दादूजी की आज पुण्यतिथि है, उनकी ज़िंदगानी हमेशा संघर्षों में व्यतीत हुआ ! उस समय उन्होंने अंग्रेजों की हुकूमत में भी न केवल उसे निडरतापूर्वक देश से भगाने का एकल और सामूहिक प्रयास किए, एतदर्थ उनपर लाठी और बेंत भी चला, इस बीच उनकी पढ़ाई भी जारी रही । उन्होंने तब हायर सेकेंडरी पास किया था, वह भी बढ़िया प्राप्तांकों के साथ ! आइये, आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, उनकी वे अनसुनी बातें, जो कभी उन्होंने अपने जैविक परिवार से शेयर किए थे.......
'जिन्होंने हमें हँसना सिखाया और रूला कर चले गये'
मेरे दादू आज से 12 साल पहले, इस "दुनिया" को छोड़कर ..., एक "अजीबो-गरीब" दुनिया में चले गए । जिस दुनिया का पता शायद ही किसी को हो !
नमन दादू !
दादू ! आप 1942 संग्राम से लेकर स्वतंत्रता, फिर जीवनपर्यंत संग्राम के सेनानी अभी भी हैं, क्योंकि "स्वतंत्र" लोगों की सांसे कभी रूकती नहीं । आप "सत्संगी" अभी भी हैं, क्योंकि सत्य कभी पराजित होती नहीं । आप परमाराध्य महर्षि मेंही महाराज के शिष्य हैं, क्योंकि गुरु-शिष्य की परम्परा भी कभी ख़त्म होती नहीं । भारत की सबसे प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका 'हंस' ने फरवरी, 2004 में मेरे दादाजी को 'आवरण पृष्ठ' पर जगह दिया है ।
आज दादू की पुण्यतिथि पर उनकी कहीं 'दो' बातें मुझे याद हो आई ।
वे अक्सर कहा करते थे ---
@ बीमार से अवश्य प्रेम करो, उनके बीमारियों से नहीं ।
@ दुनियाभर के सभी काम-धाम छोड़कर, प्रथमतः 'खाना' को प्राथमिकता देना चहिये, क्योंकि उसी खाने के पीछे ही इंसान काम करना सीखता है, लेकिन मानवता को छोड़कर कदापि खाना नहीं चाहिए, परंतु राष्ट्रसेवा से बढ़कर कोई नहीं ।
21 वीं सदी में भी परंपराएं "अजीब" रही है, जैसे हिन्दुओं में आग देने के बाद श्मशान घाट में अच्छे पकवान का खाना, उस समय मैं 11 साल का था और दादू के प्रिय और दुलारू पोता होने के कारण मुझे ही उन्होंने मुखाग्नि देने को कहा था और मैंने दिया भी, पर किसी इंसान के मुख में आग रखना, वो भी जिसे आप प्यार करते हो ....यह किस टाइप का धर्म है, रिवाज़ हैै, परम्परा व प्रथा है और इसेे कौन सी मानवता कहेंगे हम, यह प्रश्न मेरे मन में तब भी थे और अब भी है, दादू ।
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
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