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10.29.2019

'कोई भी संस्कृति एक लंबे समय तक अक्षुण्ण नहीं रह सकती' -- लेखक श्री प्रवीण कुमार के इस कथन को पढ़िए, इस माह के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में....

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     29 October     इनबॉक्स इंटरव्यू     No comments   

हिंदी उपन्यास 'डार्विन जस्टिस' एक महत्वपूर्ण रचना है, जैसा कि 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' के इस माह के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में  लेखक श्री प्रवीण कुमार कहते हैं । यह साक्षात्कार नितांत उनकी है, जिनमें उन्होंने अपनी संघर्षगाथा सहित पुस्तक प्रकाशन-गाथा को भी बारीकी से रखे हैं । हिंदी लेखकों की दु:स्थितियों से हमारे प्रबुद्ध पाठकगण भी आत्मसात होंगे ! 
सनातनी संस्कृति को लेकर भारत में यह समय अनेक पर्व-त्यौहारों को समेटे हैं ! ज्योति-पर्व की समाप्ति के बाद गायों के संवर्द्धन के लिए गौ-वर्द्धन पूजा सहित 'भैयादूज' की अनुगूँज भी साथ-साथ प्रतिबद्धता लिए है, किन्तु आपके 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' ने कई वर्षों से  
#NO_भैया_दूज  
#ONLY_बहन_दूज_REVOLUTION
अभियान चला रखे हैं, इनके लिए 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में कल्पनाप्रसूत कहानी भी हुई थी । 
'बहन दूज़' के बारे में आखिर क्यों सोची गई ? ....क्योंकि सिर्फ़ मर्दों व पुरुषों के लिए ही सब पर्व-त्योहार होते हैं ? पुरुष लोगों ने ही पुरुषवादी पौराणिक कहानियों को एतदर्थ हथियार बनाया और अपने कथित पौरुषता का अखंड परिचय देते हुए 'रक्षा-बंधन' के बाद बहनों को पुनः किसी पौराणिक कहानी के सहारे 'पुरुष मानसिकता' में पिरोकर 'भाई दूज़' मानने, मनाने व मनवाने को बेबस कर डाले ! जिउतिया, तीज़, करवाचौथ इत्यादि सभी महिलाओं के लिए ही यानी पुरुषों के हिस्से सिर्फ़ भोग-विलास क्यों ?
बकौल, लेखक श्री प्रवीण कुमार-- "कोई भी संस्कृति एक लंबे समय तक अक्षुण्ण नहीं रह सकती ! यदि आप उसे अक्षुण्ण रखने का प्रयास करेंगे, तो उस संस्कृति के अंदर बहुत सारी विसंगतियां आ जाएँगी !" 
ऐसे वाक्य बहुत कुछ कह देता है । लम्बी हो जा रही भूमिका का यहीं इति करते हुए आज 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' में पढ़ते हैं, इस माह का 'इनबॉक्स इंटरव्यू' यानी लेखक श्री प्रवीण कुमार से प्राप्त 14 जवाबों से रूबरू होते हैं ! ...तो आइये, इसे हम पढ़ ही डालते हैं....



श्री प्रवीण कुमार

प्र.(1.)आपके कार्यों को इंटरनेट / सोशल मीडिया / प्रिंट मीडिया के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आईडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये ? 

उ:- 
मेरा लेखन फेसबुक पर कविताएँ लिखने से शुरू हुआ था। कुछ दोस्तों ने उम्दा, बेहतरीन -जैसे शब्द उन कविताएँ पर लुटाकर मुझे बहलाया-फुसलाया ताकि लिखता रहूँ और यही हुआ भी, उत्साहित होकर इसी फेसबुक पर मैंने अपनी कुछ कहानियाँ शेयर की, वहाँ भी पॉजिटिव प्रतिक्रिया थी ! ...और तब गूगल डॉक्स में 'डार्विन जस्टिस' लिखने लगा। 
यह सब कुछ इंटरनेट के कारण ही सम्भव हुआ। 

प्र.(2.)आप किसतरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?

उ:- 
मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से हूँ और मेरा परवरिश किसान परिवार में हुआ है। मेरे द्वारा लिखित उपन्यास 'डार्विन जस्टिस' के केंद्र में इस पृष्टभूमि की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है।

प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किसतरह से इंस्पायर अथवा  लाभान्वित हो सकते हैं ?

उ:- 
यह पाठक पर निर्भर करता है कि उसे मेरी कविताएँ या उपन्यास किस हद तक प्रभावित कर रहे हैं ! वह उसमें से चुनकर क्या रखते हैं या क्या फेंकते हैं, यह पढ़ने वाले पर निर्भर करता है।

प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?

उ:- 
मैं लेखन में शौकिया तौर पर आया। यह सोचकर कर आया कि छप गया तो ठीक, अन्यथा कोई बात नहीं !

प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ?  

उ:- 
मैंने जब सोचा कि इस शौक (लेखन) को एक मुकम्मल आकार दी जाए, तब तक मैं आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा हो गया था, इसलिए ऐसी कोई समस्या मेरे सामने नहीं आयी।

प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !


उ:- 
दाल-रोटी की जुगाड़ के चक्कर में लेखन कुछ दिनों के लिए छूट गया था ! जब यह जुगाड़ पक्का हो गया, तो शौक फिर कुनमुनाने लगा ! सोशल मीडिया ने मेरी इस शौक को और भी उकसाया, इन तरह मेरा लेखन अपने शेप में आया। परिवार वालों को मेरे इस शौक से ज्यादा मतलब नहीं है। हम सब की राहें अलग हैं !

प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं !

उ:- 
फेसबुक के कई दोस्त हैं, जिन्होंने मेरे लेखन को सराहे और प्रोत्साहित किए ।

प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?

उ:- 
संस्कृति का तो पता नहीं; पर सामाजिक संरचना के अंदर जो उथल-पुथल हुआ है, उसके प्रभाव को मैंने अपनी किताब में अतिशय जगह दिया है। कोई भी संस्कृति एक लंबे समय तक अक्षुण्ण नहीं रह सकती ! यदि आप उसे अक्षुण्ण रखने का प्रयास करेंगे, तो उस संस्कृति के अंदर बहुत सारी विसंगतियां आ जाएँगी !

प्र.(9.)भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !

उ:- 
साहित्य अपने स्तर पर 'मोरल पुलिसिंग' का काम करता है ! हाँ, यह पाठको पर निर्भर है कि किताब के पुलिसिंग को प्रैक्टिकल रूप में कितनी फीसदी इम्प्लीमेंट कर पाते हैं !

प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।

उ:- 
अब तक घर के आँटे को ही गीला करता रहा हूँ। वैसे 85% प्रकाशक सड़क छाप टपोरी होते हैं। लेखक परजीवी के रूप में जीवित हैं, जो हिंदी साहित्य के लिए चिंताजनक स्थिति है।

प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी  धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?

उ:- 
मेरी किताब 'डार्विन जस्टिस'  .....प्रकाशन से छपी थी। प्रकाशक ने यह कहा था कि 4 हज़ार कॉपी छाप रहे हैं, बदले में सहयोग राशि के रूप में 40 हज़ार रुपये की माँग की। फिर एडिटिंग के नाम पर 6 हज़ार रुपये लिए, फिर बुक प्रोमोशन के नाम पर 3 हज़ार रुपये लिए। बदले में मुझे 200 कॉपी दिए । कुछ दिन पहले ही किताब का स्टॉक खत्म हो गया और बात सेकंड एडिशन की आने लगी, तो उसने फिर से कुछ सहयोग राशि की माँग की। मैंने प्रकाशक से पूर्व की बिकी 4 हज़ार कॉपियाँ देने को कहा । इसके साथ ही सेकंड एडिशन का एडवांस भी मैंने माँगी, तो उसने मना कर दिया। फिर क्या था ? किताब आउट ऑफ स्टॉक होने के बाद भी फिर से उपलब्ध हो गया ! उन्होंने मेरे द्वारा मना करने के बाद भी किताब प्रिंट करा लिया। इस बार कितनी प्रतियाँ प्रिंट करवाई है ? यह उसने नहीं बताया है ! इसलिए प्रकाशक पर मुकदमा करना ही करना है। इस तरह की परेशानियों से दो-चार होना पड़ा है। ये लोग चोर प्रकाशक है, इनके पास ट्रांसपैरेंसी नहीं है !

 प्र.(12.) कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हों, तो बताएँगे ?

उ:- 
'डार्विन जस्टिस' नाम से एक हिंदी उपन्यास प्रकाशित है। 'कहीं तो हो तुम' नाम से एक कविता संग्रह है।

प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?



उ:- 
'डार्विन जस्टिस' के लिए भारत सरकार के रेल मंत्रालय का 'प्रेमचंद पुरस्कार' मिला है।

प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ? 

उ:- 
मेरे साहित्यिक कार्य मूलतः मोबाइल के गूगल डॉक्स से संचालित हो रहे हैं ! फिलहाल तो इतना बड़ा नहीं हूँ कि समाज और देश को सन्देश दे सकूँ। लोगों के संदेश सुन और उसे ग्रहण कर रहा हूँ !


"आप यूं ही हँसते रहें, मुस्कराते रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !



नमस्कार दोस्तों !

मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो  हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों  के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !

हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com
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