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4.11.2014

"कड़ी 7 : "चाक पर चढ़ी औरत"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     11 April     कविता     No comments   


"चाक पर चढ़ी औरत"
सुन्दर प्रतिमा !
यौवन से उफ़नाती प्रतिमा !!
अप्रतिम प्रतिमा !!!
सदियों पहले
एक दूकानदार से
उस एकमात्र स्त्रीलिंग प्रतिमा को--
एक ग्राहक ने खरीदा / कुछ सिक्कों में.....
उस पुरुष ग्राहक ने छूआ उसे,
कई जगह / उस नारी प्रतिमा के--
नितम्ब को सहलाते-सहलाते कूल्हे तक,
ओठ के फ़ाँक से यौनांग तक,
गाल की रसगुल्लाई से छाती तक,
अपनी तर्जनी से / मध्यमा से / अँगुष्ठा से,
कनिष्ठा और अनामिका को छोड़,
क्योंकि ये अंग उस मर्द के कमजोर थे,
किन्तु वे उनकी बाल नहीं सहलाये,
पीठ सहलाये / ब्रा के फ़ीते के अंदाज़न....
यौन-कुंठा से पीड़ित उस मर्द के अंदर थी
अज़ीब छटपटाहट
इसलिए असंतुष्टि के ये आदमखोर ने
उस सुन्दर प्रतिमा,
यौवन से उफनाती प्रतिमा,
अप्रतिम प्रतिमा--- को
सीमेंट-सिरकी के रोड पर पटक-पटक
चूर-चूर कर डाला ।
कहने को ये शरीफ ने
अपनी शरीफाई में हैवानी का पेस्ट बनाकर
प्रतिमा के उस चूड़न को
सिला-पाटी में पीस डाला
और उसे अपने वीर्य से सानकर/गूँथकर
मिट्टी का लौन्दा बना दिया
और उसे चाक पर चढ़ा दिया
कहा जाता है---
तब से ही औरत / चाक पर चढ़ी है ।
××                      ××                    ××
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