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11.30.2018

"हिंदी उपन्यास 'बनारस वाला इश्क' की दो-टूक समीक्षा"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     30 November     समीक्षा     No comments   

वे श्रीमान पेशे से अधिवक्ता हैं, लेकिन बहरहाल ज़ीटीवी पर पटकथा-लेखन का कार्य कर रहे हैं । औपन्यासिक कृतियों में हिंदी उपन्यास बनारस वाला इश्क़ उनकी पहली कृति है, किन्तु आज उनका पहला जन्मदिवस नहीं है ! अपितु 'जन्मदिवस' तो निश्चित है ! एतदर्थ, MoA की तरफ से इस शख़्सियत को जन्मदिवस की अनंत शुभमंगलकामनायें !

हालाँकि प्रस्तुत 'नॉवेल' में उन्होंने जिसतरह से स्वपरिचय के साथ अपनी जाति के बारे में बताया है, यह किसी लेखक अथवा अधिवक्ता रहे व्यक्ति को कतई शोभा नहीं देता, लेकिन इन छोटी-मोटी कमियों को दूर कर अगर हम इस उपन्यास को पढ़ेंगे, तो निश्चितश: मज़ा आयेगा ! 
तो आइये, इन त्रुटियों को छोड़ते हुए मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान प्रभात बांधुल्या रचित उपन्यास की दो-टूक समीक्षा.......


ज़िन्दगी में हर व्यक्ति की कहानी प्यार से शुरू हो, प्यार पर ही खत्म हो जाती है ! 
हिंदी उपन्यास 'बनारस वाला इश्क़' पढ़ा । उपन्यास की खासियत यह है कि शुरुआत के यही 50 पृष्ठ आपको इतने बोझिल लगेंगे कि मन करेगा, इसे अब नहीं पढ़ना चाहिए, किंतु पृष्ठों की संख्या ज्यों-ज्यों खत्म होती जाती हैं, त्यों ही 'ठकुराइन' औपन्यासिक परिदृश्य में आकर हम पाठकों को अभिनेत्रीरूपेण नजर आने लगती है, परंतु उपन्यासकार श्री प्रभात बाँधुल्या ने शुरुआती पृष्ठों में हम पाठकों से ऐसे विन्यास को लेकर माफी मांग ली है, क्योंकि इस औपन्यासिक कृति में व्याकरणिक त्रुटियाँ प्रायः पृष्ठों में दिख जाएगी, लेकिन इसके बावजूद हम पाठकगण भी इश्क में व्याकरण को न तो बीच में लाते हैं, न ही घसीटते हैं !

कहानी पढ़ने से एक कयास यह लगती है कि प्रस्तुत औपन्यासिक-कथा उपन्यासकार की बिल्कुल अपनी कहानी है, बस नाम और चेहरों की रूप-सज्जा में भाषाओं का ताड़न अगर सही से कर लें और सही प्रसंग के लिए प्रयोगित कर लें । उपन्यासकार ने यह बताने का हरसंभव प्रयास किए हैं कि वेश्यावृत्ति में ढकेले लोगों के घर अगर शिक्षिका जन्म ले लें, तो समाज में लड़के बिगड़कर भी सुधर जायेंगे और ऐसे सुधरेंगे कि 'मिस कॉल' के ख्याली यादों को सामाजिक कार्य में तब्दील कर देंगे।

कहानी आगे गढ़ते-बढ़ते कब बनारस की गलियों में घूमकर दम तोड़ देती है, यह हमें तब मालूम होता है, जब नायक इश्क़ के अन्ना हजारे की टोपी के रेशमी बालों में अपनी ठकुराइन को ढूंढते-फिरते हैं। प्रस्तुत उपन्यास का अंत तो अन्य उपन्यास की तरह अंत में ही होनी चाहिए थी, किन्तु इस उपन्यास का अंत 'कथा' के बीच में ही हो जाती है, इसके बावजूद दो विचारधाराओं के बीच का प्यार ऐसा भी हो सकता है, यह तथ्य हमें बाँधे रखता है ।

कहानी BHU व काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की दुनिया की सैर कराती हुई, कभी सस्पेंस, तो कभी रोमांस करती आगे बढ़ती चली जाती है और उपन्यासकार इस कहानी को मिश्रा जी और सिंह जी के इर्द-गिर्द इसतरह से चकरघिन्नी की तरह घूमाते हैं कि मायानगरी मुंबई भी 'बिहार' सी लगने लगती है..... 
यानी वो आजादी गैंग की लाल सलाम, मैं भगवाधारी जय श्रीराम ।


-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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