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10.08.2016

"पिंक' में जो अच्छा लगा, उसे किसी से कहियेगा मत !"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     08 October     समीक्षा     No comments   

"पिंक' में जो अच्छा लगा, उसे किसी से कहियेगा मत !"

'पिंक' देखा -- संवेदनशील मुद्दों पर बना यह फ़िल्म ! महानायक अमिताभ बच्चन के किरदार में दमारोगग्रस्त उम्रदराज़ वकील और उनकी मरणासन्न पत्नी के लिए उनके सेवापरायणता के बीच सिर्फ पति-पत्नी-तन्हा लिए अलग ही दास्ताँ ! परंतु इस फ़िल्म में बच्चन जी अगर नहीं भी रहते, तो भी वो तीनों लड़कियाँ कोर्टरूम ड्रामा को बखूबी सँभाल सकती थीं । भ्रष्टाचारी पुलिस तथा स्वच्छंद लड़की-त्रय, जो अविवाहित नहीं हैं, किन्तु कुँवारी भी नहीं हैं । फ़िल्म मेट्रोपोलिटन शहर का एक हिस्सा लगा ।  बढ़िया लगा । निर्देशक के सराहनीय प्रयास ।
पर राइटर साहब एक रूल और जोड़ देते -- आदमी के age से उनकी योग्यता निर्धारित होती है , क्योंकि सोशल मीडिया पर कुछ लिखने के बाद ..... दूसरा मित्र , जहाँ पहले वाले को 'कमअक्ल' आंकने लगते है ........... और भारतीय परम्परा के अनुसार "सलाह" तो देते है पर 'कमेंट' से 'दिल में सर्जिकल स्ट्राइक' के बाद प्रमाण मांगनेवालों- जैसे भी बड़ा घाव देकर कहीं छिप जाते हैं, ताकि मेरी उदासपना पर चुस्की -दर- चुस्की ले सके । आइये, कुछ अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं ----
"बच्चे होते है आज के ,
जन्म से ही बालिग ।"

"ताकि बस चले, तो...
नर्स को दे लाइन ।"
"और सिस्टर को ,
'किस'टर में बदल दे लड़के ।"
"आज जन्मी लड़कियाँ तो,
डॉक्टर को देख, भर उठते आह ।"
"मिलते हैं, तो कई से ऊप्स करके,
किसी को दे जाते हैं ख़ुशी ।"
"और कर जाते हैं,
मुसाफिर तन्हा मुझे ।"
------काश ! 'पिंक' के ही वो मेघालयी लड़की याद आ रही है । मिल जाती अगर, तो दोस्तों, तो एक इंटरव्यू उनसे जरूर बनता है । इसे किसी से कहियेगा मत ! परंतु यह 'पिंक' ही नाम क्यों ? चलिए, फ़िल्म में जो नामकरण हो, अपनी उस मेघालयी बाला का नाम 'पिंकी' रख लेता हूँ मैं ।

-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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