बचपन में दादाजी के मुखारविंद से सुना करता था--
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' की याद कर लेना ।"
कविहृदय प्रवीण जी की प्रस्तुत कविता एक नई खोज है । वे माँ की यादों में इस तरह खोये रहते हैं कि उन्हें कभी ऐसा लगता है कि शादी-विवाह कुछ नहीं ! कुछ है,तो सिर्फ बचपना क्योंकि किसी का कहना है ---
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' की याद कर लेना ।"
कविहृदय प्रवीण जी की प्रस्तुत कविता एक नई खोज है । वे माँ की यादों में इस तरह खोये रहते हैं कि उन्हें कभी ऐसा लगता है कि शादी-विवाह कुछ नहीं ! कुछ है,तो सिर्फ बचपना क्योंकि किसी का कहना है ---
"माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी ही सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी ही सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"
श्रीमान प्रवीण शुक्ला 'श्रावस्ती' |
बहुत याद आती माँ, तेरी तुझे,
बहु तेरी खिचड़ी खिलाती मुझे ।
बनाने में झंझट लगे रोटियां,
लाखों नखरे वो रोज दिखाती मुझे ।
जब भी मैं निकलता घर से कभी,
मां सगुन की दही थी खिलाती मुझे ।
अब, तो होती सुबह सिर्फ राशन की पर्ची,
मां तेरी बहु है थमाती मुझे ।
होगा तुमसा ना कोई जहां में कभी,
मां तेरी याद हर पल है आती मुझे ।
नमस्कार दोस्तों !
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