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12.18.2019

"ढ़लना और ढ़लान ये दोनों ही प्रकृति के अध्यापक होने का पर्याय सिद्ध करते हैं।"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     18 December     अतिथि कलम     No comments   

आजकल बड़ा आदमी वो है, जिसने इनकम टैक्स विभाग का कम से कम 50-60 लाख रुपये दबाया हुआ है । जो किसी बैंक का 20-25 करोड़ रुपये का कर्ज डकार गए हो ! जिसपर अदालतों में दर्जनों मुकद्दमे पेंडिंग पड़े हों, जो 20-25 केसों में जमानत पर बाहर हो, जो स्मगलर व ब्लैकमार्केटियर व नुक्कड़ नेता हो या ऐसे लोगों का जोड़ीदार हो, जो गुंडे-बदमाशों के साथ उठता-बैठता हो या वो थाना-स्टाफ न होकर भी थाने में बिचौलिया व दलाली के माफिक बैठे रहते हों और संदिग्ध चरित्र के लोगों का हमप्याला, हमनिवाला हो । जो बातें कभी छुपाकर रखने लायक मानी जाती थीं, आज की सोसाइटी में वही बातें बखान करने लायक और डींग हाँकने लायक मानी जाती है । इतना ही नहीं, ऊंची पहुंच वाला हो और बड़े लोगों के साथ उठता बैठता हो ! आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं डॉ. संगम वर्मा के अचंभित व विस्मित करनेवाला आलेख ! आइये, पढ़ते हैं जरा......
डॉ. संगम वर्मा

"ढ़लना और ढ़लान ये दोनों ही प्रकृति के अध्यापक होने का पर्याय सिद्ध करते हैं।"

रातों को जागने वाले को वैसे तो निशाचर कहते हैं, परन्तु जब जीवन बनाने की बात होती है, तो दिन-रात सब एक जैसे होते हैं, क्योंकि हावी होता है तो सर पर जुनून कुछ करते जाने का, हर नई वस्तु आकर्षित अवश्य करती है, यदि नए के आदि हो गए तो आपका होना न के बराबर है। हाँ, यदि नए और पुरातन को समन्वय के साथ रखें तो आप देर तक टिक सकते हैं। आपके भीतर यदि चेतना है तो उसे जगाए रखते रहना चाहिए, उसे सोने मत दें। ये चेतना हमारी भूख है इसके अंदर शक्ति बहुत होती है जिसके बलबूते हम बहुत कुछ कर सकते हैं। वो हमारी बुद्धि की कुशलता पर निर्भर करता है कि हम उसे किस तरफ ले जाना चाहते हैं। जैसे कि शिव ताण्डव भी करते हैं, और वरदान भी देते हैं । श्री कृष्ण मर्दन नर्तन करते हुए अपना परमार्थ भी सिद्ध करते हैं। भाषा हमने देख बोल सुनकर सीखी, आस-पास के माहौल से सीखी । हम अपने अध्यापक स्वयं है पर स्वयं सिद्ध वो ही हैं जो सिद्ध करते रहते हैं। वक़्त की नब्ज़ को पकड़ते हैं। हम अर्जुन भी हैं, एकलव्य भी हैं, अभिमन्यु भी हैं, कर्ण सब तरह से सम्पूर्ण मानव हैं। सबमें एक ही भाव समान है चेतना। आप किसी नवजात शिशु को देखें उसकी चेतना किसी प्रौढ़ की चेतना से कितनी कोमल, लेकिन सशक्त होती है और जल्दी आत्मसात करती है। बड़े होते ही झिझक शुरू हो जाती है, तब हमारा चेतन सोच के परवश हो जाता है। आज हमें इसी नैसर्गिकता को बचाये रखने की कोशिश होनी चाहिए। हम उम्र पार करते जाते हैं और लेवल बनाते जाते हैं। स्टेटस सिम्बल रख लेते हैं कि मैं ये नहीं कर सकता/कर सकती। वास्तव में हम ढ़लना और ढ़लान के मायने खो बैठते हैं। जब तक किसी माहौल में ढ़लेंगे नहीं तो अच्छी प्रकार से जमेंगे नहीं। ढ़लना और ढ़लान हमारे जीवन का नैसर्गिक नियम है, ये ही वास्तव में अध्यापक के होने का पर्याय है। सदैव तो सूर्य भी नहीं टिका रहता दिशा बदलता रहता है, उसी तरह हमें भी स्वयं को चलित रहना चाहिए। कभी धूप कभी छाँव की तरह। गुरुकल में राजकुमारों को राजकुमारों का-सा माहौल नहीं मिलता था, साधारण-सा वसन और सामान्य-सा ही जीवन व्यतीत करना होता था। वहीं शिक्षा के साथ दीक्षा प्रदान की जाती थी। वहीं उन्हें शारीरिक मानसिक विद्या शस्त्र और शास्त्र सिखाया जाता था। ताकि हम भविष्य के कुशल निर्माता बन सकें,अपने देश का ध्वजवाहक हो सकें। पत्थर को भी आगे बढ़ने के लिए ढ़लान का मिलना ज़रूरी है। आपको भी ढ़लान तभी मिलेगी जब आप पूर्णतः ढ़ल जाओगे। यदि ऐसा नहीं करते तो हम कटे से रहते हैं ये कटना अपनी जड़ों से कटना है। जो अपनी जड़ों से कट गया है वो अलोप हो गया है। हम बाहर ही सुख ढूँढ़ते हैं, जबकि बाहर तो सब मिथ्या है, आडम्बर है। आधुनिकता हमारे लिए किसी अविष्कार की तरह है पर हमने इसे अपने ऊपर इतना हावी कर लिया है कि आधुनिकता के ग़ुलाम हो गए हैं और जीवन को बाज़ी की तरह बना लिया है। जिसे बाहर के लोभी वाणिज्यकार ठग रहे हैं। हमें कहने को तो शान्ति चाहिए पर अशान्त रहते-रहते जीवन गुज़ार देते हैं। साम्राज्यवादी ताकतें, नव-उपनिवेशवाद की नीतियों ने हमें अँधा बना दिया है, हम आने वाली पीढ़ी को कुछ नहीं देकर जा रहे हैं। ये सब हमारी कायरता है, हमारी मानवता की कायरता है और ये कायरपन ही हमें सबसे दूर करता जा रहा है,घर से, परिवार से, रिश्तों से, अपनों से, जड़ों से भी और ख़ुद से भी। ऐसा लगता है कि जैसे किसी फ़िल्मी गलैक्टस नामक विकराल महामानव ने हमें और हमारे जीवन के भूगोल को खाली कर दिया है, जिसे कभी भर नहीं सकते। हमारी पैदाइशी शिक्षा अब वो नहीं रही है जो पहले पहल हुआ करती थी। आज हमारा गुरू गूगल बन गया है पर हमारा दुर्भाग्य देखो गूगल भी तो हम इंसानों ने ही बनाया है जैसे की देवताओं की मूर्तियाँ। हम अपनी मान्यताओं को ही तोड़ना नहीं चाहते उसी लकीर के फ़कीर की तरह निभाते जा रहे हैं। जैसा चश्मा लगा दिया गया है वैसा ही देखना है जो उसमें पहले से ही फिट है वही सच है। हमें अपनी प्रतिभा पर विश्वास नहीं होता क्योंकि हमें हर रँग में ढ़लना भुलाया जा चुका है। अब क़िताब का पढ़ना-पढ़ाना ख़त्म हो गया है, मोबाइल पर इ-बुक ज़्यादा पसंद है, तो आने वाले समय पर गुरुकुल विश्वविद्यालय खाली हो जाएंगे, क्योंकि हमने सब कुछ गूगल पर डाल दिया है। पर प्रकृति अपना रँग सदा दिखाती है। उसके पास हर एक की काट है। कृत्रिमता को वो पचा नहीं पाती। उसे विध्वंस कर देती है। प्रकृति से बड़ा अध्यापक कोई नहीं है जो आपके हित के लिये हैं, आपको जीवन देती है। जबकि आज हमनें उसी जीवन को ख़त्म कर दिया है, अमेज़न के जंगल जल रहे थे वो अकेले जंगल नहीं जले बल्कि मानवता जली थी, मुम्बई में भी वही सिलसिला ज़ारी रहा। तो उसका क़हर भी हमें देखना पड़ेगा, जिसके लिए हमें तैयार होने को भी समय नहीं मिल पाएगा। हम यदि बर्बर होंगे तो प्रकृति भी बर्बर होगी। अब सोचने वाली बात ये है कि बड़े-बड़े मुल्क़ कितना एक हो सकते हैं, कितनों की चेतना द्रवित हुई होगी, या तो जो उजड़ चुके हैं, शेष सभी सोच और अफ़सोस करने तक ही सीमित हैं। क्योंकि हमारी दिनचर्या पर जब तक कोई ऐसा दुष्प्रभाव नहीं पड़ता तब तक हम सोए हुए हैं। वो इसलिए क्योंकि हम ढ़लना भूल गए हैं और ढ़लान से हमें डर लगता है। सबसे बड़ी बात ये है कि बाज़ार हम पर हावी है, उस बाज़ार के पीछे छुपे हुए सरमायेदारों को मालूम है कि आपको कैसे छ्ला जाये, क्योंकि हमारा भेद बहुत पहले ही आज़ादी से पहले पता चल चुका था। अतः उन्हें बाज़ार को पैर पसारने में ज़्यादा दिक़्क़त नहीं आती। सामान्य-सी बात है कि आम घरों में सबसे बड़ी ज़रूरत है, मोबाइल कि जिसे ऐसे छ्ला जा रहा है कि आपको आपका ही प्रतिरूप सुन्दर दिखाकर के ही अपना लाभ लेना है। घर का सामान्य-सा दर्पण भी आपको सजने सँवरने में काफ़ी है, परन्तु कैमरा के लेंस में तस्वीर अच्छी आती है न की तस्वीर बदल जाती है। उस लेंस की क़ीमत को बढ़ा-बढ़ा कर ही ठगा जा रहा है। भला किसी माँ ने कभी नवजात को फोटो के कैमरे से प्रेम नहीं किया है, आज हम सब को सुन्दर बनने का नहीं दिखाने का शौक है। बाज़ार हमसे हमारा पैसा हमारी गठरी खाली करवा रहा है। ये बड़ी-बड़ी साइट्स के व्यापार अमेज़न, फ्लिपकार्ट, मन्तरा, ब्रांडेड सब हमें मजबूर करता है और हम ख़ुद को ठगकर आ जाते है । आज हमने 17000 की लेविस की पेंट पहनी है, 8000 की शर्ट पहनी है, 5000 का जूता इत्यादि-इत्यादि। ये स्टेटस बनाये रखने के चक्कर में हमारी जेबें खाली हो चुकी हैं, भविष्य किधर है।राष्ट्रवादी कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने बिलकुल सटीक लिखा था कि
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी 
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी 
भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां 
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां 
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है 
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है।


नमस्कार दोस्तों ! 


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