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5.02.2014

"कड़ी 10 : "जीवन : वनवे-ट्रैफिक"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     02 May     कविता     No comments   


"जीवन : वनवे-ट्रैफिक"
कहाँ आ पड़ी अकेली ?
यहाँ न आती माँ-बाबा की 'पढ़ने बैठो' की आवाज़ें,
न भैया की डाँट, न छोटे भाई-बहन का प्यार,
अचीन्हीं यहाँ की घर की दीवार भी ।
न यहाँ आँगन पर खटर-पटर,
कैसे हम खेला करते थे संग-संग,
गुल्ली-कबड्डी / खो-खो और अन्य रंग ।
बाबा की अँगुली थाम बढ़ी,
माँ की आँचल बनी सौगात,
कैसे माचिस की तीली-सी छोटी थी,
क्यों बेवक्त अँगारे बन गयी / बना दी गयी ।
अबतो है, मेरी बढ़ती उम्र से घृणा,
पर, माँ-बाबा की बढ़ती उम्र से भय,
और ढलती काया से भयावहता,
अब तो दादा-दादी भी नहीं है--
हम छह जने हैं / चार भाई-बहनें
चारों अपनी-अपनी सेवा में व्यस्त,
चारों कुँवारे / भैया 42 पार ,
परेशाँ माँ-बाबा / क्या यही है, जिंदगी का सार ।
परिवार बसाना -- क्या है जरूरी ?
परिवार तो मीराबाई भी बसाई थी,
सोचती--कई भेड़िऐं से अच्छा है / एक भेड़िया में टिक जाऊँ !
एक स्त्री-- एकाकीपन से क्यों है घबराती ?
या पुरुषों को भी ऐसा भय है सालता !
अनलिमिटेड ज़िन्दगी, बन गई है 'वनवे ट्रैफिक'
ख़ुशी तो इस बात की है / यही सोच....
समस्या नहीं यहाँ कोई, 'ट्रैफिक-जाम' की ।
××                     ××                     ××
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