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10.28.2019

उपन्यास 'बाग़ी बलिया' ने पाठकों को न-ही पढ़ने को कहा....

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     28 October     समीक्षा     No comments   

कोई भी भाषा हर दिन नूतन प्रयोग से गुजरती हैं, फिर खड़ी बोली हिंदी तो अब भी नूतन है ही । अंग्रेजी शब्दों के हूबहू प्रयोग कर देने भर से 'हिंदी' नई वाली नहीं हो जाती है ! आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, नई वाली हिंदी के पेशकार श्रीमान सत्य व्यास लिखित उपन्यास 'बाग़ी बलिया पर MOA की समीक्षा-यात्रा पर आंशिक पड़ाव...



पता नहीं, 'नई वाली हिंदी' शब्द-त्रय किस मरहट्टे ने रखे हैं ? हाँ, जिसने भी रखे हैं, उन्हें हिंदी से तो बिल्कुल ही प्यार नहीं है, क्योंकि हम जब जनपथ या राजपथ पर चलते हैं, तो ट्रैफिक नियमों का पालन करते हैं । तभी तो भारत में बाँये चलते हैं, तो कई देश में दाहिनी तरफ, ताकि दुर्घटना नहीं हो ! ....परंतु ये जो नई वाली हिंदी है न, जो भाषेतर व साहित्येतर लिए अथवा व्याकरण को दुविधा में डालकर सिर्फ़ मनोरंजन कर रहे हैं ! ऐसे में वैसे लेखक विदूषक हो सकते हैं, साहित्यकार नहीं !

हाल ही नई वाली हिंदी के पोस्टर ब्वॉय श्रीमान सत्य व्यास रचित उपन्यास 'बाग़ी बलिया' पढ़ा ! इस हिंदी उपन्यास की कहानी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की छात्र राजनीति पर केंद्रित है, जिसे फ़िल्मी कथा की तरह लिखने की कोशिश की गई है, परंतु कहानी शुरुआत के 128 पृष्ठ तक बोझिल, बोरिंग व ठेंगा दिखाती ही ग्राह्य होती है, किन्तु इसके बाद औपन्यासिक किस्सा अच्छा लगने लगता है !

उपन्यास की कहानी इतिहास, भूगोल, दोस्त, खुशी, दुःख, परिवार और छात्र-राजनीति को लेकर आगे बढ़ती है, लेकिन कथा 'पैरेलल वर्ल्ड' जैसी लगती है यानी समानता भरी हुई, यथा- साउथ की एक फ़िल्म है- 'शूरवीर 2' (Okka Kshanam); जिनमें दृश्यित है कि दो व्यक्तियों के युगों, समय व सालों में अंतर के बाद भी किस तरह समानता पायी जाती है ! इस फ़िल्म में दो अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और जॉन एफ कैनेडी के बीच समानता दर्शायी गयी है, जबकि दोनों के कालखंड का फ़ासला एक सदी है ! यहाँ यह कहना है, दोनों अमेरिका के राष्ट्रपति हुए, दोनों के सेक्रेटरी का नाम समान, दोनों की मृत्यु सामान्य मृत्यु न होकर हत्या थी ! ठीक इसी थीम को सत्य व्यास जी ने 'बाग़ी बलिया' में एकतरह की कॉपी पेस्ट कर डॉक साब नामक पात्र द्वारा इतिहास की घटनाओं के परिप्रेक्ष्यत: उपन्यास के दो नायक संजय और रफीक के कैरेक्टर के विन्यस्त: भारत के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास के अजूबे पात्र- सिंधिया और बादशाह शाहआलम से जोड़ते हुए दिखाये हैं !

उपन्यास में उर्दू शब्दों का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है, लेकिन उन शब्दों की जुगाली में 'ख्याल' ख़याल हो गया है, तो 'सारे' साले हो गये हैं ! वहीं हिन्दू-मुसलमान के बीच धार्मिक वैमनस्यता की कुंठित दृष्टिकोण को अमलीजामा पहनाया गया है ! हो सकता है, यह व्यासीय उपालम्भ हो, किन्तु इस बहस को ब्रेक दिया जा सकता था !

व्यास साहब रचित यह कहानी दो लोगों की हो सकती है, लेकिन उनके पात्र यह भूल कैसे कर सकते हैं कि जब डॉक साहब से बात करते हुए संजय कुछ कहते हैं, तभी बिरजू और रफीक उनके पास आ जाते हैं और बिरजू कुछ कहते हैं तथा इनके जवाब में संजय कहते हैं-- क्या हुआ ? ....तो बिरजू उन्हें कुछ दिखाने लगते हैं ! [पेज नम्बर 236] 

सत्य साहब उपन्यास पर फ़िल्म बन सकती है, लेकिन फिल्मों में, जैसे- नायक जब गुंडों का पीछा कर रहा होता है, तो उन्हें खाली सड़क पर अचानक बाइक मिल जाती है ! ठीक ऐसे ही 'बाग़ी बलिया' में छात्रवृत्ति घोटाला वाला प्रूफ बिरजू और रफीक को मिल जाते हैं, क्यों ? 

सुरेंद्र मोहन पाठक सर से आपको कुछ तो सीखना चाहिए, लेकिन आप उनके review पर आख़िर अपनी वक्रोक्ति (वकालत) थोप देते हैं ! 'बाग़ी बलिया' शादी नामक लड्डू है, न खाने से लोग पछताते हैं, तो खाने से और ही......
निर्णय पाठकों को लेना है, सिर्फ़ 'बेस्ट सेलर' वाले घनचक्कर को पूर्ण विराम देते हुए !

-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।



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