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1.21.2018

"पर, अपनी माँ ! बस, 'माँ' होती है" (माँ पर एक और कविता)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     21 January     कविता     No comments   

बचपन में दादाजी के मुखारविंद से सुना करता था--
"कभी अकेला हो और किसी न किसी प्रसंगश: या कारणश: भय व डर सताने लगे, तो अंतर्मन से 'माँ' की याद कर लेना ।" 
कविहृदय प्रवीण जी की प्रस्तुत कविता एक नई खोज है । वे माँ की यादों में इस तरह खोये रहते हैं कि उन्हें कभी ऐसा लगता है कि शादी-विवाह कुछ नहीं ! कुछ है,तो सिर्फ बचपना क्योंकि किसी का कहना है ---

"माँ तो माँ है,
सार्थ शमाँ है ।
'पड़ौस की आँटी'
चाहे हो कितनी ही सुंदर ?
पर, अपनी माँ ! बस, माँ होती है ।"

आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते है श्रीमान प्रवीण शुक्ला 'श्रावस्ती' की माँ पर अद्भुत कविता, आइये पढ़ते हैं..........

श्रीमान प्रवीण शुक्ला 'श्रावस्ती'


बहुत  याद आती माँ, तेरी तुझे,
बहु तेरी खिचड़ी खिलाती मुझे ।

बनाने  में  झंझट  लगे  रोटियां,
लाखों नखरे वो रोज दिखाती मुझे ।

जब भी मैं निकलता घर से कभी,
मां सगुन की दही थी खिलाती मुझे ।

अब, तो होती सुबह सिर्फ राशन की पर्ची,
 मां तेरी बहु है थमाती मुझे ।

होगा तुमसा ना कोई जहां में कभी,
मां तेरी याद हर पल है आती मुझे ।


नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।


        
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