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6.28.2017

"शववाहन की कमी से जूझता अस्पताल"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     28 June     फेसबुक डायरी     No comments   

क्या लाशें भी टूटती हैं ? 
आइये पढ़ते है -- मैसेंजर ऑफ ऑर्ट के संपादक की 'टूटती लाशें' पर लघु आलेख ।



हाल के दिनों में लोगों में और प्राइवेट गाड़ी के चालकों में कर्त्तव्य भावना खत्म-सी हो गई है और उनमें संवेदनहीनता कूट-कूट कर भर गया है । जिस गाड़ी अथवा टेम्पो आदि द्वारा गंभीर बीमार रोगियों को अस्पताल ले जाने पर गाड़ी चालक तो सहज तरीके से लेकर चले जाते हैं, किन्तु अस्पताल में उन रोगियों की मृत्यु पर वही चालक 'डेड बॉडी' को वापस घर ले जाने को ना-नुकुर करते हैं और शव को न भी ले जाते हैं । गत वर्ष उड़ीसा में एक पति ने अपनी मृत पत्नी को कंधे पर लादकर जिस भाँति से अस्पताल से 12 मील दूर ले गया और पीछे-पीछे उनकी नाबालिग बेटी मृतका की सामान लिए जा रही थी, भीड़ सिर्फ तमाशाई अंदाज़ में देखभर रहे थे । यह तो भला हो उस संवाददाता का, जिन्होंने शववाहन उपलब्ध करवाए । हम इतने असंवेदनशील क्यों हो गए हैं ? हमारी आंखों की पानी क्यों सूख गई है ? अगर सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में अंतिम वाहन व शववाहन की उपलब्धता रहे, तो शवों को असम्मानित होते देखा नहीं जा सकेगा ! सरकार को अस्पतालों में शववाहन की व्यवस्था तो की जानी चाहिए, साथ ही हममें खुद से सामाजिकता लाते हुए संवेदित बन ऐसे कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए, क्योंकि हर कुछ सरकार भरोसे संभव नहीं है ।
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