प्रेमचंद रचित कहानी 'शोक का पुरस्कार' के समय ऐसी व्यवस्था थी कि शादी होने के बाद भी पत्नी का चेहरा न देखा जा सके ? शादी करके भी पति तरसे ! तब इसप्रकार की नाबालिग शादी के क्या फायदे ?
कथाविन्यास को लेकर चलूँ, तो अभी जब 21वीं सदी में कोरोना इतनी ताकतवर हैं कि उस जमाने में फैले हैज़ा की क्या बिसात ? कुछ ही क्षणों में व्यक्ति को लील ले ! तब भी भयावह और आज भी ! सिर्फ बीमारी अथवा वायरस का नाम अलग हो चुका है ! प्रस्तुत कथा में कई चीजें अलहदा है, जिसे सुव्यवस्थित नहीं किया जा सका है !
जो भी हो, प्रस्तुत कथा में खेद वाली रुकावटें होने के बावजूद बांधती जरूर है, किन्तु यह नहीं बता पाती है कि इतने दिनों तक साथ रहने के बाद भी कोई पात्र किसी अन्य पात्र को क्यों नहीं पहचान पाते हैं, तो वहीं 250 शब्दों से अधिक पढ़ने की यात्रा तय करने के बाद ही कथा की वास्तविक सच्चाई समझ में आने लगती है !
कथाविन्यास को लेकर चलूँ, तो अभी जब 21वीं सदी में कोरोना इतनी ताकतवर हैं कि उस जमाने में फैले हैज़ा की क्या बिसात ? कुछ ही क्षणों में व्यक्ति को लील ले ! तब भी भयावह और आज भी ! सिर्फ बीमारी अथवा वायरस का नाम अलग हो चुका है ! प्रस्तुत कथा में कई चीजें अलहदा है, जिसे सुव्यवस्थित नहीं किया जा सका है !
जो भी हो, प्रस्तुत कथा में खेद वाली रुकावटें होने के बावजूद बांधती जरूर है, किन्तु यह नहीं बता पाती है कि इतने दिनों तक साथ रहने के बाद भी कोई पात्र किसी अन्य पात्र को क्यों नहीं पहचान पाते हैं, तो वहीं 250 शब्दों से अधिक पढ़ने की यात्रा तय करने के बाद ही कथा की वास्तविक सच्चाई समझ में आने लगती है !
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