जीवन चलने का नाम है, किंतु यह जो जीवन है, उनमें नानाप्रकार के दुःखों को मानवों द्वारा ही सृजित किए जा रहे हैं, जो मानवों के लिए ही दुःख का कारण सिद्ध हो रहे हैं ! आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट के प्रस्तुतांक में पढ़ते हैं सुश्री निधि चौधरी की कविता 'जरा संभल के चलना...'
'ज़रा संभल के चलना, यह इंसानों की बस्ती है'
लूट मची है उसूलों की
ईमान यहां पे सस्ती है
है चेहरों से सब इंसान यहाँ
ये हैवानों की कश्ती है।
सच की छुपती आवाज़ यहाँ
हर सूरत पर एक राज़ यहाँ
है खूंखार दरिंदे, है मुर्दे ये
इनको भ्रम है कि ये जिंदे हैं।
हर देवी यहां डरी हुई
प्राण है फिर भी मरी हुई
हर उम्र इन्हें तो भाता है
दुधमुंही बच्ची भी खा जाता है।
है जीना मूल्यवान यहां
पर मौत यहाँ पर सस्ती है
सम्भल के चलना यार ज़रा
इंसानों की बस्ती है।
सुश्री निधि चौधरी |
'ज़रा संभल के चलना, यह इंसानों की बस्ती है'
लूट मची है उसूलों की
ईमान यहां पे सस्ती है
है चेहरों से सब इंसान यहाँ
ये हैवानों की कश्ती है।
सच की छुपती आवाज़ यहाँ
हर सूरत पर एक राज़ यहाँ
है खूंखार दरिंदे, है मुर्दे ये
इनको भ्रम है कि ये जिंदे हैं।
हर देवी यहां डरी हुई
प्राण है फिर भी मरी हुई
हर उम्र इन्हें तो भाता है
दुधमुंही बच्ची भी खा जाता है।
है जीना मूल्यवान यहां
पर मौत यहाँ पर सस्ती है
सम्भल के चलना यार ज़रा
इंसानों की बस्ती है।
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