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9.07.2018

'सब कुछ पीछे छूट गया, इंजीनियर बनते-बनते'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     07 September     कविता, विविधा     1 comment   

आज विश्व साक्षरता दिवस है, लेकिन पढ़े-लिखे लोग भी आज, असाक्षर होने की पहचान दे रहे हैं । परंतु आज का दिन मैं और हमारे सभी दोस्तों के लिए कुछ खास भी है। खास इसलिए की इंजीनियरिंग के 4 वर्षों को नौटंकी अंदाज में जीना हमने इसी दिन से सीखा । हर साल की तरह आज फिर से मैं पेश करता हूँ कुछ यादें, जो हमेशा याद आती हैं । आइये,पढ़ते हैं उन स्मृतियों को अग्रांकित शब्द अंकन के साथ......


प्यारा 'ब्रूनी' और उनकी 'माँ'

'सब कुछ पीछे छूट गया
, इंजीनियर बनते-बनते !'

सब कुछ पीछे छूट गया, अभियंता बनते-बनते,
जिम्मेदार कब हम बन गये, मालूम भी न चला ।

जब भी याद आती है, इंजीनियरिंग कॉलेज के वह 4 साल,
मन सुपरसोनिक स्पीड से भी अरबों गुना तेज,निकल पड़ती है ।

उन लम्हों की खोज में,
जो भूली-बिसरी यादें बन,कभी हमें गुदगुदाती है, तो कभी रुलाती है ।

कितना किया था, मेहनत उस जुनून को पाने के लिए..!
कितना किया था, इंतजार उन दोस्तों से मिलने के लिए ।

जिन्हें तो जानता तक नहीं था, मैं ...?
पर साल खत्म होते-होते अपनन-सा बिछुड़न दे गए ।

अजीब सी थी वह दुनिया, कोई सुबह तो कोई दोपहर में जगते थे,
बाथरूम जाने के लिए, हम हमेशा लड़ते थे ।

12th में था जब, मेहनतकश-मजदूरी ही था रास्ता,
पढ़ते-पढ़ते इंजीनियरिंग कॉलेज आने का और अच्छा नौकरी पाने का ।

पर पता ही न चला हम सभी को, की कब 4 साल गुजार गए,
हम इतने बड़े कब हो गए, छुटकन से बड़कन लोग बोल गए ।

लेकिन उन सालों में अजीब संस्कार हमें मिले,
किसी के पैंट उतारने का, किसी के गिरेहबान में झांकने का ।

ये हँसी मजाक था, जो क्लास बंक कर हम कर लिया करते थे,
कॉमन रूम में फ़िल्म कम ही चला करते थे ।

वो अजीब हालात थे, खाने के लिए हम मेस में लड़ा करते थे,
खाना मिल जाने पर, डस्टबिन में फेंका करते थे ।

क्लास की क्या  ? जब भी घंटी बजा करती थी, राम-रहीम याद आते थे,
वैसे न, तो कभी इन्सां मिले, न ही हनी..प्रीत ।

प्रोजेक्ट के नाम पर, बस पन्नों को हम भरा करते थे,
एग्जाम की सुबह micro कर लिया करते थे ।

यह अपना कॉलेज था, यहां सब माफ था,
अन्ना की अनशन को भी पार्टी में हम बदल दिया करते थे ।

कोई घास हमें नहीं देती थी, वैसे भी ...भला कोई क्यों दे घास...?
क्योंकि घास के नाम पर, यहां बस जंगल हुआ करता था ।

रिजल्ट की खबर मिलते ही, लालजी की थाली सजती थी,
मार्क्स पर चर्चा, गदहे ही किया करते थे ।

लालजी नाम आते ही, उनके परिवार याद आते हैं,
अपना खाना में हमें, प्रेम के गूढ़ अर्थ समझाते थे ।

Snapdeal का डिब्बा, न कभी हम भूला करते हैं,
ब्रूनी का ताजमहल, जो वहां सजा करता था ।

मुमताज, तो उन्हें न मिला...?
पर हमारी खुशियों में, वह खुश रहा करता था ।

याद आते है वो लम्हें, बीत जाने के बाद,
बस साथ रहते है फेसबुक और what's app का साथ ।

-- प्रधान प्रशासी सह संपादक ।

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1 comment:

  1. Byte SystemNovember 12, 2018

    Wah bhut badhiya

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