"हुका-हुकी से मच्छर भगइयो, दीवाली से दीवाला मत हो जययो"
गत साल की बात है, मेरे अज़ीज़ मित्र ने मुझे एक रोचक शोध-पिक्चर भेजा। पिक्चर में गूगल मैप की सहायता से भारत में अयोध्या और श्रीलंका के बीच के सबसे शॉर्टकट रास्ता को उन्होंने खुद रेखांकित किया है तथा किलोमीटर तक का उल्लेख किया है, जिनमें उन्होंने बताया है कि श्रीलंका से अयोध्या की दूरी 2586 KM है, जो भारतीय राष्ट्रीय उच्चपथ की विविधता लिए हैं (पर उस समय वह बला नहीं होगा, जिसे आज ट्रैफिक-जाम कहते हैं, अन्यथा श्रीराम और उनके साथीगण काफी परेशान हो जाते ! खैर, तब भी परेशान थे-- जंगल-जाम के कारण ! ) और हाँ, यह कहना तो मैं भूल ही गया कि इस दूरी को तय करने में 21 दिन 10 घंटे लगेंगे, अगर कोई सामान्य मानवीय पैदलचाल के हिसाब से चले। कहा जाता है, दीपावली के दिन श्रीराम श्रीलंका से सीधे रावण को विजित कर वापस अयोध्या पुष्पक विमान से आये थे, परंतु अगर हम श्रीराम द्वारा रावण पर विजयादशमी के दिन विजय मान लिया जाए, तो विजयादशमी से दीपावली तक 20 दिन होते हैं, फिर तो ऐसा लगता है-- श्रीलंका से राम अयोध्या के लिए वापस पैदल ही आये थे। यह संभव है, वे शायद 1 दिन 10 घंटे पहले ही आ गए होंगे !.... ऐसा उन्नीस-बीस हो सकता है, इसलिए उनका शोध काफी तर्कपूर्ण है यानि रामायण-रचयिता बाल्मीकि जी के पास उस समय भी दूरी ज्ञात करने के न कोई-कोई यन्त्र जरूर होंगे !
अब कोई अन्य प्रसंग-
किसी गहनतम तजुर्बेकार ने काफी महीन झरोखों से यह देख कर लिखा है कि 'दीपावली' या 'दीवाली' से विच्छेद कर 'अली' और 'मुहर्रम' में उसी भाँति विच्छेद कर 'राम' उदधृत की जा सकती है, जिससे हिन्दू, मुस्लिम के निकट बोध लिए यह त्योहार है। सिख, जैन और बौद्ध भी इस पर्व को किसी न किसी भाँति मनाते हैं--
जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर 'महावीर स्वामी' को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। उनके लिए तो प्रकाश पर्व ही है। बौद्ध 'अप्पो दीपो भवः' के नाम से ख्यात् है।
दीपों का पर्व दीपावली; हर कहानी की तरह इनकी भी कहानी पुरानी है। दादी की कहानी, नानी की कहानी, फिर दादा-नाना के मुँह वाणी की कहानियों को बचपन में किस्सा के रूप में रूचि ले-लेकर सुना है। इन कहानियों से मज़ा आता, खासकर इन कहानियों में डूबने-उतरने से ज्यादा।
अन्य प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार, 12 वर्षों के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी के प्रतीक रूप में दीपावली मनाये जाते हैं। कई हिंदू दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी व उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का 5 दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई क्षीरशायी लक्ष्मी के जन्मदिवस से शुरू होती है, दीपावली की रात वह होती है, जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को न केवल वरन् की, अपितु उनसे शादी भी कर ली.... यानि यहाँ प्यार परवान चढ़ गए और अंतरजातीय विवाह को लेकर कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई, लेकिन आज के मानव अपनी लक्ष्मी की तलाश में आँखें-फ़ाड़े प्रतीक्षारत रहते हैं ! गलत मत समझिये मैं लक्ष्मी यानी रुपयों की बात कर रहा हूँ ।....नहीं तो अपने कानून में '14 सेकंड' किसी 'लक्ष्मी' को घूर नहीं सकते, चाहे ये लक्ष्मी आपकी बहन, माँ या पत्नी ही क्यों न हो, पता नहीं 'घूरना' किस अर्थ में है ?
लक्ष्मी के साथ-साथ सनातनी भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश, संगीत-साहित्य की प्रतीक सरस्वती और धन-प्रबंधक कुबेर को 'प्रसाद' अर्पित करते हैं। कुछ व्यक्ति दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते हैं।
मान्यता है, इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग इस दिन लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं, वे आगामी साल के दौरान मानसिक और शारीरिक दुःखों से दूर रहतेे हैं, लेकिन आज के युग में यदि लक्ष्मी जी उस लोक से यहाँ आईं अगर, तो पहले ट्रैफिक जाम से परेशान, फिर पटाखों के शोर में इतनी प्रदूषित हो जायेंगी 'लक्ष्मी' जी कि उन्हें स्वयं की दवाई लेने के बाद ही इंसानो के दुःख-दर्द दूर कर पायेंगी !
मेरे गांव में दीपावली का उत्सव 'माँ काली की पूजा' करने के बाद ही मनाई जाती है, यानि 'काली माता' की मूर्ति उनकी प्रदत्त स्थान में विस्थापित करने के बाद....पूजा के बाद घर में बड़े लोग बच्चों को 'चुमाने' का रस्म निभाते हैं, परंतु "शादी-शुदा" महिलाओं और पुरुषों को नहीं चुमाये जाते हैं। ये बातें मेरे लिए आजतक असमझ भरा रहा है, उसके बाद हम सभी परिवार वाले अपने-अपने परिवार में 'संठी' (पटसन का तना) से बना सामग्री व 'हुका-हुकी' खेलते हैं और उसमें एक मंत्र जाप होता है-- 'लक्ष्मी घर, दरिदर बाहर; मच्छरों के गांड़ में लगा तित्ति'..... सेंटेंस कुछ गन्दा जैसा है, पर क्या करें ? उसके बाद 'हुका-हुकी' से 5 'संटी' निकालकर 5 फलों का नाम लेकर चुनकर रख लिया जाता है। फिर पटाखा फोड़े जाते हैं, लेकिन रामायण में कही यह उल्लेख नहीं है कि राम के आने के बाद अयोध्या के लोगों ने पटाखा फोड़े थे, क्योंकि पटाखा तो 'नवयुगी' देन है !
पर कुछ बात ऐसी है, सुन्दर लड़की को देखा, कह दीहीस-- क्या पटाखा माल है, अरे ! यह फूलझड़ी है। इंसान मटकी तो फोड़ेंगे, पर मिट्टी के दीये न जला कुम्हार के घर अँधेरा की dreamlight रहने देंगे सतत् ! हम बस 'चीनी सामान का विरोध' सोशल मीडिया पर करेंगे, परंतु अंदर से वैसे ही रहेंगे......! अपनी संस्कृति की अक्षुण्णता राजनीतिक बयानबाजी से दूर नहीं हो सकते, ज़नाब !
ऊर्जा बचाएँ, दीवाली मनाएँ, पर दीवाला मत हो जययो !
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