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3.19.2017

"ये गझिन मन की 'हॉरर' बदमाशियाँ"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     19 March     अतिथि कलम     2 comments   

मन चंचल ही नहीं, वीतरागी है तो अनुरागी भी ! महान संत महर्षि मेँहीँ ने कहा है - 'मन पर किसी का रोक नहीं है, किसी के नहीं चाहने पर भी उसे रोक पाना संभव नहीं है । मन तो कहीं भी जाएगा ही , किन्तु हमें तन को जाने नहीं देना है ।' एक गणितीय आकलन के अनुसार ' 24 घंटे में 70,000 बातें मन में आती हैं, जिनमें 70 प्रतिशत व 49,000 की संख्या में नकारात्मक विचार होते हैं और बचे 30 प्रतिशत अच्छे विचारों में से ही 'मन की बात' अधिकृत हो निःसृत होते हैं ! आज के प्रस्तुतांक में  मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, निबंधकार और संपादक श्रीमान पंकज त्रिवेदी के अंतर्मन में चल रहे हलचल और द्वंद्व की वार्त्ता को लघु निबंध के रूप में करीने से उतारे गए 'पराभौतिकी' की असमझ बातें...... । सत्यश:, तन से जुदा नहीं होते हैं, ये गझिन मन ! परंतु तन को हिलाना भी नहीं है, बावजूद पंकज जी की प्रस्तुत रचना आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. कुमार विमल , डॉ. लक्ष्मी नारायण 'सुधांशु' इत्यादि विद्वानों के निबंधों की यादें तरोताज़ा कर देते हैं । आइये, हम भी प्रस्तुत रचना का स्वाद चखते हैं:-- 



"ये गझिन मन की 'हॉरर' बदमाशियाँ"

मन कितना वीतरागी हो रहा है, ये समझ में तो नहीं आता ! मैं जब भी चलता हुआ निकल जाता हूँ, तो मेरे अंदर से एक ऑरा (दिव्य आभा) भी बाहर निकलकर मेरे साथ चलते रहता है, फिर हम दोनों के बीच निरंतर संवाद होते रहते हैं । हो सकता है कि आसपास के लोगों को वो ऑरा न दिखता हो या हमारे संवाद सुनाई न देते हों ! मगर यही सच है कि हम दोनों के बीच कुछ अलौकिक घटनाओं की अद्भुत बातें होती रहती हैं । इतना ही नहीं, वो ऑरा मुझे कभी ऐसे-ऐसे दर्शन कराता है, जैसे कि मैं उससे चमत्कृत मान लूँ, परंतु न मानने के कारण बताने दुर्लभ -से लगते हैं ! मगर ऐसे चमत्कार से कुछ क्षण के लिए तो मैं अपने अस्तित्व को ही भूल-सा जाता हूँ । 

कभी-कभी सांसारिक जीवन के कारण मन को उदासी घेर ले, तो मन थका-सा, हारे हुए-से लगते हैं, मानों उदास मन मुझे कोस रहे हों ! यह वस्तुस्थिति गुस्सा भी दिलाता है और तब मैं खुद से ही हार जाता हूँ । ऐसे में वो प्रदीप्त-पुंजयुक्त 'ऑरा' मेरे पास आकर मुझे सहलाता है, हाथ फेरता है या कान के पास आ स्वरों के तान छेड़ते हैं... तब मैं, 'मैं' कहाँ रह पाता ? तब अचानक से मुझमें बदलाव महसूस होता है और मैं शांत हो जाता हूँ या बच्चे की तरह अंदर ही अंदर घुटता हूँ । कभी आँसू बहने लगे, तो बहने देता हूँ । तब कुछ भी छुपाने का साहस नहीं रहता है मुझमें ! क्योंकि जो है, जैसा है, वो मेरा नहीं है, मुझ तक सीमित नहीं है ! वो तो उन्होंने दिया है, उनके द्वारा अन्वेषित है, ये सब उन्हीं के लिए हुआ है, फिर क्या छिपाना और किससे छुपाना ? 

मेरा यही भरोसा मुझे सुकून देता है और मैं जब गहरी नींद में चला जाता हूँ , तो मेरे आसपास 'ऑरो' की दिव्यता का उजाला फ़ैल जाता है । मेरी चर्मचक्षु की लगाईं नींद में  तब मेरी नींद उड़ जाती है और मैं अनंत में जाकर बगैर हवा के तैरते-परकते चाँद-तारों से बातें करते हुए मंद-मंद मलयानिल की अहसास लिए सैर करने लग जाता हूँ । .... और न जाने कब चर्मचक्षु में आकर स्वयं को समा डालता हूँ और सुबह होते ही मेरे दैहिक जीवन में खुद को पिरोकर इंसान बन जाता हूँ, मुझे भी दैहिक भान नहीं हो पाता, बावजूद कि मैं हूँ यहीं- कहीं ! 


नमस्कार दोस्तों ! 


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2 comments:

  1. Pankaj TrivediMay 25, 2018

    'मेसेंजर of आर्ट'
    मुझे आश्चर्य के साथ अति हर्ष हो रहा है कि आपने मेरे निबंध पर गौर किया और उनमें से जो आपके दिल को छुआ उसे आपने पाठकों के लिए साझा किया. आपके इस स्नेह और प्रकाशन के लिए मैं विनम्रता से आभार प्रकट करता हूँ.
    आपका,
    पंकज त्रिवेदी

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      Reply
  2. रेणुMay 26, 2018

    आदरणीय सर -- एक पठन के दिव्य अनुभव को प्रदान करता ये निबंध आदरणीय पंकज जी के मंझे और सार्थक लेखन का अप्रितम उदाहरण है |जब मैंने इस निबंध को उनके निबंध संग्रह में पढ़ा था विस्मय से भर गई थी की क्या कोई ऐसे अनुभव से भी गुजर सकता है | पर बिना किसी दिव्य अनुभव से गुजरे ऐसा लेखन संभव कैसे होगा | पंकज जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाये इस दिव्य लेखन के लिए | वैसे उनका निबंध संग्रह '' मन कितना वीतरागी '' ऐसे अनेक दिव्य अनुभवों की माला है और हर साहित्य प्रेमी के लिए एक नई आनंदानुभूति !!!!!!!!!सादर --

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