MESSENGER OF ART

  • Home
  • About Us
  • Contact Us
  • Contribute Here
  • Home
  • इनबॉक्स इंटरव्यू
  • कहानी
  • कविता
  • समीक्षा
  • अतिथि कलम
  • फेसबुक डायरी
  • विविधा

1.17.2017

'चार रंग के इंद्रधनुष' : मणि लिए सोनी

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     17 January     अतिथि कलम     No comments   

सुश्री सोनी मणि एक शालीन कवयित्री प्रतीत हो रही है । मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट के प्रस्तुत अंक में कवयित्री की चार कविताओं को प्रकाशित की गई हैं , अगर इनकी तीन और कवितायेँ यहाँ आ जाती , तो सप्तरंगी इंद्रधनुषी छटा बिखेरती कवितायें  पाठकों को निश्चित ही उन्मत हाथी की तरह व्याकुल कर देते ! चारों कवितायें , चार 'थीम' लिए हैं । उनमें से नौकरी करती महिलायें मार्मिक-चित्रण प्रस्तुत करती हैं । कविताओं में खिड़की की आयत और फिर प्रेम -कविता लिए प्रेमी के आने की प्रतीक्षा कि 'तुम कब आओगे' की याद दिला देती है । सुश्री मणि की इन कविताओं की भूमिका लिखने से बेहतर है उन्हें पढ़ ही लेना , तो आइये ----इन कविताओं में प्रविष्ट होकर अपने को रमा दें  ...



                                    'चार रंग के इंद्रधनुष' : मणि लिए सोनी


क्रोशिया

क्रोशिया चलाते उसका हाथ 
नाचता है एक लय में
ऊँगलियों में लपेटा ऊन 
सरकता जाता है 
सरसराते हुए
ऊन का गोला घूमता है लट्टू की तरह
बदलता जाता है 
खूबसूरत मफलर में 
बुनते हुए बार- बार मुस्कुराती है 
ठहर -ठहर गिन लेती है फन्दे 
जिसे पहली बार डालते हुए 
हुई थी लाल 
ना जाने कितने प्रेम - पत्र सहेजे क्रोशिया 
चलता जाता 
जैसे बाच लेगा हर आँख की परिधि में कैद 
गुलाबी प्रेम -पत्र......

अब लड़कियाँ मफलर नहीं बुनतीं 
क्रोशिया बचा है कुछ प्रौढ़ हाथों में 
जिससे बार-बार बुनती हैं 
मांग कर सबसे ऊन 
कहतीं 
कुण्ठा कम होता है सिरजने से 
दबा लेती है कुछ हर्फ़
प्रेम की भाषा का मौन निवेदन टांकती हैं 
बार - बार क्रोशिए से।

◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐◑︿◐

नौकरी पर जाती हुई औरतें 

नौकरी पर जाती हुई औरतें 
उठ जाती हैं मेरे शहर में 
सूरज के जगने के साथ 
निबटा कर घर का चूल्हा - चौका
बर्तन -ताशन 
भागती हैं  " रेस" के घोड़े की तरह
जिन पर करोड़ो के सट्टे का दारोमदार है
ये औरतें इस अर्थ युग में 
परिवार का मेरुदण्ड़ हैं
जिनकी कमाई व्यवस्थित करती है
परिवार की स्तरियता को ।

ये औरतें जब मिलती हैं बस अड्डे या अॉटो में 
एक -दूसरे की आँखों की झील में झांक हुए
पर्श से चबैना निकाल मुँह में डाल
चबाते हुए 
फेर लेती हैं आँखें 
आँखों की नमी बता देगी सच 
इस लिए बड़े ग्लास वाला काला चश्मा चढ़ा 
निकलती हैं मुस्कुराते हुए
इन्हें शायद ही मिलता है दिन में गर्म खाना
रात में स्वप्न भर नींद
शायद ही याद रहता है 
कब हँसी थीं खिलखिलाकर
मन भर कब बतियाया था किसी अन्तरंग मित्र से
कब निश्चिंत रोई थीं 
ये औरतें भूल जाती हैं खुद को 
नौकरी पर जाते हुए ।

नौकरी पर जाती हुई 
मिडील क्लास औरतें
दुधार गाय बन चुकी हैं पितृसत्ता के लिए
जिसे नैतिकता की रस्सी के सहारे 
बाँधा जाता है
संस्कारों के खूँटे में
अनवरत दूही जाती हैं स्नेह से 
जब तक कमाऊ हैं 
कमाई का हिसाब बड़ी समझ से लिया जाता है
इस तर्क के साथ 
भोली हो ठग ली जाओगी
औरतें लक्ष्मी हैं सच है 
पर वाहन उल्लू 
ठगी जाती हैं 
अपनों से रोज़
नौकरी पर जाती हुई औरतें ।

नौकरी पर जाना विवशता है
कमाना अनिवार्य 
अब हर लड़की भेजी जा रही है 
शिक्षा के कारखाने में
सीखने के लिए कमाने का हुनर
अर्थ युग में बढ़ रही है 
कमाऊ औरतों की मांग 
ये औरते चलता - फिरता - बोलता
कारखाना बन चुकी है
एक साथ कई उत्पाद पैदा करती
एक बड़ी आर्थिक इकाई में बदल चुकी औरतें
इन पर टिका है पितृसत्ता का मान
इस लिए देहरी लांघ चल पड़ी हैं
भूल कर खुद को 
भाग रही हैं सरपट
नौकरी पर जाती हुई औरतें ।

⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙⊙▽⊙


पहला प्रेम

जब तुम पहली बार मिले 
मौसम कुछ गुलाबी हुआ था 
तभी से गाँठे लिए फिरती हूँ
दुपट्टे के कोर में गुलाबी रंग ....

मेरे दुपट्टे के कोर से निकल कर 
छिटकता है चाँदनी के चँदावे में 
गुलाबी रंग 
प्रेम इस तरह गुलाबी होता है

हर चाहने वालों के लिए प्रेम 
चाँदनी रातों में ......

मेरे दुपट्टे से निकलकर 
फैलता है गुलाबी रंग
जब जागता है सूरज
हर चाहने वाले के मन में 
मिसरी सा घुल जाता है 
गुलाबी रंग 
इस तरह प्रेम जवान होता है
जब सूरज थोड़ा सुनहरा होता है .....

जाते -जाते बसन्त 
तुम रंग गये 
प्रेम के गुलाबी रंग में 
मेरी डायरी के पीले पड़े पन्नों में 
बचा है 
सन्दूक के नीचले कपड़ों में दबा 
मह - मह महकता 
महुए के गन्ध में घुला
प्रेम का गुलाबी रंग ....

तुम भूल गये 
जाते बसन्त के साथ
इस लिए जब लौटना
हमारी गली में
महसूसना 
हवाओं में तैरता मिलेगा 
मेरे प्रेम का गुलाबी रंग ......

(@_@)(@_@)(@_@)(@_@)(@_@)(@_@)(@_@)(@_@)

खिड़की

मेरे पास तब भी एक खिड़की थी
आज भी एक खिड़की है
आज वाली खिड़की उस खिड़की से इतनी बड़ी है
कि देख सकती हूँ आकाश के अन्तिम छोर को
जो मेरी आँख की परिधि में कैद था उन दिनों
इस खिड़की पर रंगीन परदे पर कभी - कभी ही आती है गौरैया 
ना जा क्यों घबड़ाती है 
शायद इस बड़ी खिड़की से साफ दिखती है उसे अन्दर की घुटती दुनिया 
या मेरे टूट कर गिरते ड़ेंगे को देख कर भय खाती है 
खिड़की का बड़ा होना 
मेरी सिकुड़ती हुई दुनिया का विस्तार है 
जो तना है चौखट के समानान्तर
वो खिड़की छोटी थी 
किन्तु सपनों का वितान तानती थी उस आकाश तक 
जहाँ उड़ते थे लड़के मेरी गली के
और इस तरह उस खिड़की की लघुता नापते हुए पाती  हूँ
सिमाऐं आज भी उतनी ही हैं खिड़की की 
जो होती है उन दिनों ।

नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email - messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।

  • Share This:  
  •  Facebook
  •  Twitter
  •  Google+
  •  Stumble
  •  Digg
Newer Post Older Post Home

0 comments:

Post a Comment

Popular Posts

  • 'रॉयल टाइगर ऑफ इंडिया (RTI) : प्रो. सदानंद पॉल'
  • 'महात्मा का जन्म 2 अक्टूबर नहीं है, तो 13 सितंबर या 16 अगस्त है : अद्भुत प्रश्न ?'
  • "अब नहीं रहेगा 'अभाज्य संख्या' का आतंक"
  • "इस बार के इनबॉक्स इंटरव्यू में मिलिये बहुमुखी प्रतिभाशाली 'शशि पुरवार' से"
  • 'जहां सोच, वहां शौचालय'
  • "प्यार करके भी ज़िन्दगी ऊब गई" (कविताओं की श्रृंखला)
  • 'कोरों के काजल में...'
  • 'बाकी बच गया अण्डा : मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट'
  • "समाजसेवा के लिए क्या उम्र और क्या लड़की होना ? फिर लोगों का क्या, उनका तो काम ही है, फब्तियाँ कसना !' मासिक 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में रूबरू होइए कम उम्र की 'सोशल एक्टिविस्ट' सुश्री ज्योति आनंद से"
  • "शहीदों की पत्नी कभी विधवा नहीं होती !"
Powered by Blogger.

Copyright © MESSENGER OF ART