हिंदी को ही परोसने में लगे हैं । इससे हमें निजात पाना होगा और वर्त्तमान हिंदी में गैर हिन्दीभाषी भारतीय राज्यों के सफल और सुफल शब्दों को भी शामिल करना होगा , तभी हिंदी के लिए जनभागीदारी बढ़ पाएगी । इस जनभागीदारी की अप्रत्याशित सफलता पर ही 'हिंदी दिवस' मनाने का कोई ढंग का औचित्य समझा जा सकेगा !

नमस्कार दोस्तों ! 

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9.04.2017

"टेलिस्कोप से भी दूर की उपलब्धियां बटोरती भारतीय युवतियाँ"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     04 September     आलेख     No comments   

भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, हम ऐसे देश में रहते हैं, जहां भाषाई विविधता हैं, लेकिन धर्म, भाषा व बोलियों में विविधता होने के बावजूद भी हमारा देश महान है, इसके कारण तो यहाँ की सामाजिक संस्कृति है ! जब हमारे देश ऐसी महान संस्कृतियाँ विराजमान है, तब भारतीय युवतियाँ और महिलाएँ चिरगौरवान्वित कहला उठती हैं । ऐसे में और इसी की खातिर आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते है सुश्री सुप्रिया सिन्हा की प्रस्तुत आलेख...


लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं : --




कहते हैं :- जुनून और लगन जिसके सर चढ़कर बोलता हो , उसे सफल होने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती । बेशक ! इस मामले में लड़कियों ने अपनी बुलंदी बखूबी कायम की है । अपने मजबूत इरादे से दिन-ब-दिन अपनी सफलता को अनंत ऊँचाइयों तक ले जाने में दिन-दूनी ,रात-चौगुनी की तरह तरक्की कर रही है । हमारे देश की लड़कियों ने बीते कुछ दिनों में विभिन्न क्षेत्रों में  सफलता के झंडे गाड़कर सिर्फ़ अपने माँ-बाप का ही नहीं बल्कि पूरे देश को गौरवान्वित किया है ।
       आइए एक नजर डालते हैं , कुछ ऐसे ही समाचार की सुर्खियों पर जो हाल ही में सोशल मीडिया , प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया , हर  जगह सुर्खियों में बनीं रही ।
1) हाल ही में देहरादून की "भूमिका शर्मा" ने इटली के वेनिस में आयोजित 'वर्ल्ड बाॅडी बिल्डिंग चैंपियनशिप ' में अपने मजबूत हौसले से सारे प्रतियोगी को पछाड़ कर 'बाॅडी बिल्डिंग मिस वर्ल्ड' का खिताब अपने नाम कर लिया । इस प्रतियोगिता में विभिन्न देशों की 50 महिला प्रतियोगी ने हिस्सा लिया था । इसी के साथ भूमिका शर्मा 'महिला वर्ल्ड बाॅडी बिल्डिंग चैंपियनशिप ' जीतने वाली भारत की पहली महिला बन गई । 
2) इंग्लैंड में आयोजित 'महिला क्रिकेट विश्वकप टूर्नामेंट'में भारत की टीम ने पाकिस्तान को लगातार 10वीं बार हराकर जीत अपने नाम कर ली । टूर्नामेंट में भारत की टीम  50 ओवर में 9 विकेट गंवाकर 169 उन पर ही सिमट गई थी । परंतु भारतीय टीम की 'एकता बिष्ट ' ने अपने अक्रामक गेंदबाजी से 38.1 ओवर में 74 रन पर ही पाकिस्तानी टीम को धराशायी कर दिया । पाकिस्तान को तीसरी बार हार का सामना करना पड़ा और इस टूर्नामेंट में भारत की लगातार तीसरी जीत है ।
3) ग्रीस में आयोजित 'इंटरनेशनल टूरिज्म ' प्रतियोगिता में भारत की 'रश्मि बुंटवाल' ने सारे प्रतियोगी को हराकर 'मिस इंटरनेशनल टूरिज्म ' का ताज अपने नाम कर लिया ।
4) महिला क्रिकेट विश्वकप में अॉस्ट्रेलिया के खिलाफ हुए मैच में बेशक हमारी भारतीय महिला टीम हार गई हो पर हारकर भी अपने हौसले का दम दिखा गई । भारतीय महिला टीम की कप्तान " मिताली  राज " महिला वनडे क्रिकेट में शानदार प्रदर्शन कर 6000 रन बनाने वाली दुनिया की पहली क्रिकेटर बन गईं हैं । 183 वनडे मैच में अब तक 6,028 रन बना चुकीं हैं "मिताली राज " । ये रन रिकाॅर्ड पहले इंग्लैंड की चार्लोट एडवर्ड्स के नाम था । जिन्होंने 191 मैच में 5992 रन बनाया था और अब ये रिकाॅर्ड "मिताली राज" के नाम हो गया है ।
5)जर्मनी की राजधानी बर्लिन में  आयोजित पैरा स्वीमिंग चैंपियनशिप में दृष्टिबाधित तैराक 'कंचनमाला और सुयश' ने सिल्वर मेडल जीतकर 'विश्व पैरा तैराकी चैंपियनशिप' के लिए भी क्वालीफाई कर लिया । खेल में हो रहे भ्रष्टाचार की वजह काफी मुश्किल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा । यहां तक कि 'कंचनमाला' को भीख भी मांगनी पड़ी ,, फिर भी इन परिस्थितियों को अपनी सफलता के आड़े नहीं आने दिया । अपनी जीत पक्की कर पूरे देश का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया । 
6) आखिरकार !  महिला विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट में आॅस्ट्रेलिया को हराकर भारतीय महिला टीम ने फाइनल में अपनी जगह बना ही ली । ये मैच काफी रोमांचक रहा ,और  एक बार फिर  लड़कियों ने देश को गौरवान्वित कर दिया ।भारतीय महिला क्रिकेट टीम की खिलाड़ी "हरमनप्रीत कौर" ने रनों की बौछार कर डाली । आॅस्ट्रेलिया  के खिलाफ हुए मैच में नाबाद 171 रन बनाकर ना सिर्फ भारत को जीत दिलाई बल्कि पूरे देश का दिल जीत लिया ।       
सचमुच , ये सब सिर्फ लड़कियां ही नहीं बल्कि हमारे देश की मिसाल है ।लड़कियां लड़कों से कम नहीं ,ये बात इन सब लड़कियों ने साबित कर दिया । ये बात हमारे समाज , परिवार सबको समझना होगा कि लड़कियां सिर्फ़ चूल्हे-चौके के लिए नहीं बनी है । यदि उसके हौसले को आगे के लिए प्रेरित करें तो लड़कियां हमेशा अव्वल आएंगी । इसलिए लड़कियों को बोझ नहीं अपने घर का मान समझें । समाज को भी लड़कियों के प्रति अपनी मानसिकता बदलनी होगी । 
                          इन सारी लड़कियों ने आज अपने बुलंद हौसले से अपनी सफलता हासिल की है । साथ-ही-साथ देश की सारी लड़कियों को भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है । इनकी जीत वाकई काबिले-ए-तारीफ है । इनके जज्बे को सलाम ।

नमस्कार दोस्तों ! 

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7.30.2017

"इस्त्री...स्त्री : पहली कपड़े सीधी करती है, दूज़ी मरद !"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     30 July     आलेख     1 comment   

क्या नारीवादी सोच का मतलब यह है कि सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया में सिर्फ उनकी पीरियड्स, लाल धब्बे या उनकी द्वारा पहने कपड़े की short story इत्यादि के बारे में बात लिखी जाय ? कुछ दिनों से 'फेसबुकिये समाज' में  "सेल्फी विदाउट मेकअप " की परंपरा चल रही हैं  ! महिलाओं के द्वारा ही किए जा रही ऐसे प्रयोग शायद श्रृंगार-रोक पर हो या अन्य बहुत से कारणों को लेकर, लेकिन बिना मेकअप की कुछ फोटो डाल देने भर से क्या होगा ? जब किसी काले व्यक्ति को देखकर लोग उन्हें पीठ-पीछे  'रंगभेद' की डाह से  'करिया' ही बुलाते हों और गोर-गोर लड़के-लड़की की शादियाना-मांग ही रखे रहना क्या है यह सब ? हाल-फिलहाल बॉलीवुड अभिनेता 'नवाजुद्दीन सिद्दीकी' का बयान -- यह साबित करने के लिये काफी है कि उनके साथ रंग-भेद -व्यवहार एक महिला ने ही आरम्भ की थी , तो फिर यह कैसी नौटंकीबाजी है, महिलाओं द्वारा चलाई जा रही 'सेल्फी विदाउट मेकअप' मूवमेंट !! यह मुद्दा बहुत सारे अनमोल प्रश्नों को जन्म देती हैं । छोड़िये, मैं भी कहाँ ले आया आपको ? आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, हमारी भूमिकाजन्य मीमांसा लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता कर रहे श्रीमान आकाश सिंह की प्रस्तुत महिलाजन्य-सवालिया आलेख ... ये लीजिये-----


आपका महिलावाद 

चलिए थोड़ा सोचते हैं कि कुछ महिलावाद की बातों पर ठीक से प्रकाश डालते हैं, कुछ तथाकथित  महिलावाद की किताबें थोड़ा और पढ़ते हैं, कुछ तथाकथित फेमिनिस्ट की बातें ज़हन में उतारते हैं, चलिए थोड़ा-सा और सोचते हैं ...!!

महिलावाद बनाम पुरुषवाद की इतनी खोखली लड़ाई हम लड़ने को व्याकुल होते जा रहे हैं कि हमने सोचना छोड़ दिया है वो लड़कियां या वो तथाकथित फेमिनिस्ट जो महिलावाद पर लिख रहे हैं उस पर अपने विचार रख रहे हैं वो असल में विचार व्यक्त नहीं कर रहे हैं वो विचार थोप रहे हैं !

आप अगर उनकी बात को पसंद नहीं करते हैं या सुनना नहीं चाहते हैं तो फिर आप एक संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता के शिकार हो चुके हैं । यह मैं नहीं ऐसा वो कह रहे हैं ..!
मैं व्यक्तिगत स्तर पर महिलाओं की इज्ज़त करता हूँ हम सभी को करना चाहिए लेकिन मुझे नहीं पसंद की  मैं किसी लड़की से उसके पीरियड्स के बारे में सुनूँ  !!                                                                                
मुझे आपका खुलकर बात करने में मुझे कोई परहेज़ नहीं, लेकिन इस खुलेपन के नाम पर आप अपनी पीरियड्स से रंगे हुए बेडशीट का फोटो सोशल मिडिया पर डाल कर अपने खोखले महिलावाद का प्रदर्शन करती हैं !

आप पान की टापरी पर खुल कर सुट्टा पीने और कहीं भी खुलकर गरियाने को महिला सशक्तिकरण का ढोल बता कर सोशल मिडिया पर पीटते हैं  आज के अर्थात आप के महिलावाद को अगर थोडा सा ठीक से पढ़ा जाए और उसको समझने की कोशिश किया जाए तो यकीन मानिये नतीजा ये निकलेगा --

'महिलावाद की पहली शर्त ये हैं की आपके हाथ में सिगरेट तो होनी ही चाहिए , फर्जी महिलावाद को पढने के बाद हमारे दिमाग में महिलावाद की जो तस्वीर बनती है वो यह है कि एक लड़की जिसने छोटे कपडें पहन रखे हो और उसके हाथ में सिगरेट तो ज़रूरी ही है।
आप इस हद तक लिखते और सोचते हैं कि आप अपने महिलावाद की नींव गालियों, पीरियड्स की तसवीरें , सिगरेट शराब और पुरुषों की बुराई पर रख कर दना दन ढोल पीट रहे हैं ...!'

हाँ ! मैं ये बात भी मानता हूँ कि हमारे इतिहास में महिलाओं को विशेष सम्मान तो दी जाती रही हैं, लेकिन वास्तविकता में कभी द्रौपदी का चीरहरण होता था कभी पांच भाइयों में बाँट भी दिया जाता हैं तो कभी सतीप्रथा के नामपर अन्धविश्वास । इससे उबरने के लिए महिलावाद की आवश्यकता निश्चित तौर पर थी, लेकिन आपने जिन विचारधाराओं को महिलावाद का नाम दे कर परोसना शुरू किया है, यकीनी तौर पर वो महिलावाद तो नहीं है, किन्तु महिलाओं को आगे ले जाने के लिए शराब या सिगेरेट या गालियों की कोई आवश्यकता नहीं है..! आवश्यकता है तो बस उनको समझने की कि उनके खिलाफ घरेलु हिंसा रोकने की उनके हो रहे बलात्कारों को रोकने की आवश्यकता है ।

धूम्रपान के निषेध का पक्षधर हूँ, किन्तु अगर एक क्षण के लिए सिगरेट पीने से या गालियों से कोई आपत्ति नहीं है-- को मान लूँ , तो भी आप उसको महिलावाद बता कर महिलावाद को ही गलत बना दे रहे हैं ! आप उस महिलावाद की तस्वीर को बदलने पर तुले हुए हैं, इससे महिलाएं सशक्त  तो नहीं होंगी लेकिन ये देश पहले पुरुषवाद का शिकार था, अब महिलावाद का हो जायेगा ....!!



नमस्कार दोस्तों ! 


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7.25.2017

"अबूझ पहेली : सबूझ लेखिका की मनश्चेतना के साथ"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     25 July     आलेख     1 comment   

पृथ्वी व धरती अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के सामर्थ्य तथा स्वयंचक्रा और सूर्यचक्रा हो ब्रह्मांड व यूनिवर्स में बिना किसी बाहरी सहायता के अवलंबित है, किन्तु भारत के पौराणिक ग्रंथों में सनातनी धर्म के विहित धरती को कछुआ के पीठ पर टिके होना बताया गया है । यह तो कछुआ के पीठ खुजलाने से 'भूकंप' का आना हास्यास्पद हो सकता है, परंतु धर्मग्रंथ स्वयंसिद्ध फार्मूला की भाँति 'थोथी' तर्क के वशीभूत हैं, तभी तो काशी व वाराणसी को धरती से अलग कर इसे 'शिव' के त्रिशूल पर अटके हुए मानते हैं ! सूर्य के एक पिण्ड के रूप में धरती का निर्माण, फिर यहाँ जीव-जंतुओं के आगमन पर संशय अबतक धुंध ही है, तथापि विज्ञान और वैज्ञानिक के रिसर्च से 'यूनिवर्स' का निर्माण 'बिंग-बैंग' व महाविस्फोट से होना बताया गया है, किन्तु लेखिका सुश्री मनीषा गुप्ता की बात माने, तो आप असहज हो सकते हैं । आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री मनीषा गुप्ता लिखित प्रस्तुत आलेख और खोते हैं, इस अनोखी दुनिया में, जिनके हल कभी संभव में नहीं हो सकते ! आइये, पढ़ते हैं, लेखिका के हू ब हू आलेख.........




प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखंड अर्थात इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।
प्रारंभिक मानव गुफा में रहता था? उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिकों ने दुनिया की सबसे प्राचीन पहाड़ी अरावली और सतपुड़ा की पहाड़ियों को माना है। यूनान के लोगों की धारणा थी कि उनके देवता गुफाओं में ही रहते थे। इसी प्रकार रोम के लोगों का मानना था कि गुफाओं में परियां तथा जादू-टोना करने वाले लोग रहते हैं। फारस के लोग मानते थे कि गुफाओं में देवताओं का वास होता है। आज का विज्ञान कहता है कि गुफाओं में एलियंस रहते थे। गुफाओं का इतिहास सदियों पुराना है। पाषाण युग में मानव गुफाओं में रहता था।

आमतौर पर पहाड़ों को खोदकर बनाई गई जगह को गुफा कहते हैं, लेकिन गुफाएं केवल पहाड़ों पर ही निर्मित नहीं होती हैं यह जमीन के भीतर भी बनाई जातीं और प्राकृतिक रूप से भी बनती हैं। प्राकृतिक रूप से जमीन के नीचे बहने वाली पानी की धारा से बनती हैं। ज्वालामुखी की वजह से भी गुफाओं का निर्माण होता है। दुनिया में अनेक छोटी-बड़ी गुफाएं हैं, जो किसी अजूबे से कम नहीं हैं।
अफगानिस्तान के बामियान से भीमबैठका तक और अमरनाथ से महाबलीपुरम तक भारत में हजारों गुफाएं हैं। हिमालय में तो अनगिनत प्राकृतिक गुफाएं हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वहां साधु-संत ध्यान और तपस्या करते हैं। आओ जानते हैं भारत की 15 रहस्यमयी गुफाओं के बारे में, जो अब रखरखाव के अभाव में अपने अस्तित्व संकट से जूझ रही हैं। भारत सरकार को चाहिए कि वह इस पर ध्यान दें। पातालकोट। दुनिया तीन लोक जानती है। पहला इंद्रलोक यानी अनंत तक फैला आसमान। दूसरा मृत्युलोक यानि अनंत तक फैली हुई धरती लेकिन ज़मीन के अंदर दुनिया का पाताललोक मध्यप्रदेश के पातालकोट में है। भोपाल से तकरीबन 300 किलोमीटर के फ़ासले पर ।
पातालकोट। दुनिया तीन लोक जानती है। पहला इंद्रलोक यानी अनंत तक फैला आसमान। दूसरा मृत्युलोक यानि अनंत तक फैली हुई धरती लेकिन ज़मीन के अंदर दुनिया का पाताललोक मध्यप्रदेश के पातालकोट में है। भोपाल से तकरीबन 300 किलोमीटर के फ़ासले पर।
पाताल के बाहर मिला सताराम इनवाती। वनविभाग के रेस्टहाउस का कर्मचारी। उसके गले से फूट रहे लोकगीत बता रहे थे कि ये पातालवासियों का ही कोई गीत होगा। सताराम ने कहा कि धरती की खुदगर्ज दुनिया पातालवासियों को रास नहीं आती। उन्हें हमारी जरूरत नहीं है। इनको सब वहीं पाताल में मिल जाता है। ये पाताल वाले नीचे ही रहते हैं और वहीं उनका संबंध बनता रहता है।
पातालकोट जाने के लिए पांच रास्ते हैं। आप किसी भी रास्ते में जाइए आपको गहरी घाटी में पांच किलोमीटर का सफ़र पैदल तय करना होगा। तब जाकर बड़ी मशक्कत के बाद आप जिस जगह पर पहुंचेंगे तो मान जायेंगे कि धरती पर ये भी किसी स्वर्ग से कम नहीं है।
लोगों का कहना है कि पाताल मौत की घाटी की तरह है जहां जो एक बार जाता है वापस नहीं आता। पातालकोट में नाग देवता के बाद अगर कोई भगवान माना जाता है तो वो हैं भूमका। ये भूमका ही हैं जो पातालकोट के बाशिंदों की सेहत का ख्याल रखते हैं। साथ ही वे कुछ ऐसे रहस्य भी जानते हैं जिन्हें पातालकोट के आम लोग नहीं जानते। भूमका पातालकोट की हर जड़ी बूटी की खासियत समझते हैं। यूं तो पातालकोट में अमूमन कोई बीमार नहीं होता लेकिन अगर किसी को कोई परेशानी हो जाती है तो वो सीधे भूमका के पास पहुंचता है। कलीराम भूमका की मानें, तो पातालकोट की जड़ी-बूटियों में हर मर्ज़ का इलाज मौजूद है। यहां मिलने वाली कई जड़ी बूटियां दुर्लभ हैं।
पूरे पातालकोट में कलीराम जैसे दो दर्जन भूमका हैं। ये लोग सदियों से जड़ी बूटियों से इलाज कर रहे हैं। मीज़ल्स, हाइपरटेंशन, डायबिटीज़ यहां तक कि सांप के काटने की दवा भी भूमका के पास होती है। लेकिन भूमकाओं का पारंपरिक हुनर सीखने की ललक नई पीढ़ी में उतनी नहीं है जिसकी वजह से इसके खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है। खतरा जड़ी-बूटियों पर भी मंडरा रहा है जिनकी तलाश में दूर-दूर से लोग यहां आते हैं।
प्रशासन को भी जड़ी बूटियों पर मंडरा रहे खतरे का अहसास है, इसलिए अब वो इन जड़ी-बूटियों को सहेजने की योजना बना रहा है। प्रकृति पातालकोट पर मेहरबान हैं और पातालकोट के लोग प्रकृति पर। पातालकोट के निवासी धरती को मां मानते हैं, और उस पर हल चलाने से परहेज करते हैं। जो भी खेती होती है, खुर्पी के सहारे होती है। पातालकोट में फसल पकने और शादी-ब्याह के वक्त करमा नाच होता है। गोंड और भारिया आदिवासी सैकड़ों साल से पातालकोट में रह रहे हैं। यही उनकी जिंदगी है बाकी दुनिया की तरक्की इन्हें जरा भी नहीं लुभाती, इनके लिए तो पातालकोट का सुख ही सबकुछ है। ये सुख उनका अपना है जो बाकी दुनिया के लिए शायद सपना है।
पाताल के बाहर मिला सताराम इनवाती। वनविभाग के रेस्टहाउस का कर्मचारी। उसके गले से फूट रहे लोकगीत बता रहे थे कि ये पातालवासियों का ही कोई गीत होगा। सताराम ने कहा कि धरती की खुदगर्ज दुनिया पातालवासियों को रास नहीं आती। उन्हें हमारी जरूरत नहीं है। इनको सब वहीं पाताल में मिल जाता है। ये पाताल वाले नीचे ही रहते हैं और वहीं उनका संबंध बनता रहता है।
              पातालकोट जाने के लिए पांच रास्ते हैं। आप किसी भी रास्ते में जाइए आपको गहरी घाटी में पांच किलोमीटर का सफ़र पैदल तय करना होगा। तब जाकर बड़ी मशक्कत के बाद आप जिस जगह पर पहुंचेंगे तो मान जायेंगे कि धरती पर ये भी किसी स्वर्ग से कम नहीं है।
लोगों का कहना है कि पाताल मौत की घाटी की तरह है जहां जो एक बार जाता है वापस नहीं आता। पातालकोट में नाग देवता के बाद अगर कोई भगवान माना जाता है तो वो हैं भूमका। ये भूमका ही हैं जो पातालकोट के बाशिंदों की सेहत का ख्याल रखते हैं। साथ ही वे कुछ ऐसे रहस्य भी जानते हैं जिन्हें पातालकोट के आम लोग नहीं जानते। भूमका पातालकोट की हर जड़ी बूटी की खासियत समझते हैं। यूं तो पातालकोट में अमूमन कोई बीमार नहीं होता लेकिन अगर किसी को कोई परेशानी हो जाती है तो वो सीधे भूमका के पास पहुंचता है । कलीराम भूमका की मानें, तो पातालकोट की जड़ी-बूटियों में हर मर्ज़ का इलाज मौजूद है। यहां मिलने वाली कई जड़ी बूटियां दुर्लभ हैं। पूरे पातालकोट में कलीराम जैसे दो दर्जन भूमका हैं। ये लोग सदियों से जड़ी बूटियों से इलाज कर रहे हैं। मीज़ल्स, हाइपरटेंशन, डायबिटीज़ यहां तक कि सांप के काटने की दवा भी भूमका के पास होती है। लेकिन भूमकाओं का पारंपरिक हुनर सीखने की ललक नई पीढ़ी में उतनी नहीं है जिसकी वजह से इसके खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है। खतरा जड़ी-बूटियों पर भी मंडरा रहा है जिनकी तलाश में दूर-दूर से लोग यहां आते हैं।
प्रशासन को भी जड़ी बूटियों पर मंडरा रहे खतरे का अहसास है, इसलिए अब वो इन जड़ी-बूटियों को सहेजने की योजना बना रहा है। प्रकृति पातालकोट पर मेहरबान हैं और पातालकोट के लोग प्रकृति पर। पातालकोट के निवासी धरती को मां मानते हैं, और उस पर हल चलाने से परहेज करते हैं। जो भी खेती होती है, खुर्पी के सहारे होती है। पातालकोट में फसल पकने और शादी-ब्याह के वक्त करमा नाच होता है। गोंड और भारिया आदिवासी सैकड़ों साल से पातालकोट में रह रहे हैं। यही उनकी जिंदगी है बाकी दुनिया की तरक्की इन्हें जरा भी नहीं लुभाती, इनके लिए तो पातालकोट का सुख ही सबकुछ है। ये सुख उनका अपना है जो बाकी दुनिया के लिए शायद सपना है।


नमस्कार दोस्तों ! 


'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।

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5.24.2017

" तला 'क' या त 'लॉक' है तलाक "

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     24 May     आलेख     No comments   

मुस्लिम बहनें तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँची है तथा उन्ही में से कई यह कह रही हैं कि उन्हें यकायक फ़ोन पर तलाक दिया गया । क्या ऐसे शरीयत क़ानून के समय फ़ोन, फेसबुक,what's app, e-मेल, skips, IMO, ट्विटर इत्यादि थे, तो फिर अपने प्यार को, अपनी प्यारी पत्नी को 'तलाक-तलाक-तलाक' कह देने मात्र से सेकंड के सौंवे हिस्से भर में अपने दिल और कलेजे के टुकड़े के प्रति बेरुखी अपना बैठते हैं । रिश्ते में नोक-झोंक होते रहती है, फिर हम पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर तलाक क्यों लेते हैं ? आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़िए , संपादक की लेखनी से निकली एक झलक --


 देश बड़ा है या धर्म ! जब देश ही नहीं रहे, तो क्या हम गुलाम मानसिकता लिए सही अर्थों में भोजन को निरपेक्ष मान धार्मिक अभिव्यक्ति दे सकते हैं ? कोई देश अपने जनों के लिए भोजन-वस्त्र-आवास की पूर्ति करते हैं । अब दूसरा प्रश्न है, धर्म बड़ा है या मानवता ! क्योंकि अमानवीय कार्य धर्म के हिस्से कतई और कभी नहीं आ सकते ।
सिर्फ सरस्वती माता के नाम मन्त्र-जाप करने से कोई विद्यार्थी परीक्षा पास नहीं कर सकता, उसी भाँति तलाक-तलाक-तलाक कहने भर के लिए अलग कोई कैसे हो सकता है ? मुस्लिम बहनों पर ये अत्याचार आखिर कौन कर रहे हैं...... ये शरीयत क़ानून 'क़ानून' बनानेवाली संस्था 'संसद' से बड़ा है क्या ??

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी गैर-संवेधानिक संस्था की ओर से दलील यह दी जा रही है कि 'शरीयत संबंधी कानून पवित्र कुरान का हिस्सा है और उनमे कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता है' , लेकिन उन्हें तो यह ख्याल रखना चाहिए जो मुस्लिम महिलायें तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँची है तथा उन्ही में से कई यह कह रही हैं कि उन्हें यकायक फ़ोन पर तलाक देकर बेसहारा जीने को छोड़ दी गयी, क्या कोई धार्मिक ग्रन्थ अमानवीय कार्य का हिस्सा हो सकता है ! क्या ऐसे धार्मिक ग्रन्थ के अवतरण के समय फ़ोन, फेसबुक,what's app, e-मेल, skips, IMO, ट्विटर इत्यादि थे, फिर अपने प्यार को, अपनी प्यारी पत्नी को 'तलाक-तलाक-तलाक' कह देने मात्र से सेकंड के सौंवे हिस्से भर में अपने दिल और कलेजे के टुकड़े के प्रति बेरुखी अपना बैठते हैं । यह फ़क़त कट्टरता है, धार्मिक संस्कार नहीं,सोशल नेटवर्किंग साईट जो मात्र एकदशक पुराना है , किसी धार्मिक ग्रन्थ को कोई संस्करण के लिए बाध्य नहीं करता !
पवित्र कुरान धार्मिक ग्रन्थ है, हर धार्मिक ग्रन्थ मानवीय पीड़ा लिए होता है- चाहे वो रामायण हो या महाभारत !
देश में मुस्लिम महिलाओं की आवाज उठाने वाली संस्था "भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन" (BMMA) है, 2007 में इस संस्था का गठन 'जकिया सोमान' और नूरजहाँ सफ़िया नियाज ने किया था, गत पखवाड़ा 'BMMA' ने 10 राज्यों में 4,710 मुस्लिम महिलाओं के बीच सर्वे के आधार पर एक रिपोर्ट 'नो मोर तलाक तलाक तलाक' प्रकाशित की और रिपोर्ट में यह बताया गया कि 92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या एकतरफ़ा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की और 91.7 प्रतिशत महिलायें बहुविवाह के खिलाफ हैं ।

हाल ही में (कुछ माह पहले ) भारतीय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अनिल दवे और आदर्श कुमार गोयल की पीठ ने 'मुस्लिम लीगल सर्विसेज अथॉरिटी' से सवाल किया था कि  क्या मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव को भारतीय  संविधान में दिए गए मूलभुत अधिकारों के अंतर्गत आने वाले अनुच्छेद -14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद -15 (धर्म,जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक से कोई भेदभाव न किया जाय) और अनुच्छेद -21 (जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार) का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए ?
देश की 'मुस्लिम बहनें इस खतरनाक  '3T'  यानि  'तलाक-तलाक-तलाक'  के लिए कानून की शरण में आयें , लेकिन 'मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' ने तीन तलाक और 4 शादियों को सही ठहराया तथा बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि कोर्ट 'पर्सनल लॉ' में दखल नहीं दे सकता, क्योंकि ये 'पवित्र कुरान' पर आधारित है और किसी सामाजिक - सुधार के नाम पर 'पर्सनल लॉ' को नहीं बदला जा सकता । ऐसा यदि होने लगा, तो मैट्रिक, इण्टर, बी.ए., एम.ए. की परीक्षा भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ही लेंगे क्या ?
बोर्ड ने इस पद्धति की तरफदारी करते हुए यहाँ तक कह दिया की तीन तलाक नहीं होने पर , तलाक की प्रक्रिया में काफी लंबी समय लग जाता है साथ ही काफी खर्चीला मामला हो जाता है ,ऐसे में पत्नी से छुटकारा चाहने वाला व्यक्ति अति की स्थिति में उसकी हत्या करने जैसा गैरकानूनी तरीका अपना सकता है , ऐसे गैरकानूनी तरीके से बेहतर है तलाक ।
यानि खुद 'कानून' के रखवाले ही 'डरा' रहे है कि 'तलाक' ले लो , तलाक खरीद लो, बोर्ड टोकड़ी भर तलाक बेचने आया है, नहीं तो 'मौत' इन्तेजार कर रही होंगे !!!!!
बोर्ड का यहाँ तक कहना है कि 'महिलाओं' के मुकाबले 'पुरुषों' में सही निर्णय लेने की क्षमता अधिक है , यदि ऐसा होता 'मुस्लिम बहनों' ने सुप्रीम कोर्ट में '3T' के लिए बिगुल न बजायी होतीं, क्योंकि 'सभ्यता' के शुरुआत से काफी 'धर्म और उनके नित्यम् नियम' बने तथा वो नियम मानवीय पीड़ा के साथ बदलते भी गए, क्योंकि दुनिया के काफी 'इस्लामिक देशों' जैसे -मिस्र, तुर्की, मलेशिया में तीन तलाक की प्रथा या तो ख़त्म हो चुकी हैं, या ख़त्म होने की कगार पर हैं । क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे 'पवित्र कुरान' को नहीं मानते हैं !! महिलाओं को कम बुद्धि मानने वाले पर्सनल बोर्ड रियो ओलिंपिक में 2 भारतीय बालाओं द्वारा ही पदक लाने को क्या कहेंगे !
तो क्यों हम 'ऐसे' बातों पर बात करें , जो फरिश्तों होने के फ़िराक में 'फ़' हटाकर सिर्फ 'रिश्तों' को तोड़ने का काम करते हैं । तलाक लेना तब जरुरी है जब 'मन' न मिले, न कि 'धर्मग्रंथों' को हथियार के रूप में 'इस्तेमाल' कर !! किसी धर्मग्रंथों का बेज़ा इस्तेमाल न करे, न ही किसी को धर्म और धर्मग्रंथों के नाम पर डरायें-धमकायें ।
बाकी के लिए समझदार सभी हैं !!!!!!!!!

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4.18.2017

"बिहार में इन दिनों स्वतन्त्रता-सेनानियों की है बहार"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     18 April     आलेख     No comments   

             "बिहार में इन दिनों स्वतन्त्रता-सेनानियों की है बहार"

           

मोहनदास करमचंद गाँधी 100 साल पहले बिहार आकर ही पूरे देश के लिए  महात्मा गाँधी और सम्पूर्ण संसार के लिए विश्ववंद्य बन पाए थे । गाँधी जी की यह यात्रा उनके द्वारा भारत को ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति दिलाने को लेकर प्रथम यात्रा थी । बिहार से शुरू हुई यह यात्रा बीते दिवस पटना में संपूर्ण देश से आये  818 स्वतन्त्रता सेनानियों के मिलन-मेला से ऐसा लगा, बिहार ही पुनः देश को नई दिशा और पहचान दे सकता है । माननीय राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने जब इन सबों को भागलपुरी शॉल और गाँधी जी की प्रतीकार्थ मूर्त्ति प्रदान किया, तो माहौल भावुक हो गया । इनमें 554 सेनानी बिहार से और 264 सेनानी अन्य राज्यों से हैं । सबसे आकर्षण का केंद्र 110 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी रहे, जो उम्र को धता बताते हुए युवाओं जैसे ज़ज़्बे को लिए मात्र 10 साल के किशोर बन स्वयं को बेमिसाल उदाहरण बना डाले। उम्र की अस्वस्थता कारणों से 2,154 महान सेनानियों को बिहार सरकार के पदाधिकारी उनके घर जाकर ही सम्मानित किए । इस साल माननीय राष्ट्रपति का यह बिहार के लिए लगातार 5 वीं दौरा है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, 1917 की याद को ताजा करने के उद्देश्य से लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ़्फ़रपुर के एक व्याख्याता ने गाँधी जी के रूप धरकर पटना से भाया मुजफ्फरपुर होते हुए मोतीहारी पहुँचे, जहाँ गांधी जी के वर्तमान रूप को भी काफी सम्मान मिल रहा है । समाजवादी से गाँधीवादी बन संसार को सन्देश देने में सफल रहे बिहार के माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार और उनकी टीम तथा बिहार सरकार के सभी पदाधिकारी, कर्मीगण और सभी स्वयंसेवियों को अपने बिहार को एकबार फिर विश्व पटल पर लाने के लिए सादर धन्यवाद एवं सभी स्वतन्त्रता सेनानियों को उन्हें स्वस्थ रहने के लिए अनंत शुभकामनाएं ।

T.manu --
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4.13.2017

"जनरल ओ. डायर तो याद है लेकिन 13 अप्रैल 1919 नहीं !"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     13 April     आलेख     No comments   

                "जनरल ओ. डायर तो याद है लेकिन 13 अप्रैल 1919 नहीं !"

हम ऐसे देश में है जहाँ आजकल देशद्रोहियों की भरमार होते जा रहे हैं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे स्लोगन पढ़े जा रहे है । धर्म के नाम पर धार्मिक ग्रंथों के साथ अमर्यादित व्यवहार किया जा रहा है । कुछ लोग ये तो जानते है आतंकवादी याकूब मेनन कौन है और उन्हें फाँसी देने से क्यों रोका जाय ? लेकिन वे यह नहीं जानते कि बेगुनाह कुलभूषण जाधव को क्यों पकिस्तान फांसी दे रहा ? आज ऐसे भी निकृष्ट सोच वाले लोग भी है जो संविधान से बड़ा अमर्यादित धार्मिक कानून को ऊपर रखते  है ? लेकिन वे 13 अप्रैल 1919 की घटनायें भूल जाते है !!

13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के पास जलियांवाला बाग में बैसाखी के दिन रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी । इस सभा में बच्चे,युवाओं की फ़ौज, बूढ़े ,महिलाएं और पुरुष मौजूद थे लेकिन इस बाग़ से निकलने का एक ही रास्ता था । इस सभा को भंग करने के लिए अंग्रेज अफसर जनरल रेजीनल्ड डायर ने बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध गोलियां चलवा दीं चूँकि रास्ता एक ही था बाहर निकलने के लिए और वह भी संकरा । इसलिए लोग भागने लगे और सभा में मार्मिक भगदड़ होने लगी। फायरिंग पर फायरिंग होते रहा , बाग के कुएं में लोग जान-बचाने के लिए कूदने लगे लेकिन 2000 से ऊपर लोग जख्मी हुए , हजार से ऊपर लोग मारे गए लेकिन डायर फायरिंग करवाता रहा ।



लेकिन इस घटना के 98 साल बाद भी लोग इस मार्मिक घटना को भूल गयी है । कुछ लोगो को जनरल ओ. डायर जैसे अंग्रेज की तरह बनना पसंद है वे 'भारत तेरे टुकड़े-होंगे' जैसे स्लोगन से देश को बदनाम कर रहे हैं ! कानून को इन लोगो के खिलाफ सख्त करवाई करनी चाहिए । क्योंकि देश से बड़ा कोई नहीं । शहीदों को सादर श्रद्धांजलि ।

T.manu --
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3.02.2017

"क्या त्रेता युग में हमारे भगवन या दैत्य या वानर 'लिंग परीक्षण' करते थे ?"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     02 March     आलेख     No comments   

      "क्या त्रेता युग में हमारे भगवन या दैत्य या वानर 'लिंग परीक्षण' करते थे ?"

                                  **"बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ"**



'वाल्मीकि रामायण' के अनुसार --

राजा दशरथ, श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, रावण, बालि इत्यादि लगभगराज  के पुत्र थे, पर पुत्री न ही थी, लगभग ऋषियों की पुत्रियाँ भी नहीं थी, हालाँकि  किसी-किसी के 100-100 पुत्र थे (अपवादरूपेन महाभारत काल में 5 पांडव की कोई बहन नहीं थी, किन्तु दुःशाला 100 कौरवाई में एकमात्र बहन थी) , तो क्या इसका मतलब यह है कि उस युग में 'लिंग परीक्षण' होता था, गर्भ में ही मादा लिंगार्थ भ्रूण की जांच कर लड़की जनने से रोककर गर्भपात करवा दिए जाते थे , यानी अब से भी कड़ा वो बदनाम युग था ....।

हो सकता है, उस काल में पुत्री न होने का कोई गर्भनिरोधक उपाय प्रचलित रहा हो !  लेकिन राजा दशरथ की रानियाँ जब माँ नहीं बन नहीं रही थीं, तो महर्षि वाल्मीकि के दिए खीर खाने के बाद तीनों रानियाँ 'गर्भवती' हो गयी , यह कोई दवा थी या दशरथ साहब 'वीर्यपात' में अक्षम थे , क्या ? ........... या वाल्मीकि का कोई चाल तो नहीं था !
इसलिए 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' अभियान पूर्वजो के भूल-सुधार के लिए है !

T.Manu--
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12.07.2016

वो क्यों थी अम्मा ?

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     07 December     आलेख     No comments   

"वो क्यों थी अम्मा ?"


उनकी अंतिम कार्यकाल की प्रथम दो वर्ष ही जया को 'अम्मा' बनायी, अन्यथा वो लोलिता (ललिता) ही रही थी ! विवादों से उनकी चोली-दामन का सम्बन्ध रही । हज़ार जोड़ी जूतियाँ, दस हजार साड़ियों के संग्रह से लेकर सत्ता का दुरूपयोग ऐसी-वैसी नहीं, मात्र 13 महीने में केंद्र की वाजपेयी सरकार को औंधे मुँह गिरा दी...... ऐसे डिक्टेटिव-सफ़र की खीझ जब 'ग्लैमरस' को डोला गयी और जेल-यात्रा का कारण बनी, तब वह 'कुँवारी अम्मा' बन बैठी और फिर तमिल प्रजा उनसे आरूढ़ प्रेम कर बैठे..... अपने समर्थकों के बीच वे देवी हो गयी । उनकी देवी की भाँति पूजा होने लगी । उन्हें सत्ता में देखने के लिए उनके कई समर्थकों ने जीभ काटकर मंदिरों में चढ़ाकर खुद उनकी लिए गूँगे हो गए । इतना ही नहीं, वर्ष 2014 में जब वे जेल गयी, तो उनके कई समर्थकों ने आत्महत्या कर लिए थे, अब जब वह साथ छोड़ गयी तो काफी लोग 'दिल के दर्द' को आत्मसात कर 'हार्ट-अटैक' के शिकार हो गए ।

अन्नादुरई और एम.जी.आर. के जाने के बाद ऐसे ही 'शोकाकुल' थी-- तमिल जनता । आज जब प्यारी अम्मा भी नहीं रही, तब उनके बारे में और भी कुछ जानने को जिज्ञासा उभरी । उनकी संघर्ष हमें यह बताती है कि कैसे बचपन में पिता के देहांत के बाद मैट्रिक की सेकंड टॉपर बनी, वे तो वकील बनना चाहती थी, परंतु होनी को तो और बदी थी, उनकी मासूम सुन्दर चेहरा और बोलाक- अदा से वे 'रील लाइफ' में आई, कई भाषा के सैकड़ों फिल्मों में नायिका रही । एम.जी. रामचंद्रन न केवल उनकी फ़िल्मी नायक रहे, अपितु एम. जी.आर. के राजनीति में आते ही जया का सफर भी इस ओर मुड़ गयी । एम.जी.आर. के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बनने से लेकर 80 के दशक में जया 'राज्यसभा' सांसद बन माननीय हो गयी । फिर एम.जी.आर. की प्रेमिका का ठप्पा जब जया को लगी, तब एम.जी.आर. की पत्नी जानकी रामचंद्रन को वह  भायी नहीं !



जिस हिम्मत से जया ने पग बढ़ाये, वह सचमुच काबिल-ए-तारीफ है । जया से 'अम्मा' तक का सफर एकदम रील-लाइफ की कहानी-सी है । लेकिन कब पर्दे से हटकर वह 'रियल लाइफ' में आ गयी, उन्हें भी मालूम नहीं हुई होगी । उनकी 'रील-लाइफ' की यात्रा भी घमासान रही कि उनकी पहली फ़िल्म को 'एडल्ट सर्टिफिकेट' मिला था और इस फ़िल्म की नायिका होने के बावजूद 'टीनएजर' होने के चलते वे खुद फ़िल्म देख नहीं पायी थी ।

वह वाकई मिसाल है, क्योंकि तमिलनाडु की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री से लेकर दक्षिण और उत्तर भारतीय भाषाओं की अनोखी जानकार के साथ वे भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम, मणिपुरी और कत्थक जैसी नृत्यों में उन्हें महारत हासिल थी । वे ऐसी CM थी, जिन्होंने मात्र वेतन के तौर पर एक रुपये लिए , परंतु दत्तक पुत्र की शादी में कई करोड़ फूँक दी ।

1991 में जब वे पहली बार CM बनीं और उसके अगले साल 1992 में ही  तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री ने घोषणा कि राज्य के जिलों में आदर्श विद्यालय खोले जायेंगे, जिनके नाम 'जयललिता विद्यालय' होंगे । इसी तरह कृषि मंत्री ने 'जया-जया-92' धान की नई किस्म का नाम दिया, तो आवास मंत्री ने 'जया नगर' बसा दिया । उनकी 'क्रेडल स्कीम', जो कि सभी का ध्यान अपनी ओर जरूर आकृष्ट करते हैं । स्कीम का उद्देश्य यह था कि "यदि बेटी आपको नहीं चाहिए, तो हमें दे दीजिये, हम पालेंगे ।" यानि अभी का 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' उन्हीं की देन है, तो ट्रांसजेंडर लोगों के लिए 'पेंशन योजना', जहाँ 'समानता' का भाव पैदा करते हैं, वही 'अम्मा' नाम से स्टार्ट 'स्कीम' उन्हें 'देवी' बना देती है !

1984 में उनके गुरु एम. जी.आर. अपोलो अस्पताल में भर्ती हुए थे, तब परिवार के सदस्यों ने जयललिता को उनसे मिलने नहीं दिए । ठीक वैसा ही अब 32 साल बाद जयललिता के भाई की बेटी जब उनसे मिलने अपोलो अस्पताल पहुंची,तो उन्हें भी मिलने नहीं दिया गया । एम.जी.आर. ने दुनिया रुखसत के वक़्त उनके कोई  संतान नहीं थे, पर कुँवारी रही 'अम्मा' लाखों वारिस को छोड़ गयी, 'पनीरसेल्वम' भी उनमें से एक है, किन्तु देखना यह है कि उनके CM बनने से तमिल-राजनीति में अन्ना(दुरई) से लेकर अम्मा(जया) तक के सफ़र को वे किसप्रकार सफलीभूत कर पाते हैं, हालाँकि उन्हें मुख्यमंत्री का अनुभव तो है ही, परंतु 'जननायक' का अनुभव उन्हें नहीं है । देखना है,पनीरसेल्वम राजनीति की जड़ कितना धँसा पाते हैं और सत्ता के बेल को कितनी दूर ले जा पाते हैं, यह आने वाला वक़्त ही बताएगा !

अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके लाखों प्रशंसक उन्हें राजनितिक-यादों के साथ-साथ 'अम्मा-कैंटीन' , 'अम्मा-मिनरल वाटर' , 'अम्मा-मोबाइल', 'क्रेडल बेबी स्कीम' , 'अम्मा-नमक' , 'अम्मा-सीमेंट' , 'अम्मा-फार्मेसी' इत्यादि में रोजाना  उन्हें ढूढेंगे और इसी में याद रखने की हरसंभव प्रयास करते रहेंगे ।

सिर्फ तमिल अम्मा नहीं, इस भारतीय अम्मा को मेरा सादर नमन् ।
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10.29.2016

'हुका-हुकी से मच्छर भगइयो, दीवाली से दीवाला मत हो जययो'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     29 October     आलेख     No comments   

"हुका-हुकी से मच्छर भगइयो, दीवाली से दीवाला मत हो जययो"

गत साल की बात है, मेरे अज़ीज़ मित्र ने मुझे एक रोचक शोध-पिक्चर भेजा। पिक्चर में गूगल मैप की सहायता से भारत में अयोध्या और श्रीलंका के बीच के सबसे शॉर्टकट रास्ता को उन्होंने खुद रेखांकित किया है तथा किलोमीटर तक का उल्लेख किया है, जिनमें उन्होंने बताया है कि श्रीलंका से अयोध्या की दूरी 2586 KM है, जो भारतीय राष्ट्रीय उच्चपथ की विविधता लिए हैं (पर उस समय वह बला नहीं होगा, जिसे आज ट्रैफिक-जाम कहते हैं, अन्यथा श्रीराम और उनके साथीगण काफी परेशान हो जाते ! खैर, तब भी परेशान थे-- जंगल-जाम के कारण ! ) और हाँ, यह कहना तो मैं भूल ही गया कि इस दूरी को तय करने में 21 दिन 10 घंटे लगेंगे, अगर कोई सामान्य मानवीय पैदलचाल के हिसाब से चले। कहा जाता है, दीपावली के दिन श्रीराम श्रीलंका से सीधे रावण को विजित कर वापस अयोध्या पुष्पक विमान से आये थे, परंतु अगर हम श्रीराम द्वारा रावण पर विजयादशमी के दिन विजय मान लिया जाए, तो विजयादशमी से दीपावली तक 20 दिन होते हैं, फिर तो ऐसा लगता है-- श्रीलंका से राम अयोध्या के लिए वापस पैदल ही आये थे। यह संभव है, वे शायद 1 दिन 10 घंटे पहले ही आ गए होंगे !.... ऐसा उन्नीस-बीस हो सकता है, इसलिए उनका शोध काफी तर्कपूर्ण है यानि रामायण-रचयिता बाल्मीकि जी के पास उस समय भी दूरी ज्ञात करने के न कोई-कोई यन्त्र जरूर होंगे !

अब कोई अन्य प्रसंग-
किसी गहनतम तजुर्बेकार ने काफी महीन झरोखों से यह देख कर लिखा है कि 'दीपावली' या 'दीवाली' से विच्छेद कर 'अली' और 'मुहर्रम' में उसी भाँति विच्छेद कर 'राम' उदधृत की जा सकती है, जिससे हिन्दू, मुस्लिम के निकट बोध लिए यह त्योहार है। सिख, जैन और बौद्ध भी इस पर्व को किसी न किसी भाँति मनाते हैं--
जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर 'महावीर स्वामी' को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। उनके लिए तो प्रकाश पर्व ही है। बौद्ध 'अप्पो दीपो भवः' के नाम से ख्यात् है।
दीपों का पर्व दीपावली; हर कहानी की तरह इनकी भी कहानी पुरानी है। दादी की कहानी, नानी की कहानी, फिर दादा-नाना के मुँह वाणी की कहानियों को बचपन में किस्सा के रूप में रूचि ले-लेकर सुना है। इन कहानियों से मज़ा आता, खासकर इन कहानियों में डूबने-उतरने से ज्यादा।
अन्य प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार, 12 वर्षों के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी के प्रतीक रूप में दीपावली मनाये जाते हैं। कई हिंदू दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी व उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का 5 दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई क्षीरशायी लक्ष्मी के जन्मदिवस से शुरू होती है, दीपावली की रात वह होती है, जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को न केवल वरन् की, अपितु उनसे शादी भी कर ली.... यानि यहाँ प्यार परवान चढ़ गए और अंतरजातीय विवाह को लेकर कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई, लेकिन आज के मानव अपनी लक्ष्मी की तलाश में आँखें-फ़ाड़े प्रतीक्षारत रहते हैं ! गलत मत समझिये मैं लक्ष्मी यानी रुपयों की बात कर रहा हूँ ।....नहीं तो अपने कानून में '14 सेकंड' किसी 'लक्ष्मी' को घूर नहीं सकते, चाहे ये लक्ष्मी आपकी बहन, माँ या पत्नी ही क्यों न हो, पता नहीं 'घूरना' किस अर्थ में है ?

लक्ष्मी के साथ-साथ सनातनी भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश, संगीत-साहित्य की प्रतीक सरस्वती और धन-प्रबंधक कुबेर को 'प्रसाद' अर्पित करते हैं। कुछ व्यक्ति दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते हैं।
मान्यता है, इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग इस दिन लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं, वे आगामी साल के दौरान मानसिक और शारीरिक दुःखों से दूर रहतेे हैं, लेकिन आज के युग में यदि लक्ष्मी जी उस लोक से यहाँ आईं अगर, तो पहले ट्रैफिक जाम से परेशान, फिर पटाखों के शोर में इतनी प्रदूषित हो जायेंगी 'लक्ष्मी' जी कि उन्हें स्वयं की दवाई लेने के बाद ही इंसानो के दुःख-दर्द दूर कर पायेंगी !
मेरे गांव में दीपावली का उत्सव 'माँ काली की पूजा' करने के बाद ही मनाई जाती है, यानि 'काली माता' की मूर्ति उनकी प्रदत्त स्थान में विस्थापित करने के बाद....पूजा के बाद घर में बड़े लोग बच्चों को 'चुमाने' का रस्म निभाते हैं, परंतु "शादी-शुदा" महिलाओं और पुरुषों को नहीं चुमाये जाते हैं। ये बातें मेरे लिए आजतक असमझ भरा रहा है, उसके बाद हम सभी परिवार वाले अपने-अपने परिवार में 'संठी' (पटसन का तना) से बना सामग्री व 'हुका-हुकी' खेलते हैं और उसमें एक मंत्र जाप होता है-- 'लक्ष्मी घर, दरिदर बाहर; मच्छरों के गांड़ में लगा तित्ति'..... सेंटेंस कुछ गन्दा जैसा है, पर क्या करें ? उसके बाद 'हुका-हुकी' से 5 'संटी' निकालकर 5 फलों का नाम लेकर चुनकर रख लिया जाता है। फिर पटाखा फोड़े जाते हैं, लेकिन रामायण में कही यह उल्लेख नहीं है कि राम के आने के बाद अयोध्या के लोगों ने पटाखा फोड़े थे, क्योंकि पटाखा तो 'नवयुगी' देन है !
पर कुछ बात ऐसी है, सुन्दर लड़की को देखा, कह दीहीस-- क्या पटाखा माल है, अरे ! यह फूलझड़ी है। इंसान मटकी तो फोड़ेंगे, पर मिट्टी के दीये न जला कुम्हार के घर अँधेरा की dreamlight रहने देंगे सतत् ! हम बस 'चीनी सामान का विरोध' सोशल मीडिया पर करेंगे, परंतु अंदर से वैसे ही रहेंगे......! अपनी संस्कृति की अक्षुण्णता राजनीतिक बयानबाजी से दूर नहीं हो सकते, ज़नाब !
ऊर्जा बचाएँ, दीवाली मनाएँ, पर दीवाला मत हो जययो !

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