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9.19.2018

'हे राम ! तुम कब आओगे ?' (मर्मस्पर्शी सांस्कृतिक-कविता)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     19 September     अतिथि कलम, कविता, मैसेंजरनामा     No comments   

हर साल श्रावण पूर्णिमा को 'राष्ट्रीय संस्कृत दिवस' मनाया जाता है । भारत सरकार ने 1968 में ऐसा निर्णय लिया था और 1969 से यह दिवस निरंतर मनाई जा रही है । इस तरह से दिवस मनाए जाने के प्रसंगश: यह संस्कृत दिवस की 50वीं वर्षगाँठ है । संसार की कई भाषाएँ संस्कृत से निःसृत है, एतदर्थ यह भाषाओं की जननी भी है । यह संसार के वैज्ञानिक भाषाओं में एक है । संसार के सभी भाषाओं में से सबसे लंबे शब्दों के 'गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' अपनी प्राचीन भाषा 'संस्कृत' के नाम है । खड़ी बोली हिंदी 'संस्कृत' की दुहिता है । हिंदी 'संस्कृत' की सरलीकृत रूप है, इसे अद्यत: खारिज नहीं की जा सकती ! यहाँ तक की संगम कालीन साहित्य व तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, लेटिन, हिब्रू इत्यादि के हजारों शब्द संस्कृत से प्रेरित हैं ! हमारे पाठक सोच रहे होंगे, आज यह बातें क्यों ? क्योंकि मैसेंजर ऑफ आर्ट में आज पढ़ते हैं, संस्कृत के अघोषित अपत्यवाची संज्ञा संस्कृति से जुड़ी कविता ! आइये, देर न करते हुए पढ़ते हैं हम डॉ. संगम वर्मा की सांस्कृतिक-पुकार........


डॉ. संगम वर्मा

पुकार

हे राम ! 
तुम कब आओगे ?
कलियुगी समाज में 
सब कलुषित हो गया है
कोई नहीं है 
धनुष की प्रत्यँचा 
चढ़ाने को यहाँ
है नहीं धीरता,वीरता
साहस दिखाने को यहाँ ?

घर कर गई है 
कलियुग की 
कलुषित कालिमा
बिकने लगी है 
सरेबाज़ार लालीमा ।

पूत, पूत न रहा कपूत हो गया

नशे के मद में वशीभूत हो गया ।

इक वचन की ख़ातिर 
तुमने राज त्याग दिया
आज वचनों की ख़ातिर
अपने त्यागित हो गए
हृदय व्यथित हो गए ।

ताड़का का वध कर 
ऋषियों का उद्धार किया
पावन पाँव छूकर शिलांकित

अहिल्या का सिद्धार किया ।

देखो !
क्या-क्या ?
हो रहा है यहाँ
बिखरी पड़ी है
मानवता जहाँ-तहाँ

रावण वध कर 
बसाया रामराज्य 

अतिमानवीयता में
जीना हो रहा दु:साध्य ।

मर्यादा,अमर्यादित हुई 

चौसर सारी चौपट हुई
सत्ता विखण्डित हुई
मानवता विचलित हुई ।

अन्तर्द्वन्द्व का युद्ध लड़ा जा रहा 

धर्म के नाम पर लूटा जा रहा 
क्रूर सत्ता की क्रूरता देखो 
पददलितों को पीटा जा रहा ।

शिष्टाचार का नाम नहीं 

चापलूसी बिना काम नहीं ।

क्या नैतिकता ?
और 
क्या अनैतिकता ?
है संसार में छाई विपरीतता ।

अबलाओं का नहीं ठौर ठिकाना 

मिलता नहीं अयोध्या सा घराना 
आबरू बेआबरू होती रहती ।

दुनिया आँख बँद कर सोती रहती 

सारा आकाश है तमाशा देखता 
वक़्त का ज़मीर है सोया रहता ।

गुण्डों का है मेला
और
मेले में हैं मवाली
फिर कैसे मनाएँ हम
दशहरा और दिवाली ।

उत्कंठ हृदय से पुकार है मेरी 

अराजकता को ख़त्म कर दो 
सारे संसार को जगमग कर दो
जीवन में सबके नवरस भर दो ।

वचन को सदा निभाया है तुमने 

आस का दीया जलाया है हमने ।

हे राम !
तुम कब आओगे ?
हे राम !
तुम कब आओगे ?


नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।

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