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4.20.2017

"जाति, जो नहीं जाती : तो क्या युद्ध अभी भी जारी है ?"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     20 April     समीक्षा     No comments   

सीखने की कोई उम्र नहीं होती, यही कारण है, कुछ ही लोग बुढ़ापे में भी ज्ञान प्राप्त कर ही लेते हैं और अधिकाँश तो बचपन या अन्य किसी उम्र में करते ही हैं, लेकिन इन सभी उम्रों के बीच भी वे फंसे रहते हैं.....एक अदृश्य दीवार की कैद में ! ज्ञान प्राप्त होने के बाद भी यह दीवार टूटती नहीं ! क्योंकि ज्ञान प्राप्ति कम , बकवास ज्यादा होती है । चूँकि न टूटने वाली यह दीवार जाति और धर्म की है तथा जाति के अंदर जाति की भी है , जाति जो सच में जाती नहीं है । आज इसी दीवार को तोड़ने के सोद्देश्यत: कवि अरविन्द भारती की अद्भुत कविता-संग्रह  'युद्ध अभी जारी है' की अद्भुत समीक्षा मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट ने प्राप्त की है, तो आइये पढ़ते हैं हम समीक्षक डॉ. शिव कुशवाहा 'शाश्वत'  की लाजवाब -समीक्षा  ........



दमित समाज के लिए मील का पत्थर है : युद्ध अभी जारी है

साहित्य मानव मन को उद्वेलित करने हेतु और मानव समाज को समय समय पर विचार करने के लिए सृजित होते रहता है और यह साहित्यिक-प्रक्रिया तब निरंतर चलती रहती है।  हिन्दी साहित्य के दलित विमर्श में अनेक कवियों ने सामाजिक परिवर्तन को इंगित करते हुए कालजयी लेखन किया है। इसी शृंखला में युवा कवि अरविन्द भारती का सद्य प्रकाशित काव्य संकलन 'युद्ध अभी जारी है' सामाजिक परिवर्तन का वृहद समर्थन करता है।
इस संकलन में 65 कविताएं हैं । प्रत्येक कविता नये धरातल पर अवतरित हुई है। कवि की यह रचनाएं स्वयं के गहरे अनुभव से समाज के लिए प्रश्नाकुल परिवेश तैयार करती हैं, जिनका जवाब आज भी सभ्य समाज के पास नहीं है। संकलन की पहली ही रचना जोरदार ढंग से जाति की संरचना पर करारा प्रहार करती है--

" कभी मेरे आगे /
कभी मेरे पीछे /
कभी साथ साथ चलती है /
मैं दो कदम बढाता हूं /
वो चार कदम चलती है /
जहां नहीं होता मौजूद /
वहां भी पहुंच जाती है / 
मुझ से पहले ही पहुंचती है / 
जाति मेरी"

कवि ने 'गुनहगार' रचना में वर्णव्यवस्था के नियंताओं से सीधे सीधे कहा है--

'माथे पे हमारे पूर्वजों के
कभी लिखा था तुमने
अछूत..
युग बदले, पीढ़ियाँ बदलीं
पर नहीं बदला वो शब्द
सिर्फ शब्द होता 
तो कब का मिट जाता
या फिर मिटा दिया जाता। '

रचनाकार कुत्सित जाति की पहचान को मिटाने के लिए संघर्षरत है, लेकिन समाज के तथाकथित उच्चवर्ण जाति से जोंक की तरह चिपके हुए हैं, वे अपनी जाति श्रेष्ठता का दम्भ गाहे बगाहे प्रदर्शित कर मानवता का उपहास उडाते हैं---

'उंची जाति कुटिल मुस्काऐं /
नीची जाति पै रोब दिखलाऐं /
उनको ईश्वर का भय दिखलाऐं /
पूर्व जन्मों का पाप बतलाऐं  /
नीची जाति चाहती /
ऊंची जाति से सम्मान /
पर अपने से नीची जात का / 
करती वो अपमान..'

भारतीय समाज के दमित लोगों का शोषण सबसे अधिक धर्म के नाम पर होता चला आ रहा है और यही धर्म मानवीय समानता का सबसे बडा शत्रु है, इसलिए रचनाकार इस धर्म रूपी पेड की जड़ पर मट्ठा डालकर नेस्तनाबूत करना चाहता है--

' धर्म के पेड पर/ 
उगती हैं जातियां/ 
तना,शाखाओं ,पत्तियों- सी/ 
फैलती हैं जातियां/ 
कितना भी काटो / 
शाखाओं को/ 
काटने से / 
नहीं कट पाती हैं जातियां/
करनी हैं अगर तुमको / 
खत्म ये जातियां/
जड़ में मट्ठा डाल/
उखाड़ फेकना होगा पेड़ को।'

दमित और शोषित समाज के ऐसे लोग जो आरक्षण के द्वारा सरकारी नौकरी पाकर अपने समाज के महापुरुष और संघर्ष करने वालों को भूल जाते हैं जिनकी बदौलत उन्हें नौकरी मिली है ऐसे लोगों के लिए कवि क्षुब्ध होकर लिखता है--

'सत्यनारायण की कथा कराए/ 
अखण्ड रामायण का पाठ पढ़वाए/ 
मनुस्मृति दहन याद नहीं / 
अपने महापुरुषों को भी भूल गया/ 
शिक्षा ले बैठा कुर्सी पर
अपनी बस्ती छोड गया/ 
बस टीवी, बीवी याद है उसको/ 
समाज की दशा भूल गया।'

कवि की दृष्टि में दमित समाज की दुर्दशा का कारण ईश्वर की अवधारणा भी है, ईश्वरवाद में सभी मनुष्यों को ईश्वर ने समान बनाया है, लेकिन भारतीय समाज में ईश्वरीय सिद्धांतों को धता बताते हुए कुछ शातिर लोगों ने मानव-मानव के बीच विभाजक रेखा खीचकर खुद को जन्मजात श्रेष्ठ घोषित कर लिया, इस बात से आहत होकर कवि  ईश्वर को चुनौती देता हुआ कहता है---

' तुम इतने छोटे क्यों हो ईश्वर ?/ 
क्यों नहीं थाम लेते हाथ/ 
मजलूमों का/ गरीबों का/ 
भूखों का/ 
बेसहारों का../ 
क्या तुम बूढे हो गये हो?/ 
मर गये हो?/ 
या फिर हो गए हो गुलाम/ 
चंद लोगों के ?'

समाज जाति और धर्म के नाम बँटा हुआ है । धर्म और जाति साथ-साथ चलते हैं।
मरने के बाद भी यह जाति मनुष्य का पीछा नहीं छोडती। इसी कुत्सित सत्य से रचनाकार अन्दर तक व्यथित होकर कह उठता है---

" जन्म पर नहीं है जोर किसी का/ 
थोप दिया जाता है धर्म/ 
पैदा होते ही/ 
बांध दिए जाते हैं घुंघरू/ 
जाति के/ 
बजता है कान फोडू संगीत उम्रभर।"

हमारी सामाजिक संरचना में नारी अस्मिता को बचाने के लिए न जाने कितनी संस्थाएं कार्यरत हैं लेकिन समाज के भूखे भेडिए आए दिन किसी न किसी नारी की अस्मिता को रौंद ही देते हैं ऐसे भेडियों के खात्में के लिए कवि की कलम हुंकार भरती है ---

"आखिर कब तक/ 
लटकाई जाएंगी रस्सी से/
 जलाई जाएंगी जिन्दा/ 
घुमाई जाएंगी निर्वस्त्र/ 
होंगी शिकार सामूहिक बलात्कार का/ 
आखिर कब तक/ सहोगी / 
रहोगी खामोश/ सुनो लडकियों / 
भूल गयी क्या तुम / 
फूलन देवी को/ 
याद है उसका बदला/ तो उठाओ बन्दूक/ 
मार दो गोली/ दुश्मन को।"

'युद्ध अभी जारी है ' काव्य संग्रह यद्यपि सामाजिक भावभूमि पर यथार्थ से उकेरी गयी कविताएं ही नहीं बल्कि आत्मपरकता से सम्पृक्त रचनाएं भी कवि के जीवन दर्शन को प्रस्तुत करती हैं --

" वक्त की उंगली थामे/ 
फिर उठा/ 
जख्म रिस रहे थे अभी/
और चलने लगा/ 
क्योंकि चलना ही जीवन है।"

काव्य संकलन की बीज रचना' युद्ध अभी जारी है" में समाज का वह नंगा सच है जो आए दिन हम सबके साथ घटित होता है। जाति की पहचान होते ही सभ्य समाज का वह मुखौटा उतर जाता है जो सबको समान होने का ढोंग रचता है। प्रगतिशील होने का कुचक्र भी सामने आ जाता है जब जाति की पहचान कर जाति आधारित व्यवहार करता है। जाति को तोडने का काम भारत के अनेक महापुरुषों ने किया लेकिन यह कुत्सित जाति अभी भी जिन्दा है और इस जिन्दा जाति के खिलाफ कवि ने अघोषित युद्ध छेड दिया है भले ही वह इस युद्ध में अकेला हो लेकिन वह इस युद्ध को जारी रखना चाहता है। कवि की यह जिजीविषा कृति और कवि दोनों को उदात्त बनाती है--

"जैसे ही पता चलती है/ 
जाति मेरी/ उनके चेहरे की रंगत/ 
डूबते सूरज की तरह/ 
खो जाती है क्षितिज में कहीं/ 
छा जाता है सन्नाटा/ 
ठीक तूफान आने के पहले की तरह/ 
टूटता है उम्मीदों का बांध/ 
बह जाती है योग्यता मेरी/ 
जैसे बहता है पानी/ दरिया में कहीं...
शुरु होता है एक अघोषित युद्ध/ 
वो सभी झुंड में हैं / 
और मैं अकेला/ युद्ध अभी जारी है.. ।"

आज के साहित्यिक माहौल में दलित साहित्य की उपस्थिति काबिलेगौर है। जहां वरिष्ठ दलित कवियों की तर्ज पर युवा कवि भी अपनी उपस्थिति जोरदार ढंग से कर रहे हैं । अरविन्द भारती दलित साहित्य के उभरते युवा कवि हैं । उनका पहले काव्य संग्रह ' युद्ध अभी जारी है' ने साहित्य के द्वार पर दस्तक दी है। यह दस्तक निश्चित ही बडे बडे साहित्यकारों के पास तक पहुंचेगी ,और यह कृति  साहित्यिक फलक में कालजयी बनेगी इसी कामना के साथ भाई अरविन्द भारती को बहुत बहुत बधाई..!

नमस्कार दोस्तों ! 


'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।

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