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5.24.2017

" तला 'क' या त 'लॉक' है तलाक "

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     24 May     आलेख     No comments   

मुस्लिम बहनें तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँची है तथा उन्ही में से कई यह कह रही हैं कि उन्हें यकायक फ़ोन पर तलाक दिया गया । क्या ऐसे शरीयत क़ानून के समय फ़ोन, फेसबुक,what's app, e-मेल, skips, IMO, ट्विटर इत्यादि थे, तो फिर अपने प्यार को, अपनी प्यारी पत्नी को 'तलाक-तलाक-तलाक' कह देने मात्र से सेकंड के सौंवे हिस्से भर में अपने दिल और कलेजे के टुकड़े के प्रति बेरुखी अपना बैठते हैं । रिश्ते में नोक-झोंक होते रहती है, फिर हम पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर तलाक क्यों लेते हैं ? आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़िए , संपादक की लेखनी से निकली एक झलक --


 देश बड़ा है या धर्म ! जब देश ही नहीं रहे, तो क्या हम गुलाम मानसिकता लिए सही अर्थों में भोजन को निरपेक्ष मान धार्मिक अभिव्यक्ति दे सकते हैं ? कोई देश अपने जनों के लिए भोजन-वस्त्र-आवास की पूर्ति करते हैं । अब दूसरा प्रश्न है, धर्म बड़ा है या मानवता ! क्योंकि अमानवीय कार्य धर्म के हिस्से कतई और कभी नहीं आ सकते ।
सिर्फ सरस्वती माता के नाम मन्त्र-जाप करने से कोई विद्यार्थी परीक्षा पास नहीं कर सकता, उसी भाँति तलाक-तलाक-तलाक कहने भर के लिए अलग कोई कैसे हो सकता है ? मुस्लिम बहनों पर ये अत्याचार आखिर कौन कर रहे हैं...... ये शरीयत क़ानून 'क़ानून' बनानेवाली संस्था 'संसद' से बड़ा है क्या ??

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी गैर-संवेधानिक संस्था की ओर से दलील यह दी जा रही है कि 'शरीयत संबंधी कानून पवित्र कुरान का हिस्सा है और उनमे कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता है' , लेकिन उन्हें तो यह ख्याल रखना चाहिए जो मुस्लिम महिलायें तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँची है तथा उन्ही में से कई यह कह रही हैं कि उन्हें यकायक फ़ोन पर तलाक देकर बेसहारा जीने को छोड़ दी गयी, क्या कोई धार्मिक ग्रन्थ अमानवीय कार्य का हिस्सा हो सकता है ! क्या ऐसे धार्मिक ग्रन्थ के अवतरण के समय फ़ोन, फेसबुक,what's app, e-मेल, skips, IMO, ट्विटर इत्यादि थे, फिर अपने प्यार को, अपनी प्यारी पत्नी को 'तलाक-तलाक-तलाक' कह देने मात्र से सेकंड के सौंवे हिस्से भर में अपने दिल और कलेजे के टुकड़े के प्रति बेरुखी अपना बैठते हैं । यह फ़क़त कट्टरता है, धार्मिक संस्कार नहीं,सोशल नेटवर्किंग साईट जो मात्र एकदशक पुराना है , किसी धार्मिक ग्रन्थ को कोई संस्करण के लिए बाध्य नहीं करता !
पवित्र कुरान धार्मिक ग्रन्थ है, हर धार्मिक ग्रन्थ मानवीय पीड़ा लिए होता है- चाहे वो रामायण हो या महाभारत !
देश में मुस्लिम महिलाओं की आवाज उठाने वाली संस्था "भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन" (BMMA) है, 2007 में इस संस्था का गठन 'जकिया सोमान' और नूरजहाँ सफ़िया नियाज ने किया था, गत पखवाड़ा 'BMMA' ने 10 राज्यों में 4,710 मुस्लिम महिलाओं के बीच सर्वे के आधार पर एक रिपोर्ट 'नो मोर तलाक तलाक तलाक' प्रकाशित की और रिपोर्ट में यह बताया गया कि 92.1 प्रतिशत महिलाओं ने जुबानी या एकतरफ़ा तलाक को गैरकानूनी घोषित करने की मांग की और 91.7 प्रतिशत महिलायें बहुविवाह के खिलाफ हैं ।

हाल ही में (कुछ माह पहले ) भारतीय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अनिल दवे और आदर्श कुमार गोयल की पीठ ने 'मुस्लिम लीगल सर्विसेज अथॉरिटी' से सवाल किया था कि  क्या मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव को भारतीय  संविधान में दिए गए मूलभुत अधिकारों के अंतर्गत आने वाले अनुच्छेद -14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद -15 (धर्म,जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक से कोई भेदभाव न किया जाय) और अनुच्छेद -21 (जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार) का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए ?
देश की 'मुस्लिम बहनें इस खतरनाक  '3T'  यानि  'तलाक-तलाक-तलाक'  के लिए कानून की शरण में आयें , लेकिन 'मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' ने तीन तलाक और 4 शादियों को सही ठहराया तथा बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि कोर्ट 'पर्सनल लॉ' में दखल नहीं दे सकता, क्योंकि ये 'पवित्र कुरान' पर आधारित है और किसी सामाजिक - सुधार के नाम पर 'पर्सनल लॉ' को नहीं बदला जा सकता । ऐसा यदि होने लगा, तो मैट्रिक, इण्टर, बी.ए., एम.ए. की परीक्षा भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ही लेंगे क्या ?
बोर्ड ने इस पद्धति की तरफदारी करते हुए यहाँ तक कह दिया की तीन तलाक नहीं होने पर , तलाक की प्रक्रिया में काफी लंबी समय लग जाता है साथ ही काफी खर्चीला मामला हो जाता है ,ऐसे में पत्नी से छुटकारा चाहने वाला व्यक्ति अति की स्थिति में उसकी हत्या करने जैसा गैरकानूनी तरीका अपना सकता है , ऐसे गैरकानूनी तरीके से बेहतर है तलाक ।
यानि खुद 'कानून' के रखवाले ही 'डरा' रहे है कि 'तलाक' ले लो , तलाक खरीद लो, बोर्ड टोकड़ी भर तलाक बेचने आया है, नहीं तो 'मौत' इन्तेजार कर रही होंगे !!!!!
बोर्ड का यहाँ तक कहना है कि 'महिलाओं' के मुकाबले 'पुरुषों' में सही निर्णय लेने की क्षमता अधिक है , यदि ऐसा होता 'मुस्लिम बहनों' ने सुप्रीम कोर्ट में '3T' के लिए बिगुल न बजायी होतीं, क्योंकि 'सभ्यता' के शुरुआत से काफी 'धर्म और उनके नित्यम् नियम' बने तथा वो नियम मानवीय पीड़ा के साथ बदलते भी गए, क्योंकि दुनिया के काफी 'इस्लामिक देशों' जैसे -मिस्र, तुर्की, मलेशिया में तीन तलाक की प्रथा या तो ख़त्म हो चुकी हैं, या ख़त्म होने की कगार पर हैं । क्या इसका मतलब यह नहीं कि वे 'पवित्र कुरान' को नहीं मानते हैं !! महिलाओं को कम बुद्धि मानने वाले पर्सनल बोर्ड रियो ओलिंपिक में 2 भारतीय बालाओं द्वारा ही पदक लाने को क्या कहेंगे !
तो क्यों हम 'ऐसे' बातों पर बात करें , जो फरिश्तों होने के फ़िराक में 'फ़' हटाकर सिर्फ 'रिश्तों' को तोड़ने का काम करते हैं । तलाक लेना तब जरुरी है जब 'मन' न मिले, न कि 'धर्मग्रंथों' को हथियार के रूप में 'इस्तेमाल' कर !! किसी धर्मग्रंथों का बेज़ा इस्तेमाल न करे, न ही किसी को धर्म और धर्मग्रंथों के नाम पर डरायें-धमकायें ।
बाकी के लिए समझदार सभी हैं !!!!!!!!!

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