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4.18.2014

'कड़ी 8 : "नहीं कोई आसरा"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     18 April     कविता     No comments   


"नहीं कोई आसरा"

तड़पती रही माँ / मादाकाल में / प्रतीक्षित पति से
जूझती रही मैं / माँ की जवारभाटीय गर्भ में
आँगन में चाँद को पकड़ने को मचलती
दूध-दूध कह / माँ के स्तनों को निचोड़ती
धूप और रोग से बलखाती
पिता से पीटती / पिटाती
मगर भूख और गरीबी से पंगे लेकर
पढ़ने को जिद करती.....
और आज शिक्षिका बन बैठी
कि दुःख झेलकर भी आसान लगा ।
पर प्रेम-शिक्षा ने, औरताई शिक्षा ने
गले बाँध दी घंटियाँ----
कल सबकुछ सहकर / पायी ही पायी
और आज पाकर ही पीड़िता बनी हूँ
जिसतरह रस खोकर फूल पीड़िता हैं
जिसतरह आटा से निकाल ली गई मैदा
जिसतरह मत्स्यगंधा से निकल सत्यवती
और उनकी अम्बिके-अम्बालिके
कठपुतली भर रह गयी....
या गंगा भी करती रहीं पुत्रों के तर्पण
वो तस्लीमा ही निर्वासिता क्यों ?
महुआ घटवारिन का दोष क्या ?
ताजमहल में ही क्यों कैद 'मुमताज़' ?
यशोधरा की क्या गलती थी ?
कुंती क्यों, मरियम भी तो कुँवारी माँ थी ?
जात-परजात उन्हीं के हिस्से ?
कि घर-बार, कोठा-कोठा ....
औरत इधर से भी बदनाम / उधर से भी,
और नहीं नीड़, कछू नहीं ठिकाना !
××                           ××                           ××
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