खामोशियाँ कभी-कभार फायदेमंद होती हैं, लेकिन गणित के 'लिमिट' की तरह । यदि यह भी "टेंडस टू ---इनफिनिट" हो जाये तो काफी बुरा होता है ! दुनिया इतनी उलझी हुई है कि सुलझाने वाले भी कभी-कभी उलझ कर रोने लग जाते हैं ! वैसे दुनिया में कोई भी भाषा हो, किन्तु 'हँसना और रोना' सभी भाषियों के समान होते हैं, लेकिन हँसने और रोने की परिभाषा इतनी जटिल है कि ..... ! ऐसे ही के विन्यस्त: मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट के प्रस्तुतांक में शब्द बुनती हुई कथाकार ने 'हँसते हुए मासूम' चेहरे पर रोने की ख़ुशी की कथा' बुनी हैं ! पाठकों को प्रस्तुत कहानी मार्मिक, किन्तु बेहद अच्छी लगेगी ! कथाकार सुश्री अभिधा शर्मा की प्रस्तुत कहानी 'फिल्म -- गुड बॉय , बेड बॉय' की कुछ झलक को तरोताज़ा करते हुए 'फिल्म--मंगल पांडेय' के कुछ दृश्य को सामने लाकर शायद आपके आँखों में आसूँ ला दे और आपके मन में हमेशा यह टाइप हो जाय कि 'शहीद की पत्नी कभी विधवा नहीं होती, वो भी शहीद की भांति हमेशा अमर रहती हैं' ! आइये, हम इस कहानी को एक मिशन की तरह पढ़ते हैं । ..... तो ये लीजिये,पढ़िये:---
कॉलेज का नया सेशन। सैकड़ों नए चेहरे नज़र आ रहे हैं, पर वो बड़े-बूढ़े कहते हैं न पुरानी शराब और पुराने इश्क का नशा ही कुछ अलग होता है । कुछ ऐसा ही हुआ, चलते-चलते ठिठक गयी कविता। आज भी उसके कानों में माइक से आ रही आवाज़ गूँज रही थी- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊं तेरे प्यार में ए कविता'। कविता ने अपने कान बंद कर लिए। वाश रूम में जाकर ठन्डे पानी के छींटे मारे और क्लास में आ गयी । नए चेहरों से पहचान कर रही थी। इतना आसान नहीं था, उसके लिए घर से कॉलेज तक का ये सफ़र । जाने कितने झगड़ों के बाद कॉलेज में दाखिला लिया था उसने, मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क्स में। अपनी अधूरी पढाई पूरा करने के लिए ।
5'4" कद, गोरा रंग, लम्बे बाल,खूबसूरत आंखें उसे देख लड़कों की भीड़ ने आपस में कुछ कहा, उसके बाद हंस पड़े। उनके शोर को अनसुनी करती हुई कविता क्लास में चली गयी।
मुस्कराते चेहरे के साथ आँखों में मायूसी लिए नयी पहचान बनाने की कोशिश कर रही थी। टीचर के आते ही हाजिरी में जब उसका नाम पुकारा गया 'कविता' तो उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। क्लास के बाद जब सब घर को चल दिए, तो लड़कों के समूह में कोई सुरीली आवाज़ में गुनगुना रहा था- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊँ तेरे प्यार में ए कविता'।कविता ने अपना सर झुकाया और चुपचाप तेज़ क़दमों से बस की ओर भागी और घर पहुँच गयी।
पिता ने सर सहलाकर जब कॉलेज के बारे में पूछा तो मुस्कराने की नाकाम कोशिश करते हुए उसने कहा-- जी, अच्छा रहा। अपने कमरे में जाकर अपनी पसंदीदा गाने को प्लेलिस्ट में सेट कर दिया 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ'। बार-बार यही एक गाना सुनते-सुनते रात कैसे बीती कविता को पता ही नहीं चल पायी ?
सुबह फिर एक बार कॉलेज जाने की जद्दोज़हद ! मन नहीं था जाने का पर पिता को मना नहीं कर पाई। कार में बैठ उनके साथ कॉलेज पहुँच गयी। उसके पिता जी कॉलेज के प्रिंसिपल थे , पर कविता ने ये बात सबसे छुपा कर रखी थी जिससे सब सामान्य रहे, उसके साथ।
समय बीतता गया, उसने पाया कि एक जोड़ी बेशरम आँखें, उसे ही घूरती रहती हैं । अपने आप को पढाई और वर्कशॉप में व्यस्त कर लिया था उसने । किसी की कही बातों का असर अपने पर नहीं आने देती, पर कहीं न कहीं रोज़ वही बेशरम आँखें उसके लिए एक ही गाना गुनगुनाती- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊँ....' ! अपने कान झट से बंद कर लेती कविता । जैसे अब कभी इस गाने को अपने दिल के करीब नहीं पहुँचने देना चाहती थी। वो बेशरम आँखें बहुत ढीठ थीं, उसे परेशान करने का कोई मौका नहीं छोडती थी। ये आँखें थीं उसके साथ पढ़ने वाले लड़के विक्रम की । विक्रम गाहे-बगाहे कविता का रास्ता काटते रहते ! पर वह कुछ नहीं कहती, चुपचाप वहाँ से निकल जाती ।
27 सितम्बर को 'वर्ल्ड टूरिज्म डे' के मौके पर सोशल वर्क और टूरिज्म डिपार्टमेंट की एक साथ वर्कशॉप लगने वाली थी। सोशल वर्क का विषय था- 'समाज में विधवाओं की स्थिति', टूरिज्म डिपार्टमेंट ने कश्मीर टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए विषय रखा था- 'एक बार तो आइये इन केसर की क्यारियों में'। सारे विद्यार्थी तैयारी में लगे हुए थे। कविता का रुकने का मन नहीं था पर पिता की ज़िद की वजह से रुकना पड़ा उसे।
कार्यक्रम शुरू हुआ, कोई समाज में विधवाओं की स्थिति का वर्णन करता तो कोई कलकत्ता से लेकर बनारस तक उनके साथ किये जा रहे व्यवहार की बात करता ! कोई विधवाओं को पुनर्स्थापित करने के लिए दोबारा पुनर्विवाह की सलाह देता । सब तन्मयता से सुन रहे थे। फिर किसी ने केसर की क्यारियों में घूमने की बात की। घाटी की सुन्दरता का वर्णन ऑडियो विसुअल क्लिप के माध्यम से हो रहा था। कविता ख़ामोशी से सब देख रही थी, उसके पिता की नज़रें बस उस पर थीं।
बहुत सारे लोगों के बोलने के बाद जब माइक से नाम लिया गया अब आ रही हैं 'कविता' अपने विचार रखने। हतप्रभ हो गयी, उसने तो अपना नाम दिया ही नहीं था, न तो उसकी कोई तैयारी थी। जब सब उसका नाम लेने पर तालियाँ पीट रहे थे, वह डर गयी।उसने चारों ओर देखा तो वही एक जोड़ी बेशरम आँखें मुस्करा रही थीं । कविता समझ गयी कि ये विक्रम का काम है।
घबराते क़दमों से उसने अपने कदम माइक की ओर बढ़ाये। माइक पर जाकर जैसे ही उसने कहा मैंने अपना नाम नहीं दिया था पता नहीं किसने शरारत की है मेरे साथ। सारे लड़के तालियाँ पीट रहे थे और विक्रम मुस्कराते हुए उसे देख रहा था। कविता ने हाथ दिखाया, सब के चुप होते ही बोली पर मैं बोलूंगी और एक नहीं, दोनों विषयों पर एक साथ बोलूंगी। उसके इतना कहते ही सब उसे आश्चर्य से देख रहे थे। उसने कहने शुरू की--
बहुत सलाह और बहुत अच्छे मशवरे दिए आप सबने विधवाओं के पुनर्वास और उनके पुनर्विवाह को लेकर। क्या आपने सोचा है जब अपने पति को खोने के बाद लोग उसकी विधवा के समक्ष दोबारा विवाह प्रस्ताव रखते होंगे, तब क्या बीतती होगी उसके मन में ? रंगीन कपड़े,खान-पान की स्वतंत्रता बस, इतना आसान नहीं होता, एक स्त्री के लिए ये कार्य ! बोलने और सुनने में अच्छा लगता है, पर कार्यान्वित होना उतना ही मुश्किल। एक विधवा को अपना अतीत भूलना होता है नयी ज़िन्दगी जीने के लिए । फिर भी क्या गारंटी है जो उसके साथ एक बार हुआ वह दोबारा नहीं होगा ? अगर दोबारा फिर वही हादसा हुआ तो सोचा आपने क्या बीतेगी उस पर ! अगर कुछ करना ही चाहते हैं तो विधवाओं को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करें, न ही उन्हें पुनर्विवाह करने पर जोर दें। उन्हें उनकी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
अब बारी आती है केसर की क्यारियों में घूमने की तो देखने और सुनने में ही अच्छी लगती हैं केसर की ये क्यारियाँ ! जब आप घूमने जाओगे वहाँ तो वहाँ के रहवासियों का पहला सवाल होता है -- आप इंडिया से आये हो। उस पल आपको अहसास होता है कि शायद आपने वहाँ आकर गलती कर दी। ज़ाफ़रान की महक, उसके रंग, उसका महत्त्व, घाटी की सुन्दरता तो आपने बखूबी बताई, परन्तु ये सब जिनकी वज़ह से सुरक्षित है उनका ज़िक्र भी नहीं किया आप सबने !
सब हैरानी से कविता को देख रहे थे और वो कश्मीर के बैनर को लगे देख कह रही थी। कितनी खूबसूरत तस्वीर है न ये कश्मीर की, पर मेरे लिए इस दुनिया में सबसे बदसूरत जगहों में से एक है। चारों ओर सन्नाटा पसर गया । थोड़ी देर रुक सहमी से आवाज़ में उसने कहा- '5 साल का लड़का अपूर्व,रोज़ रात को केसर वाला दूध पीने का आदि। उसके पापा को पता था कि उनके बेटे को केसर बहुत पसंद है। वे उसके लिए हमेशा चुनकर कश्मीर से शुद्ध केसर लाते और दोनों बाप-बेटे मज़े से स्वाद लेकर साथ में केसर वाला दूध पीते। जब उसके पापा छुट्टी से वापस जाते तो अपूर्व उदास हो जाता ! उसके पापा उसे समझाते आपको केसर पसंद है न तो मैं जा रहा हूँ उन्हीं केसर की क्यारियों को बचाने के लिए, जिससे आप रोज़ केसर वाला दूध पी सको। उसके पापा चले गए, एक दिन खबर आती है कि कैप्टेन सिद्धार्थ एक आतंकी मुठभेड़ में शहीद हो गए। छोटा बच्चा बार-बार माँ से कहता-- मुझे केसर वाला दूध नहीं चाहिए माँ ! पापा को बुला लो। अपूर्व के दादा जी ने गर्व से उससे कहा-- रोता क्यूँ है, तेरा बाप शहीद हुआ है ? शहीदों के घरवालों को रोने का अधिकार नहीं होता। अपूर्व की दादी अपनी कोख पर गर्व करते नहीं थकती। माँ हैं, न तो बेटे का शोक सह सकती है, परन्तु उस पत्नी का क्या जिसके लिए उसका पति अपनी शहादत के साथ एक मैडल, कुछ रुपये, और ढेर सारा गर्व छोड़ गया था और साथ ही छोड़ गया था उम्र भर का खालीपन। जब उस माँ का बेटा उससे पिता की तरह सेना में जाने की बात करता तो माँ को बहुत गर्व होता , परन्तु कुछ ही क्षणों में उदास हो जाती, ये सोचकर कि जो दर्द मैंने सहा, मैं नहीं चाहती वो मेरी बहू सहे !
26 जनवरी के दिन, वीरता के लिए प्रमाण पत्र मैडल के साथ मिला, उसके बाद क्या कभी कोई नेता कभी आये शहीदों के घर झाँकने ! उसके घरवाले किस हालत में हैं ये देखने वे कभी नहीं आते ? वहीं दूसरी ओर एक आतंकवादी का समर्थक आत्महत्या कर ले तो मीडिया से लेकर नेता तक, हर कोई उसे कवरेज देने और मुआवजा देने पहुँच जाते हैं।अगर केसर की क्यारियों में लोगों को घुमाने का इतना ही शौक है तो कुछ दिन के लिए बगैर सुरक्षा के इन्तेजाम के नेताओं को उनके परिवारों के साथ घूमने देना चाहिए । तब शायद सैनिकों के परिवारों का दर्द उन्हें समझ आएगा। बोलते-बोलते आज रो पड़ी थी कविता । आँखें पोंछते हुए उसने कहा- माफ़ कीजियेगा पापा,मुझे तो रोने का भी अधिकार नहीं है, एक शहीद की विधवा जो हूँ।' सब सन्न रह गए, कविता वहाँ से रोते हुए बाहर निकल गयी।
प्रिंसिपल साहेब उठे घर पर पत्नी को फ़ोन लगाकर कहा- हम जो चाहते थे हो गया, डॉक्टर को बुला लो कविता घर के लिए निकली है। अबकी सब हैरानी से उन्हें देख रहे थे। प्रिंसिपल साहेब भी घर चले गए। विक्रम शर्मिंदगी के अहसास से ज़मीन पर धँसा जा रहा था।आज उसे चुल्लू भर पानी की तलाश थी डूब मरने के लिए। कार्यक्रम ख़त्म हुआ पर विक्रम का मन अधीर हो रहा था।
कॉलेज से निकल वह सीधा प्रिंसिपल साहेब के घर चला गया। काँपते हाथों से उसने डोर बेल बजाई। दरवाज़ा सात साल के प्यारे से बच्चे ने खोला। विक्रम ने उससे कहा- क्या मैं कविता जी से मिल सकता हूँ? बच्चा बोला- मम्मी को हॉस्पिटल ले गए हैं दादा जी। मैं और दादी वहीँ जा रहे हैं। विक्रम ने उस बच्चे से कहा- क्या मैं भी चल सकता हूँ तुम्हारे साथ। तीनो हॉस्पिटल आ गए। कविता एडमिट थी। प्रिंसिपल साहेब को देख विक्रम ने अपने हाथ जोड़कर कहा-- आपका अपराधी हूँ मैं । प्रिंसिपल साहेब ने उसके हाथ को थाम लिया और कहने लगे तुमने तो उसकी जान बचाई है। पिछले दो सालों से सदमे में जी रही थी। सिद्धार्थ की मौत के समय सबने उससे कहा- शहीद की विधवा रोती नहीं। अन्दर ही अन्दर घुटती रही वह । डॉक्टर हार मान गए सबने कहा इसका बस एक ही इलाज़ है रोना। हमने बहुत कोशिश की पर नहीं रुला पाए। यहाँ दाखिला करवा दिया, जिससे अधूरी पढाई पूरी हो सके। कॉलेज से आकर रोज़ थोड़ा-थोड़ा सिसकने लगी थी। मैंने जानबूझकर वर्कशॉप के लिए यही दोनों विषय रखे थे। उसका नाम तुम्हारे कहने पर नहीं, मेरे कहने पर लिखा गया था।
विक्रम हैरानी से उनका चेहरा देख रहा था। प्रिंसिपल साहेब बोले- कहने को बहू है मेरी, पर मेरे लिए बेटी से कम नहीं ! सिद्धार्थ की मौत के बाद उसके माता पिता ने जब उससे दूसरी शादी की ज़िद की तो ये कह उसने मना कर दिया कि शहीदों की पत्नी कभी विधवा नहीं होती ! जिस तरह एक शहीद अमर होता है उसी तरह उनकी पत्नियों का सुहाग भी अमर रहता है। क्या हुआ जो कैप्टेन सिद्धार्थ नहीं हैं पर मेरे लिए वो अमर हैं , साथ ही मेरा सुहाग भी। मैं ये सफ़ेद कपड़े नहीं पहनूंगी और न ही कभी किसी और रिश्ते में बंधुंगी । इतना कह अपने माँ-बाप का घर छोड़ आई वह।
कविता से जब सबको मिलने की डॉक्टर ने अनुमति दी तो विक्रम एक अपराधी की तरह उसके सामने हाथ जोड़े खड़ा था। कविता ने मुस्कराते हुए कहा-- गलती तुम्हारी नहीं , मेरी है विक्रम, मेरे रंगीन लिबास से तुम्हें धोखा हुआ। विक्रम की नज़रें जो हमेशा कविता को घूरती रहती थीं आज उसके सम्मान में झुकी हुई थीं।
विक्रम हॉस्पिटल से अपने फ्लैट पर लौट आया। खाना खाने का मन नहीं था, चुपचाप रेडियो चलाया और बिस्तर पर लेट गया। रेडियो पर गाना बज रहा था- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊँ तेरे प्यार में एक कविता' ....... अबकी बार विक्रम ने अपने कान बंद कर लिए थे ।
रंगीन लिबास
कॉलेज का नया सेशन। सैकड़ों नए चेहरे नज़र आ रहे हैं, पर वो बड़े-बूढ़े कहते हैं न पुरानी शराब और पुराने इश्क का नशा ही कुछ अलग होता है । कुछ ऐसा ही हुआ, चलते-चलते ठिठक गयी कविता। आज भी उसके कानों में माइक से आ रही आवाज़ गूँज रही थी- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊं तेरे प्यार में ए कविता'। कविता ने अपने कान बंद कर लिए। वाश रूम में जाकर ठन्डे पानी के छींटे मारे और क्लास में आ गयी । नए चेहरों से पहचान कर रही थी। इतना आसान नहीं था, उसके लिए घर से कॉलेज तक का ये सफ़र । जाने कितने झगड़ों के बाद कॉलेज में दाखिला लिया था उसने, मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क्स में। अपनी अधूरी पढाई पूरा करने के लिए ।
5'4" कद, गोरा रंग, लम्बे बाल,खूबसूरत आंखें उसे देख लड़कों की भीड़ ने आपस में कुछ कहा, उसके बाद हंस पड़े। उनके शोर को अनसुनी करती हुई कविता क्लास में चली गयी।
मुस्कराते चेहरे के साथ आँखों में मायूसी लिए नयी पहचान बनाने की कोशिश कर रही थी। टीचर के आते ही हाजिरी में जब उसका नाम पुकारा गया 'कविता' तो उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। क्लास के बाद जब सब घर को चल दिए, तो लड़कों के समूह में कोई सुरीली आवाज़ में गुनगुना रहा था- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊँ तेरे प्यार में ए कविता'।कविता ने अपना सर झुकाया और चुपचाप तेज़ क़दमों से बस की ओर भागी और घर पहुँच गयी।
पिता ने सर सहलाकर जब कॉलेज के बारे में पूछा तो मुस्कराने की नाकाम कोशिश करते हुए उसने कहा-- जी, अच्छा रहा। अपने कमरे में जाकर अपनी पसंदीदा गाने को प्लेलिस्ट में सेट कर दिया 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ,आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ'। बार-बार यही एक गाना सुनते-सुनते रात कैसे बीती कविता को पता ही नहीं चल पायी ?
सुबह फिर एक बार कॉलेज जाने की जद्दोज़हद ! मन नहीं था जाने का पर पिता को मना नहीं कर पाई। कार में बैठ उनके साथ कॉलेज पहुँच गयी। उसके पिता जी कॉलेज के प्रिंसिपल थे , पर कविता ने ये बात सबसे छुपा कर रखी थी जिससे सब सामान्य रहे, उसके साथ।
समय बीतता गया, उसने पाया कि एक जोड़ी बेशरम आँखें, उसे ही घूरती रहती हैं । अपने आप को पढाई और वर्कशॉप में व्यस्त कर लिया था उसने । किसी की कही बातों का असर अपने पर नहीं आने देती, पर कहीं न कहीं रोज़ वही बेशरम आँखें उसके लिए एक ही गाना गुनगुनाती- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊँ....' ! अपने कान झट से बंद कर लेती कविता । जैसे अब कभी इस गाने को अपने दिल के करीब नहीं पहुँचने देना चाहती थी। वो बेशरम आँखें बहुत ढीठ थीं, उसे परेशान करने का कोई मौका नहीं छोडती थी। ये आँखें थीं उसके साथ पढ़ने वाले लड़के विक्रम की । विक्रम गाहे-बगाहे कविता का रास्ता काटते रहते ! पर वह कुछ नहीं कहती, चुपचाप वहाँ से निकल जाती ।
27 सितम्बर को 'वर्ल्ड टूरिज्म डे' के मौके पर सोशल वर्क और टूरिज्म डिपार्टमेंट की एक साथ वर्कशॉप लगने वाली थी। सोशल वर्क का विषय था- 'समाज में विधवाओं की स्थिति', टूरिज्म डिपार्टमेंट ने कश्मीर टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए विषय रखा था- 'एक बार तो आइये इन केसर की क्यारियों में'। सारे विद्यार्थी तैयारी में लगे हुए थे। कविता का रुकने का मन नहीं था पर पिता की ज़िद की वजह से रुकना पड़ा उसे।
कार्यक्रम शुरू हुआ, कोई समाज में विधवाओं की स्थिति का वर्णन करता तो कोई कलकत्ता से लेकर बनारस तक उनके साथ किये जा रहे व्यवहार की बात करता ! कोई विधवाओं को पुनर्स्थापित करने के लिए दोबारा पुनर्विवाह की सलाह देता । सब तन्मयता से सुन रहे थे। फिर किसी ने केसर की क्यारियों में घूमने की बात की। घाटी की सुन्दरता का वर्णन ऑडियो विसुअल क्लिप के माध्यम से हो रहा था। कविता ख़ामोशी से सब देख रही थी, उसके पिता की नज़रें बस उस पर थीं।
बहुत सारे लोगों के बोलने के बाद जब माइक से नाम लिया गया अब आ रही हैं 'कविता' अपने विचार रखने। हतप्रभ हो गयी, उसने तो अपना नाम दिया ही नहीं था, न तो उसकी कोई तैयारी थी। जब सब उसका नाम लेने पर तालियाँ पीट रहे थे, वह डर गयी।उसने चारों ओर देखा तो वही एक जोड़ी बेशरम आँखें मुस्करा रही थीं । कविता समझ गयी कि ये विक्रम का काम है।
घबराते क़दमों से उसने अपने कदम माइक की ओर बढ़ाये। माइक पर जाकर जैसे ही उसने कहा मैंने अपना नाम नहीं दिया था पता नहीं किसने शरारत की है मेरे साथ। सारे लड़के तालियाँ पीट रहे थे और विक्रम मुस्कराते हुए उसे देख रहा था। कविता ने हाथ दिखाया, सब के चुप होते ही बोली पर मैं बोलूंगी और एक नहीं, दोनों विषयों पर एक साथ बोलूंगी। उसके इतना कहते ही सब उसे आश्चर्य से देख रहे थे। उसने कहने शुरू की--
बहुत सलाह और बहुत अच्छे मशवरे दिए आप सबने विधवाओं के पुनर्वास और उनके पुनर्विवाह को लेकर। क्या आपने सोचा है जब अपने पति को खोने के बाद लोग उसकी विधवा के समक्ष दोबारा विवाह प्रस्ताव रखते होंगे, तब क्या बीतती होगी उसके मन में ? रंगीन कपड़े,खान-पान की स्वतंत्रता बस, इतना आसान नहीं होता, एक स्त्री के लिए ये कार्य ! बोलने और सुनने में अच्छा लगता है, पर कार्यान्वित होना उतना ही मुश्किल। एक विधवा को अपना अतीत भूलना होता है नयी ज़िन्दगी जीने के लिए । फिर भी क्या गारंटी है जो उसके साथ एक बार हुआ वह दोबारा नहीं होगा ? अगर दोबारा फिर वही हादसा हुआ तो सोचा आपने क्या बीतेगी उस पर ! अगर कुछ करना ही चाहते हैं तो विधवाओं को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करें, न ही उन्हें पुनर्विवाह करने पर जोर दें। उन्हें उनकी ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
अब बारी आती है केसर की क्यारियों में घूमने की तो देखने और सुनने में ही अच्छी लगती हैं केसर की ये क्यारियाँ ! जब आप घूमने जाओगे वहाँ तो वहाँ के रहवासियों का पहला सवाल होता है -- आप इंडिया से आये हो। उस पल आपको अहसास होता है कि शायद आपने वहाँ आकर गलती कर दी। ज़ाफ़रान की महक, उसके रंग, उसका महत्त्व, घाटी की सुन्दरता तो आपने बखूबी बताई, परन्तु ये सब जिनकी वज़ह से सुरक्षित है उनका ज़िक्र भी नहीं किया आप सबने !
सब हैरानी से कविता को देख रहे थे और वो कश्मीर के बैनर को लगे देख कह रही थी। कितनी खूबसूरत तस्वीर है न ये कश्मीर की, पर मेरे लिए इस दुनिया में सबसे बदसूरत जगहों में से एक है। चारों ओर सन्नाटा पसर गया । थोड़ी देर रुक सहमी से आवाज़ में उसने कहा- '5 साल का लड़का अपूर्व,रोज़ रात को केसर वाला दूध पीने का आदि। उसके पापा को पता था कि उनके बेटे को केसर बहुत पसंद है। वे उसके लिए हमेशा चुनकर कश्मीर से शुद्ध केसर लाते और दोनों बाप-बेटे मज़े से स्वाद लेकर साथ में केसर वाला दूध पीते। जब उसके पापा छुट्टी से वापस जाते तो अपूर्व उदास हो जाता ! उसके पापा उसे समझाते आपको केसर पसंद है न तो मैं जा रहा हूँ उन्हीं केसर की क्यारियों को बचाने के लिए, जिससे आप रोज़ केसर वाला दूध पी सको। उसके पापा चले गए, एक दिन खबर आती है कि कैप्टेन सिद्धार्थ एक आतंकी मुठभेड़ में शहीद हो गए। छोटा बच्चा बार-बार माँ से कहता-- मुझे केसर वाला दूध नहीं चाहिए माँ ! पापा को बुला लो। अपूर्व के दादा जी ने गर्व से उससे कहा-- रोता क्यूँ है, तेरा बाप शहीद हुआ है ? शहीदों के घरवालों को रोने का अधिकार नहीं होता। अपूर्व की दादी अपनी कोख पर गर्व करते नहीं थकती। माँ हैं, न तो बेटे का शोक सह सकती है, परन्तु उस पत्नी का क्या जिसके लिए उसका पति अपनी शहादत के साथ एक मैडल, कुछ रुपये, और ढेर सारा गर्व छोड़ गया था और साथ ही छोड़ गया था उम्र भर का खालीपन। जब उस माँ का बेटा उससे पिता की तरह सेना में जाने की बात करता तो माँ को बहुत गर्व होता , परन्तु कुछ ही क्षणों में उदास हो जाती, ये सोचकर कि जो दर्द मैंने सहा, मैं नहीं चाहती वो मेरी बहू सहे !
26 जनवरी के दिन, वीरता के लिए प्रमाण पत्र मैडल के साथ मिला, उसके बाद क्या कभी कोई नेता कभी आये शहीदों के घर झाँकने ! उसके घरवाले किस हालत में हैं ये देखने वे कभी नहीं आते ? वहीं दूसरी ओर एक आतंकवादी का समर्थक आत्महत्या कर ले तो मीडिया से लेकर नेता तक, हर कोई उसे कवरेज देने और मुआवजा देने पहुँच जाते हैं।अगर केसर की क्यारियों में लोगों को घुमाने का इतना ही शौक है तो कुछ दिन के लिए बगैर सुरक्षा के इन्तेजाम के नेताओं को उनके परिवारों के साथ घूमने देना चाहिए । तब शायद सैनिकों के परिवारों का दर्द उन्हें समझ आएगा। बोलते-बोलते आज रो पड़ी थी कविता । आँखें पोंछते हुए उसने कहा- माफ़ कीजियेगा पापा,मुझे तो रोने का भी अधिकार नहीं है, एक शहीद की विधवा जो हूँ।' सब सन्न रह गए, कविता वहाँ से रोते हुए बाहर निकल गयी।
प्रिंसिपल साहेब उठे घर पर पत्नी को फ़ोन लगाकर कहा- हम जो चाहते थे हो गया, डॉक्टर को बुला लो कविता घर के लिए निकली है। अबकी सब हैरानी से उन्हें देख रहे थे। प्रिंसिपल साहेब भी घर चले गए। विक्रम शर्मिंदगी के अहसास से ज़मीन पर धँसा जा रहा था।आज उसे चुल्लू भर पानी की तलाश थी डूब मरने के लिए। कार्यक्रम ख़त्म हुआ पर विक्रम का मन अधीर हो रहा था।
कॉलेज से निकल वह सीधा प्रिंसिपल साहेब के घर चला गया। काँपते हाथों से उसने डोर बेल बजाई। दरवाज़ा सात साल के प्यारे से बच्चे ने खोला। विक्रम ने उससे कहा- क्या मैं कविता जी से मिल सकता हूँ? बच्चा बोला- मम्मी को हॉस्पिटल ले गए हैं दादा जी। मैं और दादी वहीँ जा रहे हैं। विक्रम ने उस बच्चे से कहा- क्या मैं भी चल सकता हूँ तुम्हारे साथ। तीनो हॉस्पिटल आ गए। कविता एडमिट थी। प्रिंसिपल साहेब को देख विक्रम ने अपने हाथ जोड़कर कहा-- आपका अपराधी हूँ मैं । प्रिंसिपल साहेब ने उसके हाथ को थाम लिया और कहने लगे तुमने तो उसकी जान बचाई है। पिछले दो सालों से सदमे में जी रही थी। सिद्धार्थ की मौत के समय सबने उससे कहा- शहीद की विधवा रोती नहीं। अन्दर ही अन्दर घुटती रही वह । डॉक्टर हार मान गए सबने कहा इसका बस एक ही इलाज़ है रोना। हमने बहुत कोशिश की पर नहीं रुला पाए। यहाँ दाखिला करवा दिया, जिससे अधूरी पढाई पूरी हो सके। कॉलेज से आकर रोज़ थोड़ा-थोड़ा सिसकने लगी थी। मैंने जानबूझकर वर्कशॉप के लिए यही दोनों विषय रखे थे। उसका नाम तुम्हारे कहने पर नहीं, मेरे कहने पर लिखा गया था।
विक्रम हैरानी से उनका चेहरा देख रहा था। प्रिंसिपल साहेब बोले- कहने को बहू है मेरी, पर मेरे लिए बेटी से कम नहीं ! सिद्धार्थ की मौत के बाद उसके माता पिता ने जब उससे दूसरी शादी की ज़िद की तो ये कह उसने मना कर दिया कि शहीदों की पत्नी कभी विधवा नहीं होती ! जिस तरह एक शहीद अमर होता है उसी तरह उनकी पत्नियों का सुहाग भी अमर रहता है। क्या हुआ जो कैप्टेन सिद्धार्थ नहीं हैं पर मेरे लिए वो अमर हैं , साथ ही मेरा सुहाग भी। मैं ये सफ़ेद कपड़े नहीं पहनूंगी और न ही कभी किसी और रिश्ते में बंधुंगी । इतना कह अपने माँ-बाप का घर छोड़ आई वह।
कविता से जब सबको मिलने की डॉक्टर ने अनुमति दी तो विक्रम एक अपराधी की तरह उसके सामने हाथ जोड़े खड़ा था। कविता ने मुस्कराते हुए कहा-- गलती तुम्हारी नहीं , मेरी है विक्रम, मेरे रंगीन लिबास से तुम्हें धोखा हुआ। विक्रम की नज़रें जो हमेशा कविता को घूरती रहती थीं आज उसके सम्मान में झुकी हुई थीं।
विक्रम हॉस्पिटल से अपने फ्लैट पर लौट आया। खाना खाने का मन नहीं था, चुपचाप रेडियो चलाया और बिस्तर पर लेट गया। रेडियो पर गाना बज रहा था- 'मैं कहीं कवि न बन जाऊँ तेरे प्यार में एक कविता' ....... अबकी बार विक्रम ने अपने कान बंद कर लिए थे ।
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
thats a revolutionary thought
ReplyDeleteआज फिर रुला दिया दी आपने शहिद की पत्नियां सच मे कभी विधवा नही होती ।
ReplyDeleteAap ne to hame rule diya
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