श्रीमान अखिलेश यादव !
चौंक गए बँधु !! 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' प्रस्तुतांक के लिए श्री अखिलेश यादव की कविता को प्रकाशित कर रहा है । हम उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री की चर्चा नहीं कर रहे हैं, अपितु अपना अक्की, यादवेन्दु, यादवेंद्र, यादववंशी इत्यादि उपनाम लिए कवि ,इंजीनियर और मेरे हृदयस्पर्शी मित्र अखिलेश यादव ने अपने अंदर की भावना को प्रस्तुत व स्वलिखित मार्मिक कविता से जोड़ा है । बचपन में दादाजी के मुखारविंद से सुना करता था--
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' की याद कर लेना ।"
कविहृदय अखिलेश जी की प्रस्तुत कविता 'माँ के भीतर भी एक माँ' एक नई खोज है । वे माँ के अंदर स्थापित 'ममता' को लिए अभियांत्रिकी-से अन्वेषण कर उनके निचोड़ को स्वकविता में डाले हैं, क्योंकि---
"माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"
श्रीकृष्ण के लिए सगी माँ देवकी से बढ़कर यशोदा माँ थी, धरती भी माँ है, देश भी माँ है, बावजूद सौतेली माँ का वज़ूद एक छटपटाहट लिए है, तभी तो 'माँ के भीतर भी माँ' यानी 'माँ के अंदर ममता' को लिए ही माँ की पूर्णता साबित होती है और इनसे ही 'माँ - एक सदानीरा' हो पाती हैं ।
.... परंतु पुत्र 'कुपुत्र' भले हो जाय, पर माता 'कुमाता' नहीं हो सकती ! माँ तूझे प्रणाम ! आइए, अक्की की कविता को ध्यानबद्ध हो पढ़ते हैं-----
माँ के भीतर भी है एक माँ
माँ ! तुम बहुत याद आती हो,
जब मैं अन्दर से रोता हूँ,
कुछ गम को छुपाते-छुपाते मैं,
रात को भी ना सो पाता हूँ !
मेरी अब जहां ख्वाहिश है, ऐ खुदा !
कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ,
माँ का आँचल में इस तरह लिपट जाऊँ,
कि मैं फिर से नन्हा हो जाऊँ !
माँ ! तेरी ही खुशी की ख़ातिर,
अब मैं चल रहा हूँ, सही राहों में,
तेरे भी तो कभी सपने होगें,
उसे भी जोड़ मैं हूँ, उन चांद-सितारों से आगे !
चौंक गए बँधु !! 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' प्रस्तुतांक के लिए श्री अखिलेश यादव की कविता को प्रकाशित कर रहा है । हम उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री की चर्चा नहीं कर रहे हैं, अपितु अपना अक्की, यादवेन्दु, यादवेंद्र, यादववंशी इत्यादि उपनाम लिए कवि ,इंजीनियर और मेरे हृदयस्पर्शी मित्र अखिलेश यादव ने अपने अंदर की भावना को प्रस्तुत व स्वलिखित मार्मिक कविता से जोड़ा है । बचपन में दादाजी के मुखारविंद से सुना करता था--
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' की याद कर लेना ।"
कविहृदय अखिलेश जी की प्रस्तुत कविता 'माँ के भीतर भी एक माँ' एक नई खोज है । वे माँ के अंदर स्थापित 'ममता' को लिए अभियांत्रिकी-से अन्वेषण कर उनके निचोड़ को स्वकविता में डाले हैं, क्योंकि---
"माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"
श्रीकृष्ण के लिए सगी माँ देवकी से बढ़कर यशोदा माँ थी, धरती भी माँ है, देश भी माँ है, बावजूद सौतेली माँ का वज़ूद एक छटपटाहट लिए है, तभी तो 'माँ के भीतर भी माँ' यानी 'माँ के अंदर ममता' को लिए ही माँ की पूर्णता साबित होती है और इनसे ही 'माँ - एक सदानीरा' हो पाती हैं ।
.... परंतु पुत्र 'कुपुत्र' भले हो जाय, पर माता 'कुमाता' नहीं हो सकती ! माँ तूझे प्रणाम ! आइए, अक्की की कविता को ध्यानबद्ध हो पढ़ते हैं-----
माँ के भीतर भी है एक माँ
माँ ! तुम बहुत याद आती हो,
जब मैं अन्दर से रोता हूँ,
कुछ गम को छुपाते-छुपाते मैं,
रात को भी ना सो पाता हूँ !
मेरी अब जहां ख्वाहिश है, ऐ खुदा !
कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊँ,
माँ का आँचल में इस तरह लिपट जाऊँ,
कि मैं फिर से नन्हा हो जाऊँ !
माँ ! तेरी ही खुशी की ख़ातिर,
अब मैं चल रहा हूँ, सही राहों में,
तेरे भी तो कभी सपने होगें,
उसे भी जोड़ मैं हूँ, उन चांद-सितारों से आगे !
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