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7.30.2020

"जुलाई 2020 के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में फ़िल्म लेखक, पत्रकार और निर्देशक श्री प्रभात रंजन के बारे में जानिए, उनकी ही जुबानी"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     30 July     इनबॉक्स इंटरव्यू     No comments   

संसार में कोरोना कहर जारी है, भारत में अनलॉक-3 लागू होने को है । हम 2-3 दिनों के बाद ही रक्षाबंधन का पर्व मनाने जा रहे हैं, किन्तु इसबार यह पर्व बिल्कुल अलग-थलग लिए होगा, क्योंकि फिजिकल डिस्टेंसिंग लिए संयम कोरोनाकाल में जीने की पहली शर्त्त है, ऐसे में पेड़-पौधों को भी प्रतीकार्थ राखी बांध सकते हैं, तथापि पर्व मनाने आवश्यक हो भी तो सुरक्षित रहकर । वैसे एक दशक पूर्व से ही देश में #justice4rakhiyan अभियान चल रही है, जिनमें भाइयों द्वारा ही बहनों को राखी पहनाए जाते हैं। यह अभियान बहनों को सम्मान देने को लेकर है । वहीं इस सप्ताह कथा व उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की जयंती भी है । प्रेमचंद भी कुछ माह के लिए बम्बई (मुंबई) शिफ्ट हुए थे, फ़िल्म लेखन के लिए, किन्तु वहाँ की डिप्लोमेसी उन्हें रास नहीं आई थी और वे वापस आ गए थे । जुलाई 2020 के 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में ऐसे ही एक शख़्सियत से हम रूबरू कराने जा रहे, जो फिल्मी लेखन के लिए मुंबई जाते हैं, सफल भी होते हैं और कुछ कारणों से बहरहाल गाँव आ गए हैं । वे फिर फिल्मी दुनिया में धाक जमाने के लिए वापस अवश्य लौटेंगे ! आइये, 'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में पढ़ते हैं-- हिंदी फिल्म, टीवी सीरियल और वृत्तचित्र लेखक, निर्देशक एवं फ़िल्म पत्रकार श्रीमान प्रभात रंजन के बारे में, उनकी ही जुबानी.....

श्रीमान प्रभात रंजन

प्र.(1.)आपके कार्यों को सोशल व प्रिंट मीडिया के माध्यम से जाना । इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र  के आईडिया-संबंधी 'ड्राफ्ट' को  सुस्पष्ट कीजिये ?

उत्तर ‐ 
मैं पिछले 28 सालों से प्रिंट व विजुअल मीडिया से जुड़ा हुआ हूँ। पुस्तक, धारावाहिक, टेलीफिल्म और डॉक्यूमेंटरी के लेखन के अलावा; मैंने नवभारत टाइम्स और अमर उजाला के लिए फिल्म-पत्रकारिता भी की है। दुर्भाग्यवश इन 28 सालों के करियर में चार छोटी-बड़े रुकावटें शामिल हैं, यथा- करियर की शुरुआत पटना से हुई, फिर दिल्ली और फिर मुंबई। ताजा सूरते-हाल यह है कि आठ साल पहले मैं बुरी तरह अस्वस्थ होकर सपरिवार मुंबई से अपने गाँव लौट आया था, जो कि अभी तक वापस नहीं जा पाया हूँ। ऐसी स्थिति में सोशल मीडिया ही एकमात्र जरिया है यानी दूर-दराज के लोगों से जुड़ने और जुड़ने रहने का। सोशल मीडिया; इस समय पब्लिसिटी का बड़ा और बेहतरीन प्लेटफार्म भी है। जाहिर है, इस समय मुझे नयी पहचान और नए ताल्लुकात सोशल मीडिया से ही मिल पायेंगे। मेरा यह कार्यक्षेत्र मेरी किसी पुरानी योजना का हिस्सा नहीं है। पढ़ाई-लिखाई मेडिकल साइंस की तरफ जाने के लिए चल रही थी, लेखन कार्य में बचपन से ही रुचि थी, मगर इसे व्यावसायिक रूप देने की कोई योजना नहीं थी। एक दुर्घटना ने सबकुछ बदल कर रख दिया। सन 1992 में जिस दिन मैंने अपना पहला  उपन्यास ‘दोस्ती और प्यार’ लिखना शुरू किया, उस दिन सोचा भी नहीं था कि लेखन ही कभी मेरा पूर्णकालिक रोजगार बन जायेगा !

प्र.(2.)आप किस तरह के पृष्ठभूमि से आये हैं ? बतायें कि यह आपके इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं ?

उत्तर ‐ 
मैं ठेठ ग्रामीण पृष्ठभूमि से हूँ। बिहार के मधेपुरा जिले में, मेरा गाँव जिला मुख्यालय से बहुत दूर है-- रहटा भवानीपूर। यहीं मेरा जन्म हुआ था। पिताजी की छोटी-मोटी खेती-बारी थी। बचपन किसानी परिवेश में गुजरा। सात साल की उम्र में पिताजी ने अपनी हैसियत से आगे बढ़कर हिम्मत दिखाई और  मुझे उस आंशिक साक्षरता दर और दयनीय जीवनशैली वाली बस्ती से दूर एक हॉस्टल में रहने भेज दिया। वह हॉस्टल भी एक गाँव में ही था। इस तरह मेरी पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई, हालांकि अब जन्मभूमि गाँव भी काफी तरक्की कर ली है। यहाँ की सोच-समझ, रहन-सहन में काफी बदलाव आ चुके हैं। यहां साक्षरता दर भी बढ़ी है। 28 साल पहले जब गाँव के लोगों और रिश्तेदारों को यह जानकारी मिली कि मैं उपन्यास लिख रहा हूँ, तो लोगों को मजाक का एक नया मसाला मिल गया। दरअसल वह दौर ऐसा था, जब मेरे परिवेश में यह मानसिकता एक मान्यता का रुप लेकर मौजूद थी कि किताब लिखना और रेडियो,  टीवी या फिल्म में काम करना दूसरी दुनिया के लोगों का काम है। वहाँ से किसी प्रकार के मार्गदर्शन की कोई गुंजाइश नहीं थी !

प्र.(3.)आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किस तरह से इंस्पायर अथवा  लाभान्वित हो सकते हैं ?

उत्तर ‐ 
प्रभावित होने के लिए सबका अपना अलग-अलग मापदंड होता है। अगर लोग मेरे काम या कार्यक्षेत्र के साकारात्मक पहलुओं को तलाशें, उसका अवलोकन करें, तो लाभान्वित जरूर हो सकते हैं। लाभान्वित कैसे हों, यह तय करना उनके ऊपर निर्भर करता है ?

प्र.(4.)आपके कार्य में आये जिन रूकावटों,बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें ?

उत्तर ‐ 
यह कार्यक्षेत्र रुकावटों, बाधाओं, परेशानियों का ही है। बिरले ही इस सब से अछूते रहे हों ! वरना शुरुआती दौर में सबको इन सब से रू-ब-रू तो  होना ही पड़ता है। रुकावटों का सामना तो मुझे कई बार करना पड़ा है, लेकिन इसके लिए अपनी किस्मत के अलावा किसी और को दोष नहीं दे सकते और हर किस्से जग-जाहिर करने के लिए भी नहीं होते ! हाँ, बाधाओं और परेशानियों का जिक्र करें तो ऐसे कई उदाहरण हैं। आपने दो उदाहरण जानना चाहा है। पहला उदाहरण- सन् 1998 का दे रहा हूँ, जब दूरदर्शन के नेशनल नेटवर्क और मेट्रो चैनल के काफी सीरियल, टेलीफिल्म और डॉक्यूमेंटरी फिल्में मुझे लिखने को मिले थे। कुछ ही महीने में कई लाख रुपये की कमाई हो गई थी। उत्साहित होकर मैंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू कर दी। डी. डी. इंटरनेशनल चैनल में ‘मिथिला आर्ट’ से संबंधित एक डॉक्यू-ड्रामा को एपीसोडिक फॉर्म में दिखाने का प्रपोजल मैंने सबमिट किया था। सबने इस प्रोजेक्ट की तारीफ की। संबंधित पदाधिकारियों की मौखिक गारंटी पाकर मैंने इसके काफी हिस्से की शूटिंग भी कर ली,  मगर इसके बाद मेरे लिए दुर्भाग्य का दौर-सा ही चल पड़ा।दूरदर्शन की हर मासिक मीटिंग से ऐन पहले कोई न कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटित होती और मीटिंग टल जाती। पहले तेरह महीने की सरकार का गिरना, फिर कारगिल युद्ध, फिर मध्यावधि चुनाव।
इसी क्रम में कश्मीर के लोगों के लिए 'कश्मीरा चैनल' शुरू करने की योजना बनाई गई। इस चैनल पर ज्यादा से ज्यादा फोकस किया जा सके, इसीलिए तत्काल डी. डी. इंटरनेशनल को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मैंने यह प्रोजेक्ट सिर्फ और सिर्फ इसी चैनल के कॉन्सेप्ट को फ़ॉलो करते हुए तैयार किया था, जो बाद में किसी दूसरे चैनल में फिट नहीं हो पायी। एक झटके में मेरे चार लाख के खर्चे पर पानी फिर गया और मैं अपनी शुरुआती कोशिश में ही शून्य पर आ गया। दूसरा उदाहरण- 2004 का है, जब मैं फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय था। एक रात, मुंबई के ‘द क्लब’ में राजा मुखर्जी के एक सीरियल ‘प्रतिमा’ की पार्टी थी। प्रेस-कॉन्फ्रेंस के बाद पार्टी-हॉल में बीयर और बिरयानी का दौर चल रहा था। एक बड़े अखबार के फिल्म-पेज के एडिटर के साथ मेरी किसी खास मसले पर बातचीत चल रही थी, इसी बीच राजा मुखर्जी की पत्नी ज्योति मुखर्जी और बहन रानी मुखर्जी ने वहां से गुजरते हुए मुझे टोक दिया। फिर अलग ले जाकर सीरियल के बारे में कुछ मैटर डिस्कस करने लगी। उनलोगों ने मेरे साथ मौजूद एडिटर साहब को टोका तक नहीं, यही आखिरकार मेरा दोष साबित हुआ। एडिटर साहब तत्काल तिलमिला कर वहाँ से चले गए। थोड़ी देर बाद मैं भी अपने घर के लिए रवाना हो गया; लेकिन, दूसरे दिन तक कहानी बदल चुकी थी। मेरे खिलाफ बहुत बड़ी साजिश रची जा चुकी थी। मेरे बारे में कुछ ऐसी गॉसिप फैला दी गयी थी, जिसका सीधा असर मेरे इमेज, मेरे रिलेशन्स और मेरे करियर पर होना था। मुझे इस साजिश के खिलाफ अपने पक्ष को साबित करने के लिए बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। दरअसल, दिल्ली या मुम्बई की फिल्म-सर्किल में ‘डिप्लोमेसी’ की आड़ में जिस तरह का चलन प्रचलित है, उसे मैंने कभी स्वीकार नहीं किया और उस ‘कूटनीति’ को मैं सीख नहीं पाया। यही अब तक मेरी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुई है और बाधाओं की वजह भी।

प्र.(5.)अपने कार्य क्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित के तो शिकार न हुए ? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये ? 

उत्तर ‐ 
हाँ ! आर्थिक समस्याओं से भी दो-चार होना पड़ा और आर्थिक दिग्भ्रम का शिकार भी  हुआ। दरअसल, जब आर्ट और आटा के लिए  एक साथ संघर्ष किया जा रहा हो, तो वह संघर्ष बेहद कष्टदायक होता है। 1995-96 का साल मेरे लिए बहुत कष्टदायक था। विजुअल मीडिया के लिए लेखन के क्षेत्र में मेरी शुरुआत दिल्ली से हुई थी। इस फील्ड में नये लोगों पर जल्दी यकीन नहीं किया जाता। महीने-दो महीने संघर्ष करने के बाद खुद मुझे महसूस हुआ कि- सिर्फ कॉन्सेप्ट और कहानी के बल पर विजुअल मीडिया में पैर जमाना मुश्किल है। मैंने महसूस किया कि मुझे क्राफ्ट को बारीकी से समझना होगा। महीने-दो महीने के संघर्ष ने मुझे सिखा दिया था कि पुस्तक लेखन और विजुअल मीडिया के लिए स्क्रिप्ट लेखन में बहुत बड़ा फर्क है। दोनों का व्याकरण ही अलग है। इसके लिए कैमरा मूवमेंट, इसकी तकनीक, ट्रिक्स के अलावा अन्य बहुत सी बातें सीखने की जरूरत है। इसके लिए मैंने स्थापित लेखकों से संपर्क साधना शुरू किया। इस दौरान बड़ी अजीब मानसिकता से मेरा सामना हुआ। दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह काम करवाने के बावजूद कोई ये नहीं पूछता कि — आपने खाना खाया या नहीं ? आपके जेब में पैसे हैं या नहीं ! दिल्ली जैसे शहर में आपका खर्च कैसे  चलता है ? खैर, मैंने इसे चुनौती के रूप में लिया और एक साथ तीन‐तीन नामचीन लेखकों के लिए काम करता रहा। इस साल-डेढ़ साल की अवधि में मेरे द्वारा गुजारे गए एक-एक पल की अपनी एक बदन सिहराने वाली दास्तान है। फायदा ये हुआ कि पहला इंडिपेंडेंट प्रोजेक्ट मिलने के बाद ढाई साल तक मुझे दम मारने की फुर्सत नहीं मिली। काम खुद चलकर मेरे पास आये। मुँहमांगी पारिश्रमिक मिल पायी। कई प्रोजेक्ट में मैं गुरुजनों के सह-लेखक भी रहा।

प्र.(6.)आपने यही क्षेत्र क्यों चुना ? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उनसबों ने राहें अलग पकड़ ली !


उत्तर-
यह क्षेत्र मैंने चुना नहीं, बल्कि एक संयोग ने मुझे इस क्षेत्र की तरफ मोड़ दिया। दरअसल, पढ़ाई में मैं अव्वल था। पिताजी  चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूँ, लेकिन डॉक्टर बनना मैंने कभी दिल से स्वीकार नहीं किया। पिताजी सख्त मिज़ाज के हैं, उनके आदेश की अवहेलना करने की हिम्मत अब भी नहीं है मुझमें। मेरी कमजोरी यह है कि मैं बीमार और दु:खी लोगों को देखकर सहज नहीं रह पाता। रोते हुए बच्चे, लोगों के घाव, रिसते हुए खून आदि को देखकर मुझे खुद परेशानी हो जाती है। घर में अपनी बात कहने की आजादी नहीं थी। घर आर्थिक संकट से भी जूझ रहा था, इसीलिए अपने पैरों पर खड़े होने की छटपटाहट थी मुझमें। इसी क्रम में मैं इस रास्ते पर निकल आया। मगर यहाँ भी कठोर संघर्ष से ही सामना हुआ। माँ को तो मैंने किसी तरह मना-समझा लिया, मगर पिताजी की सख्त नाराजगी झेलनी पड़ी। मैंने नादानीवश यह कदम उठा लिया था, मगर सामने कठिन संघर्ष को देखकर अपने कदम वापस मोड़ लेना मुझे मंजूर नहीं था। साल-डेढ़ साल बाद जब अच्छे दिन आ गए, तो पिताजी की नाराजगी खत्म हो गई। जब भी मेरा कोई प्रोग्राम टेलीकास्ट होता तो वे घूम-घूम कर लोगों में खूब प्रचार करते थे।

प्र.(7.)आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं ? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर ?



उत्तर ‐ 

बहुत लोग हैं, इतने कि एक-एक का नाम आपको गिना नहीं सकता ! मगर वे सभी कार्यक्षेत्र में बनाये हुए मेरे शुभचिंतक हैं। कई अब तो मेरे संपर्क में नहीं हैं। वो जहाँ भी हों, उनपर ऊपरवाले अपनी कृपा बनाये रखें। उनलोगों की बदौलत ही मेरे अंदर की सहयोग-भावना को बल मिलता है।

प्र.(8.)आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती हैं ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती हैं अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने के कोई वजह ?

उत्तर- 
मैं अपनी भारतीय संस्कृति की बहुत इज्जत करता हूँ और अपना हर काम इसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए ही करता हूँ। मेरे काम से अपनी भारतीय संस्कृति कितना अक्षुण्ण रह सकती है, यह निर्णय करना मेरा काम नहीं है। अगर किसी को मेरा कोई काम भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने वाली जान पड़ती है, तो मुझे बतायें। मुझे सावधान करें। विरोध करने की जरूरत हो तो विरोध भी करें।

 प्र.(9.)भ्रष्टाचार मुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं !

उत्तर- 
सौ फीसदी। भ्रष्टाचार मुक्त समाज और राष्ट्र ही नहीं, मेरी कोशिशें और कामनाएं ‘भ्रष्टाचार मुक्त संसार’ की है। इसमें सबके भागीदारी की जरुरत है।

प्र.(10.)इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं? अगर हाँ, तो संक्षिप्त में बताइये ।

उत्तर- 
आर्थिक मुरब्बे या आर्थिक सहयोग से संबंधित सवाल उनके लिए उपयुक्त है, जो शौकिया तौर पर लेखन कार्य करते हों। लेखन मेरा पूर्णकालिक रोजगार है। मैंने इस रोजगार को अपना पूरा-पूरा वक्त पूरे समर्पण के साथ दिया है। बदले में इस रोजगार ने मुझे इतना दिया है कि मैं आज सुख, सुकून और सम्मान का जीवन जी रहा हूँ। इसी रोजगार ने मुझे आर्थिक-सुरक्षा मुहैया करवायी है, इसीलिए जब भी कोई ऐसे लेखक, ‘जो एक-दो किताब लिखकर यह आशा करते हैं कि इसी से उनकी जिंदगी की हर जरूरतें पूरी हो जायें', पुस्तक-लेखन को ही हिन्दी-लेखन का सम्पूर्ण दायरा मानकर  ‘हिन्दी-लेखन’ की बदहाली का रोना रोते हैं तो मुझे बड़ी तकलीफ होती है।

प्र.(11.)आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियाँ, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलने पड़े हों ?

उत्तर-
दोष व विसंगतियाँ कहाँ नहीं होती ? मेरे कार्यक्षेत्र में भी हैं। इन्हीं दोष व विसंगतियों के बीच अपने लिए इससे अलग रास्ता बनाना पड़ता है। केस-मुकद्दमे से अबतक मेरा वास्ता तो नहीं पड़ा है, लेकिन फिल्म-इंडस्ट्री में धोखे बहुत मिले हैं, बावजूद उसी इंडस्ट्री में अब बहुत जल्द लेखक-निर्माता के रूप में नई पारी की शुरुआत करने जा रहा हूँ। फिल्म-निर्देशन की भी अच्छी समझ है मुझे। संभव है, भविष्य में निर्देशन का जिम्मा भी संभाल लूँ।

प्र.(12.)कोई किताब या पम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हो, तो बताएँगे ?



उत्तर- 
अब तक मेरी छह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन आपके इस सवाल का अभिप्राय जिस किताब या पम्फलेट से है, नहीं छपी !

प्र.(13.)इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?

उत्तर- नहीं।

प्र.(14.)आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?

उत्तर- (जवाब अप्राप्त)

संक्षिप्त में परिचय:-

फिल्म लेखक, निर्देशक और पत्रकार : प्रभात रंजन
गृह पता : मधेपुरा (बिहार)
कार्यानुभव:-
◆छह पुस्तक प्रकाशित:-
दोस्ती और प्यार (1992),
एक नयी प्रेम कहानी (2000),
सितारों के पार:गुलशन कुमार (2001),
कोशी पीड़ित की डायरी (2010),
रेड अलर्ट (2018),
कहानी काव्या की (2019)
[Kindle और कुछ Amazon पर उपलब्ध]

◆बतौर लेखक कई टेलीफिल्म, सीरियल व डॉक्यूमेंटरी फिल्म का प्रसारण,
◆बतौर फिल्म-पत्रकार हैलो दिल्ली (नवभारत टाइम्स) और रंगायन (अमर उजाला) में 500से अधिक आलेख और फिल्म कलाकारों के इंटरव्यू प्रकाशित (2001- 2005) 

आप यूँ ही हँसते रहें, मुस्कराते रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !

नमस्कार दोस्तों !

मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो  हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों  के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !

हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com

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