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2.01.2017

'सुश्री नंदना पंकज की रिपोर्ताज़'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     01 February     अतिथि कलम     No comments   

 जब यादों के समन्दर में हम घुमते हैं तो 'स्मरण' की वो धुंधली यादें कागज के बिल्कुल साधारण पन्नों पर 'संस्मरण' बन अपनी छाप छोड़ती हुई --आगे को बढ़ जाती हैं । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है -- यादों से निकलते सुश्री नंदना पंकज की रिपोर्ताज़ जो  शब्दों के सहारे  किंकर्तव्यविमुख -संस्मरण बन गयी हैं और  इसमें सबके लिए... भला कोई जगह न हो , कहना शोभा नहीं देती ! 'भागलपुर' बिहार का शहर है, शिल्क-सिटी -- यह वही शहर है जिनपर प्रकाश झा ने 'अंखफोड़वा-कांड' पर 'गंगाजल' जैसी प्रसिद्ध फ़िल्म बना डाली .. आइये , अन्ना हज़ारे और दशरथ मांझी के कष्टयात्रा को  सुश्री नंदना  पंकज के पिता पर बेटी के रिपोर्ताज़ में पढ़ते हैं, तो पढ़िए:-


'सुश्री नंदना पंकज की रिपोर्ताज़' 


19 जनवरी 1987
कुछ धूँधली यादें जो ज़ेहन में हमेशा चमकती रहती है --
18 जनवरी 1987- पाँच-छह बरस की रही होऊँगी । कई दिनों से कुछ बुनियादी सी माँगों को लेकर चल रहे वामपंथियों के नेतृत्व में भागलपुर बुनकर संयुक्त मोर्चा के झंडे तले आंदोलन ने ज़ोर पकड़ लिया था, पड़ोस के गंगा बाबू आमरण अनशन पर बैठ चुके थे । घर से मेरे दोनों भैया और सभी चचेरे भाइयों ने एक दिन के लिए अनशन पर बैठने जा रहे थे । तैयारी ऐसी थी, जैसे दशहरे का मेला देखने जा रहे हों !

मैं भी साथ चल पड़ी, घर से करीब दो किलोमीटर पर होगी वह जगह , दरअसल मुझे बाबा से मिलना था, काफी दिनों से वे इसी सब में व्यस्त थे तो ठीक से देखा भी न था उनको...वहाँ पहुँचे तो बाबा दिखे तो सही पर मिले नहीं। एक ओर बहुत से लोग गले में फूलमाला डाले लाल झंडा थामे अनशन पर बैठे थे । नारों से सम्पूर्ण इलाका गूँज उठा था । बिना आंदोलन और अनशन को समझे मैंने कहा कि मुझे भी अनशन पर बैठना है, पर भाइयों ने मुझे लड़की और उसपर सबसे छोटी होने का हवाला देकर घर वापस भिजवा दिया !

शाम को मशाल जुलूस निकाला गया। लोग हाथों में मशाल लहराते हुए पूरे जोश में इंक़लाबी नारे लगा रहे थे...उनके जुनून को देखकर मैं भी उत्साहित थी, मैं भी जुलूस में जानी चाही, पर माँ ने फुसलाकर रोक लिया...अगले दिन सड़क-रेल-जाम करने की पूरी तैयारी थी, पर पुलिस ने रात से ही धर-पकड़ शुरू कर दी थी और चुन-चुनकर वामपंथियों को पकड़ने लगे थे !

अगले दिन 19 जनवरी की सुबह मेरे बाबा काॅमरेड अवध किशोर प्रसाद और काॅमरेड अरुण मिश्रा के नेतृत्व में करीब तीस हजार भीड़ धरना स्थल से मनोकामना नाथ चौक की तरफ मुख्य सड़क पर बढ़ रही थी, तभी पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलानी शुरू कर दी और दो नवयुवक शशि कुमार और मोहम्मद जहाँगीर मौके पर ही शहीद हो गये । उसके बाद बाबा और अन्य नेताओं पर भी गोलियाँ चलाने की धमकी दी गयी और फिर अफरा-तफरी मच गई और भीड़ अनियंत्रित हो गई...कुछ असामाजिक तत्वों ने इस मौके का दुगूना फायदा उठाया और घटना स्थल से कुछ ही दूरी पर तत्कालीन डी.एस.पी. की हत्या कर इल्ज़ाम आंदोलनकर्ताओं पर डाल दिया । 

एस.पी. ने बाबा को एनकाउंटर में मार डालने की खुली धमकी दी...कुछ शुभचिंतको ने बाबा को बचाकर वहाँ से निकाला और फिर बाबा कुछ दिनों के लिए भूमिगत हो गये ।
बड़े बाबूजी डा. श्यामसुंदर प्रसाद, काॅमरेड अरुण मिश्रा, काॅमरेड देवदत्त वैध, काॅमरेड मोहम्मद सलीम, काॅमरेड मोहम्मद सईद, एनामुल हक़ अंसारी, काॅमरेड शकुनदेव प्रसाद जैसे कई आंदोलनकारीयों को गिरफ्तार कर व कुल छप्पन लोगों पर डीएसपी की हत्या का झूठा मुकदमा दर्ज किया गया, जिसमें मुख्य अभियुक्त मेरे बाबा को बनाया गया और आंदोलन को तितर-बितर करने के लिए उस दिन सैकड़ो आम-आदमी जेल में ठूँस दिये गये।

बाबा के भूमिगत होने के दौरान अक्सर बाबा के एनकाउंटर में मारे जाने की अफवाहें उड़ती रही और माँ सुबकती-कलपती दिन-रात काट रही थी । घर पर पुलिसिया पहरे के साथ उनके हमले होने की खबरें भी आती-उड़ती रहती थी तो घर की महिलाओं ने मिर्च कूटकर पर्याप्त मात्रा में इकट्ठा कर रखी थी कि आत्मरक्षा में कुछ तो काम आवे । शाम होते ही हम सुरक्षित ठिकाने को  खोजते ननिहाल तक पहुँच जाते, फिर रोज सुबह घर वापस आते। घर का कारोबार जो आंदोलन के पहले से ही मंदा था अब पूरी तरह ठप हो चुका था। जमापूँजी भी घटती जा रही थी। किसी तरह दिन बीत रहे थे कि खबर मिली बाबा ने काॅमरेड अरुण मिश्रा तथा कुछ और लोगों के साथ कोतवाली में सरेंडर कर दिया है और अब उन्हें सेंट्रल जेल , भागलपुर भेज दिया गया है । मम्मी और परिवार को राहत मिली, कम से कम अब उनकी जान तो सुरक्षित है !

लेकिन कुछ ही दिनों बाद खबर मिली कि गंगा बाबू लंबे समय तक अनशन रखने के कारण कई बीमारी से घिर गये और उनकी जेल में ही मृत्यु हो गई है । तब बड़ा ही दहशत से भरा हुआ माहौल था । इलाके में करघों की खटर-खटर के बीच भी एक भयानक सन्नाटा पसरा होता था । घर में एक पुराना कलेंडर टँगा था जिसपर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु की तस्वीर थी, फाँसी के तख्ते पर फंदे को चुमते हुए...उसे देखते हुए एक दिन अचानक ऐसा लगा जैसे बाबा भी फाँसी के तख्ते पर खड़े हैं और गा रहें हैं , जैसा वो अक्सर गीत के एक अंतरे में गाया करते थे---

" हैं किसान मज़दूर के बेटे, त्याग है उनका बाना
फाँसी के तख्ते पर देखो, खड़ा है सीना ताना ।"
हालांकि ये सोचना अब बेहद भयावह लगता है पर उस समय न जाने क्यों उस छोटी सी उम्र में ऐसी कल्पना से जरा भी विचलित नहीं हुई थी, शायद तब इतना समझती नहीं थी कि पिता को खोने के क्या मायने हैं या बाबा से सुने क्रांति के किस्से-कहानियों और गीतों ने अवचेतन-मन को परिपक्व व दृढ़ बना दिया था....

जिस दिन कचहरी में तारीख होती माँ, बड़ी माँ और अन्य महिलाएँ (जिनके परिवार के से कोई बंदी था ) जेल में बंद आंदोलनकारियों के लिए तरह-तरह की चीजें पकाकर ले जातीं थी और वहाँ जब पहुँचते तो पिकनिक सा माहौल होता ! हथकड़ियाँ पहने बाबा कभी उदास या मलिन नहीं दिखे, हर बार मम्मी से अगली मुलाकात पर पसंद का खाना लाने की फरमाईश करते देते ! माँ दुखी होकर भी कभी कोई नकारात्मक बात न कहती उनसे।
करीब छह महीने बाद बाबा के ममेरे भाई ने उन्हें जमानत पर छुड़वा दिया, जब बाबा घर पहुँचे, घर पर कई हजार लोगों की भीड़ थी, सब फूलमालाएँ लेकर स्वागत करने आये थे, जश्न-सा माहौल था उस दिन और मैं बाबा से चिपकी हुई थी, फिर कोई उन्हें दूर न ले जाये हमसे...बाबा जमानत पर तो छूट आये थे पर झुठे मुकदमे ने पीछा न छोड़ा था ।

करीब उनतीस साल तक जनवादी आंदोलन को दबाने के लिए किये गये झूठे मुकदमे ने कई परिवारों को बिखेर दिया और उसका सबसे बड़ा भुक्तभोगी हमारा परिवार रहा...आर्थिक रूप से जर्जर होने पर मानसिक परेशानियाँ आम बात हो जाती ! जेल से छुटने के बाद बाबा का स्वास्थ्य भी गिरता चला गया ! हमने अनेक त्रासदियाँ झेली , इतने कष्ट कि हम गिन न पाये और गिनना भी नहीं चाहते !  हमें गर्व है, अपने बाबा पर साथ ही मम्मी पर भी इतनी यातनाएँ झेलने के बाद भी अपने संघर्ष को न छोड़ा और न ही कभी अपने जनवादी विचारधारा से विमुख हुए ,न ही हमें होने दिया।



पिछले साल ही बाबा व उनके साथियों को मुकदमे से बाइज्ज़त बरी कर दिया गया । पर उनतीस साल की प्रताड़ना सहने का कोई परिणाम नहीं ! आज बुनकर आंदोलन की तीसवीं वर्षगांठ पर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए सभा हुई । दस हजार लोग जुटे , बुनकरों ने फिर अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाई, फिर से वही बुनियादी माँगे दुहराई, जो आज से तीस साल पहले थे । इतने लंबा संघर्ष निरर्थक रह गया -- समस्या जस कि तस बनी हुई है !


नमस्कार दोस्तों ! 

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