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10.10.2016

'बूढ़े का उत्सव'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     10 October     आलेख     No comments   

"बूढ़े का उत्सव"

एक तरफ आज हम 'अन्तराष्ट्रीय युवती दिवस' मना रहे हैं और दूजे तरफ 'विजयादशमी', लेकिन दोनों में काफी अंतर देखने को मिलता है । जहाँ आज  के समाज 'पिंक' के लड़कों की तरह 'लड़कियों' के बारे में सोचते है , वही दूजे तरफ "रामलीला" में माँ दुर्गा की आराधना करके "मर्यादा पुरुषोत्तम राम" .......रावण,कुम्भकर्ण,मेघनाद पर विजय पाते हैं ।
रावण-वध से पूर्व राम ने दुर्गा की आराधना की थी व मां दुर्गा ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्हें विजय का वरदान दिया था। लेकिन 'दुर्गा माता' के पूजा करने के बाद भी "उनके" मन में ऐसा क्या घर कर जाता है कि वे 'सीता की अग्निपरीक्षा' लेने पर उतावला हो जाते हैं ।
क्या हम उसे एक धोबी की गलती कहकर  एक वीर योद्धा राम की सोच को संकीर्ण मानसिकता से जोड़ेंगे !!
प्यार जीवन का अंग है, वेद से लेकर रामायण में भी ऐसा कहा गया है ...रावण को रावण बनाने की कहानी भी रोचक है । कोई कहते रावण पंडित थे, कोई कहते जनेऊधारी ब्राह्मण थे । ये फिर राक्षस कहाँ से हो गये ? मैं तो यही समझता हूँ, मानव, देव, पशु, वानर , पक्षी (डायनासोर !) की भाँति दानव भी इसके अंतर्गत हैं ।
रावण की बहन "सूर्पनखा" त्रेता युग में ही 'मॉडर्न' विचारों को लेकर जन्मी थी , इसी कारणवश प्यार का इजहार करना (जो की उस युग में , पता नहीं क्या माना जाता था ? ) और "अंतरजातीय / अन्तरधार्मिक प्रेम" करना गुनाह होता था, सूर्पनखा जो की 'मॉडर्न विचारों से ओत-प्रोत' एक "मॉडर्न लड़की" थी --- को "14 वर्ष" वनवास में आये राम के भाई से 'आँखों ही आँखों' में शायद प्यार और इजहार कर दी हो  उसने , पर लक्षमण शादी-शुदा और इस तरह के महौल को शायद नहीं देखे होंगे क्योंकि वे तो अयोध्या से बाहर सिर्फ ननिहाल, गुरु विश्वामित्र संग बक्सर में तारका-वध और विवाह-प्रसंग में जनकपुरी ही जा  पाए थे और उन्हें भारत और विश्व भ्रमण का अतिरिक्त मौका नहीं मिला , इसलिए उन्हें "लड़की" का हिंदी फ़िल्म 'पिंक' जैसा खुलापन पसंद नहीं आया , बीवीव्रता पति होने के कारण गुस्से में 'सूर्पनखा' की नाक काट दी ...!!
अब किसी के बहन को आप यदि नाक काटेंगे तो गुस्सा तो होगा ही , इसी गुस्से से "विजयादशमी" पर्व का आरम्भ हुआ । किन्तु इस गल्प को सूर्पनखा का एकतरफा प्रेम-प्रसंग भी कहा जाएगा ।
क्या एक माँ ने सिर्फ "राम" के दर्द को ही समझा या उन्हें 'सीता माता' नजर नहीं आई या "सीता माता" ने "दुर्गा माँ" की आराधना जो नहीं की थी ?? या शायद उन्हें "सूर्पनखा" की स्त्रीत्व में नाककमी दिखाई नहीं दी या सूर्पनखा दाल-भात में मूसलचंद थी ! ... या सीता की अग्नि परीक्षा राजा की ओर से अयोध्या की जनता के लिए कूटनीति मांग की पूर्ति थी ! यह भी सच है कि माँ दुर्गा 10 विभिन्न देवियों की शक्तियों और बुद्धि का मेल थी , तब तो इसे शक्तियों की तिलोत्तमा कह सकते हैं ।
आज के युग में भी "रावण जैसे भाई और सूर्पनखा जैसी बहन" भी मिलती है,  पर उनके बारे में सभी की राय 'लंकन' रावण की तरह ही है , मैं श्रीलंका की बात नहीं कर रहा ! एक लंका 'वाराणसी" में भी है ! नास्तिकवादी वामपंथी इतिहासकार रामायण और महाभारत की कथा को ही गल्प मानते हैं , फिर उदाहरणों के अंत यहीं समाप्त हो जाते हैं । कोलकाता में वामपंथी सर्वाधिक पाये जाते हैं और भारत में सर्वाधिक दुर्गा पूजनोत्सव कोलकातावासी ही मनाते हैं ।
कुलमिलाकर अगर कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है, तो यही कहना प्रासंगिक होगा--- बुराइयों में अच्छाइयों की जीत है यह उत्सव !

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