काम-त्रासद महिलाओं को उघाड़ती उपन्यास 'G-मेल एक्सप्रेस'
दुनिया में आते ही कोई नवजात शिशु 'आँ' लिए पहला शब्द 'माँ' ही बोलता है। कथाकारा अलका सिन्हा की बिलकुल टटका उपन्यास 'G-मेल एक्सप्रेस' पढ़ा । यह 'जी' व G यानि GOD और 'मेल' व Male यानि पुरुष । पहले-पहल तो लगा, ईश्वर यानि 'मेल' द्वारा रचित 'दुनिया' अब साइंसायी दुनिया की भूमिका में आ गयी है, जो 'नर-मादा' को संसर्ग में लाते हैं, परन्तु सच्चाई में G द्वारा F (फीमेल) को कामुक-संतुष्टि कराने की चाहत भर है यह सब !
G के रहस्य को जानने के लिए मैं 'G-मेल एक्सप्रेस' की लेखिका के पास सोशल मीडिया के माध्यम से पहुँचा, क्योंकि यह किताब शॉपिंग साईट पर उपलब्ध है, लेकिन मेरे गांव तक यह सेवा उपलब्ध नहीं है । ...तो पहुँचा श्रीमती अलका सिन्हा जी की इनबॉक्स में ! उपन्यास के बारे में काफी सुना था, सो मैंने उपन्यास का सार-अंश माँगा, ताकि कुछ अंश पढ़कर अपनी क्षुद्धा को शांत कर पाऊँ । परंतु व्यस्तता के कारण हो या अन्य कारणश: अलका जी जवाब नहीं दे पायी !
फ़रवरी-2017 में लगी 'पटना पुस्तक मेला' में पुस्तकों के बीच भ्रमण के क्रम में मैंने लगभग ₹7000 की पुस्तकें खरीदा, घर ने पैसे तो चिकित्सा-कार्य के लिए दिए थे, किन्तु जब नैनों के समक्ष मन-पसंद पुस्तकें तरंगायित हो जाय, तो मैं अपना स्वास्थ्य को भी दाँव पर लगा देता हूँ । 'जी-मेल एक्सप्रेस' भी इन क्रय किये पुस्तकों में टॉपमोस्ट में से है । जिसे मैंने 3 घंटे 19 मिनट 6 सेकंड में पढ़ डाला ।
बिंदास लेखिका ने इस उपन्यास की कहानी को रफ़्तार भरी ज़िन्दगीनामा से परिचित कराते हुए नीले बॉल पेन से अंग्रेजी में लिखा 'गुमनाम मुहब्बत' की कहानी मात्र 20 रुपये में नायक द्वारा क्रय किये पर्सनल कहलाने वाली डायरी के तमाम सफे तक ले जाती हैं और डायरी की हकीकत के साथ नायक की यादों को जोड़ती है, कहानी बढ़ती है, बढ़ती चली जाती है । पुरुषों के द्वारा निर्मित समाज में महिलाओं की हकीकत बयां करती हुई कि पुरुष-पात्र के माध्यम से महिला लेखिका द्वारा ज़िन्दगी की तमाम द्वन्द्व-पर्यावरण में 'फीमेल' की 'सेक्स-सन्तुष्टता' को द्रष्टव्य कराती हुई कि कभी बलात्कार को सही या भावनात्मक ठहराते हुए, हमें इंटरनेट की दुनिया की अन्तर्वासना-स्टोरीबाज़ी सुनाते हुए और लोगों से अवगत कराते हुए, फिर डायरी के पृष्ठों में घुमड़-घुमड़ते हुए Q (क्विना) की कहानियों के रूप में अपने-आप को खोजते हुए पुरुष-पात्र के रचनात्मक 'क्विना' से मुलाकात की रहस्यमयी कहानी पढ़ने को मिलता है ।
कहानी अब 'सोशल-मीडिया' की पोस्ट की तरह छोटी होती चली जा रही है, किन्तु यहाँ तो पूर्णिमा की चाँदनी फैलती गयी है, मदहोश करने वाली हवा बहने लगती है, पर अचानक मालूम पड़ता है कि इस चाँद में भी दाग है ! लेखिका 'नायक के अंतर्द्वंद्व' में फंसे देवेन या त्रिपाठी जी से GOOGLE बने धमेजा द्वारा देश-विदेश की यात्रा कराते हुए 'जिगोलो' बने नायक की निद्रा को आध्यात्मिक दुनिया की सैर कराते हुए 'G-मेल' का मतलब समझती है । संक्षिप्तश:, समाज का ध्यान 'मर्द-वेश्या' की तरफ ले जाती हुई पायी जाती है कि 'चाहत' पैसे का हो या कामुक-प्रवृत्ति का, परन्तु शोषण सिर्फ औरतों का नहीं, मर्दों का भी होता हैं । महिला उपन्यासकार ने मर्दवादी सोचने की साहस की है । भले और कोई इसे उपन्यास बिकने के सिंबल मान ले, पर है ऐसा नहीं ! लेखिका यहीं नहीं रूकती ! वो तो डायरी की धूमिल Q-R कोड को स्कैन करवाने तक पहुँच जाती हैं, कभी डॉक्टर के पास, तो कभी RTI को सही, तो कभी गलत कहलाने के प्रयास लिए, कभी सुखोई के रूप में अभिषेक द्वारा देशभक्ति में लीन नई यात्रा कराती हुई !
रफ़्तार भरी ज़िंदगी में दुनिया गोल है, टपोरी की तरह ! पारिवारिक-सामंजस्यता की यात्रा कराती हुई लेखिका हमें कभी शॉपिंग की नयी पद्धति से परिचय कराती हैं, तो डिजिटल-क्रान्ति की चर्चा करती हुई नायक बने देवेन साहब को टॉर्चर रूम की दुःख भरी यादों से बाहर लाने के लिए नारी-मदान्धता के प्रभाव से दर्द भरे सपनों को दूर कराती नजर आती हैं । नायिका के आने से नायक का दर्द ऐसे छूमंतर हो जाता है, जैसे:- चरमावस्था में पहुँचाकर कामुक-कहानियाँ भी अपने बोझिल-शब्दों को पढ़वाने के बावजूद पाठकों को रुष्ट नहीं करती हैं और लेखिका भी हमें इसी के प्रसंगश: रियल-दुनिया में लौटा लाती हैं !
G-मेल अपने सेंडर तक पहुँचते चला जाता है । अलका जी पुरुष-शोषण को रोकने के लिए डॉ. मधुकर द्वारा 'शोषण पर लड़कियों की तरह लड़कों के लिए' भी जागरूकता होना चाहिए -जैसे कदम उठाने की कोशिश करती नजर आती हैं । इसतरह से मैंने खुद महिला द्वारा पुरुषों पर हुए शोषण को रोकने के लिए माननीय PM अंकल से 'पुरुष आयोग' बनाने की चर्चा भी किया है ।
डॉ. साहब सुधार लाने के चक्कर में कब वे डॉ. मधुकर से मधुकोड़ा हो जाते हैं, मालूम ही नहीं चलता ! अरे, ये पॉलिटिक्स वाले कोड़ा साहब नहीं ! कहानी भागती चली जाती हैं, क्विना की हिंदी-रूपांतरित कविता द्वारा मन की बात को बतलाते हुए ! कभी समीर - 'हवा का झोंका' हो जाता है, तो कभी ऐसा लगता है कि 'निकिता तो आस-पास' ही मौजूद है, उनके दर्द तो वैसे ही है जैसे कि डॉ. साहब के उनके पहचान चिह्न से शुरू होकर जातिवाद पर 'नो-कमेंट' करते हुए 21 वीं सदी की 'माँ' के इस दर्द को पेश करने को लालायित कि 'बेटा 16 का हो गया है, पर कोई GF नहीं है !'
डायरी के लेखक को खोजते-खोजते कब नायक उनकी पृष्ठों में उभरे चरित्र को 'चरित' समझ लेते हैं और यह नीली रोशनी में उभरे 'हिप्पनो' को भी नहीं मालूम होता है । पर मालूम होता है, आज का वो सच जो 'मटूक-जुली' के अंतर्यात्रा को याद दिलाते हुए 'टीचर-स्टूडेंट' के रिश्ते को रूबी-मैम से जोड़ते हुए 'टीचर' की सच्चाई या वासना की सच्चाई पेश करती नजर आ रही होती हैं !
डायरी के पृष्ठों में उलझे 'कोड' अंत तक हमें बाँधे रखता है, पर कब डायरी नकली हो जाती है, मालूम नहीं पड़ता ! क्योंकि Q,R,K की समां जहाँ हमें बांधे रखता, लेकिन ध्यान से पढ़ेंगे तो 12 नंबर पेज पर ही आपको इस कहानी की झलक मिल जायेगी, परंतु Q कब C और P बन जाते हैं, यह भंडाफोड़ तो कहानी पढ़ने पर ही मालूम पड़ेगा ! ओह, C + P =Q बढ़िया समीकरण है ।
कहानी पढ़ने पर 'सत्यमेव-जयते' का वह एपिसोड बार-बार ध्यान में आता कि कैसे मौसी ने सगी बहन के बेटे के साथ यौन-शोषण किया करती थी ? कहानी आज की महिलाओं की 'हार्मोनिक' संतुष्टि की है, पर कहीं-कहीं ऐसा लगा कि यह लेखिका की अपनी अर्धसत्य कहानी तो नहीं ! कहना ज्यास्ती हो सकती है ! लेकिन सच कहूँ तो प्यार को खोजती और मादा तितलियों की मानिंद पुरुष 'फूल' पर मँडराती काम-त्रासद महिलाओं की अनोखी कहानी है 'जी-मेल एक्सप्रेस' ! पर पुरुषवादी दृष्टि से महिलाओं की वासनामयी-दुनिया से ऊपर की कहानी है यह !
पढ़ते-पढ़ते सूरज पाल चौहान की आत्मकथा की याद चिरस्मृति हो आयी कि किस तरह उनकी पत्नी उन्हें प्रताड़ित करती थी । ऐसे में नपुंसक और ठंडा मरद कह देना बिलकुल सरल होता है । बता दूँ, कथाकार श्रीमान् चौहान के सगे भतीजे से कालान्तर में श्रीमती चौहान शादी कर लेती हैं । चाची-भतीजा यानी माँ-बेटा.....! हम कहाँ जा रहे हैं ? इसे कौन-सी आज़ादी कहेंगे ? हाँ, इसे पढ़ना चाहिए, पाठ्यक्रम की भाँति !!
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
दुनिया में आते ही कोई नवजात शिशु 'आँ' लिए पहला शब्द 'माँ' ही बोलता है। कथाकारा अलका सिन्हा की बिलकुल टटका उपन्यास 'G-मेल एक्सप्रेस' पढ़ा । यह 'जी' व G यानि GOD और 'मेल' व Male यानि पुरुष । पहले-पहल तो लगा, ईश्वर यानि 'मेल' द्वारा रचित 'दुनिया' अब साइंसायी दुनिया की भूमिका में आ गयी है, जो 'नर-मादा' को संसर्ग में लाते हैं, परन्तु सच्चाई में G द्वारा F (फीमेल) को कामुक-संतुष्टि कराने की चाहत भर है यह सब !
G के रहस्य को जानने के लिए मैं 'G-मेल एक्सप्रेस' की लेखिका के पास सोशल मीडिया के माध्यम से पहुँचा, क्योंकि यह किताब शॉपिंग साईट पर उपलब्ध है, लेकिन मेरे गांव तक यह सेवा उपलब्ध नहीं है । ...तो पहुँचा श्रीमती अलका सिन्हा जी की इनबॉक्स में ! उपन्यास के बारे में काफी सुना था, सो मैंने उपन्यास का सार-अंश माँगा, ताकि कुछ अंश पढ़कर अपनी क्षुद्धा को शांत कर पाऊँ । परंतु व्यस्तता के कारण हो या अन्य कारणश: अलका जी जवाब नहीं दे पायी !
फ़रवरी-2017 में लगी 'पटना पुस्तक मेला' में पुस्तकों के बीच भ्रमण के क्रम में मैंने लगभग ₹7000 की पुस्तकें खरीदा, घर ने पैसे तो चिकित्सा-कार्य के लिए दिए थे, किन्तु जब नैनों के समक्ष मन-पसंद पुस्तकें तरंगायित हो जाय, तो मैं अपना स्वास्थ्य को भी दाँव पर लगा देता हूँ । 'जी-मेल एक्सप्रेस' भी इन क्रय किये पुस्तकों में टॉपमोस्ट में से है । जिसे मैंने 3 घंटे 19 मिनट 6 सेकंड में पढ़ डाला ।
बिंदास लेखिका ने इस उपन्यास की कहानी को रफ़्तार भरी ज़िन्दगीनामा से परिचित कराते हुए नीले बॉल पेन से अंग्रेजी में लिखा 'गुमनाम मुहब्बत' की कहानी मात्र 20 रुपये में नायक द्वारा क्रय किये पर्सनल कहलाने वाली डायरी के तमाम सफे तक ले जाती हैं और डायरी की हकीकत के साथ नायक की यादों को जोड़ती है, कहानी बढ़ती है, बढ़ती चली जाती है । पुरुषों के द्वारा निर्मित समाज में महिलाओं की हकीकत बयां करती हुई कि पुरुष-पात्र के माध्यम से महिला लेखिका द्वारा ज़िन्दगी की तमाम द्वन्द्व-पर्यावरण में 'फीमेल' की 'सेक्स-सन्तुष्टता' को द्रष्टव्य कराती हुई कि कभी बलात्कार को सही या भावनात्मक ठहराते हुए, हमें इंटरनेट की दुनिया की अन्तर्वासना-स्टोरीबाज़ी सुनाते हुए और लोगों से अवगत कराते हुए, फिर डायरी के पृष्ठों में घुमड़-घुमड़ते हुए Q (क्विना) की कहानियों के रूप में अपने-आप को खोजते हुए पुरुष-पात्र के रचनात्मक 'क्विना' से मुलाकात की रहस्यमयी कहानी पढ़ने को मिलता है ।
कहानी अब 'सोशल-मीडिया' की पोस्ट की तरह छोटी होती चली जा रही है, किन्तु यहाँ तो पूर्णिमा की चाँदनी फैलती गयी है, मदहोश करने वाली हवा बहने लगती है, पर अचानक मालूम पड़ता है कि इस चाँद में भी दाग है ! लेखिका 'नायक के अंतर्द्वंद्व' में फंसे देवेन या त्रिपाठी जी से GOOGLE बने धमेजा द्वारा देश-विदेश की यात्रा कराते हुए 'जिगोलो' बने नायक की निद्रा को आध्यात्मिक दुनिया की सैर कराते हुए 'G-मेल' का मतलब समझती है । संक्षिप्तश:, समाज का ध्यान 'मर्द-वेश्या' की तरफ ले जाती हुई पायी जाती है कि 'चाहत' पैसे का हो या कामुक-प्रवृत्ति का, परन्तु शोषण सिर्फ औरतों का नहीं, मर्दों का भी होता हैं । महिला उपन्यासकार ने मर्दवादी सोचने की साहस की है । भले और कोई इसे उपन्यास बिकने के सिंबल मान ले, पर है ऐसा नहीं ! लेखिका यहीं नहीं रूकती ! वो तो डायरी की धूमिल Q-R कोड को स्कैन करवाने तक पहुँच जाती हैं, कभी डॉक्टर के पास, तो कभी RTI को सही, तो कभी गलत कहलाने के प्रयास लिए, कभी सुखोई के रूप में अभिषेक द्वारा देशभक्ति में लीन नई यात्रा कराती हुई !
रफ़्तार भरी ज़िंदगी में दुनिया गोल है, टपोरी की तरह ! पारिवारिक-सामंजस्यता की यात्रा कराती हुई लेखिका हमें कभी शॉपिंग की नयी पद्धति से परिचय कराती हैं, तो डिजिटल-क्रान्ति की चर्चा करती हुई नायक बने देवेन साहब को टॉर्चर रूम की दुःख भरी यादों से बाहर लाने के लिए नारी-मदान्धता के प्रभाव से दर्द भरे सपनों को दूर कराती नजर आती हैं । नायिका के आने से नायक का दर्द ऐसे छूमंतर हो जाता है, जैसे:- चरमावस्था में पहुँचाकर कामुक-कहानियाँ भी अपने बोझिल-शब्दों को पढ़वाने के बावजूद पाठकों को रुष्ट नहीं करती हैं और लेखिका भी हमें इसी के प्रसंगश: रियल-दुनिया में लौटा लाती हैं !
G-मेल अपने सेंडर तक पहुँचते चला जाता है । अलका जी पुरुष-शोषण को रोकने के लिए डॉ. मधुकर द्वारा 'शोषण पर लड़कियों की तरह लड़कों के लिए' भी जागरूकता होना चाहिए -जैसे कदम उठाने की कोशिश करती नजर आती हैं । इसतरह से मैंने खुद महिला द्वारा पुरुषों पर हुए शोषण को रोकने के लिए माननीय PM अंकल से 'पुरुष आयोग' बनाने की चर्चा भी किया है ।
डॉ. साहब सुधार लाने के चक्कर में कब वे डॉ. मधुकर से मधुकोड़ा हो जाते हैं, मालूम ही नहीं चलता ! अरे, ये पॉलिटिक्स वाले कोड़ा साहब नहीं ! कहानी भागती चली जाती हैं, क्विना की हिंदी-रूपांतरित कविता द्वारा मन की बात को बतलाते हुए ! कभी समीर - 'हवा का झोंका' हो जाता है, तो कभी ऐसा लगता है कि 'निकिता तो आस-पास' ही मौजूद है, उनके दर्द तो वैसे ही है जैसे कि डॉ. साहब के उनके पहचान चिह्न से शुरू होकर जातिवाद पर 'नो-कमेंट' करते हुए 21 वीं सदी की 'माँ' के इस दर्द को पेश करने को लालायित कि 'बेटा 16 का हो गया है, पर कोई GF नहीं है !'
डायरी के लेखक को खोजते-खोजते कब नायक उनकी पृष्ठों में उभरे चरित्र को 'चरित' समझ लेते हैं और यह नीली रोशनी में उभरे 'हिप्पनो' को भी नहीं मालूम होता है । पर मालूम होता है, आज का वो सच जो 'मटूक-जुली' के अंतर्यात्रा को याद दिलाते हुए 'टीचर-स्टूडेंट' के रिश्ते को रूबी-मैम से जोड़ते हुए 'टीचर' की सच्चाई या वासना की सच्चाई पेश करती नजर आ रही होती हैं !
डायरी के पृष्ठों में उलझे 'कोड' अंत तक हमें बाँधे रखता है, पर कब डायरी नकली हो जाती है, मालूम नहीं पड़ता ! क्योंकि Q,R,K की समां जहाँ हमें बांधे रखता, लेकिन ध्यान से पढ़ेंगे तो 12 नंबर पेज पर ही आपको इस कहानी की झलक मिल जायेगी, परंतु Q कब C और P बन जाते हैं, यह भंडाफोड़ तो कहानी पढ़ने पर ही मालूम पड़ेगा ! ओह, C + P =Q बढ़िया समीकरण है ।
कहानी पढ़ने पर 'सत्यमेव-जयते' का वह एपिसोड बार-बार ध्यान में आता कि कैसे मौसी ने सगी बहन के बेटे के साथ यौन-शोषण किया करती थी ? कहानी आज की महिलाओं की 'हार्मोनिक' संतुष्टि की है, पर कहीं-कहीं ऐसा लगा कि यह लेखिका की अपनी अर्धसत्य कहानी तो नहीं ! कहना ज्यास्ती हो सकती है ! लेकिन सच कहूँ तो प्यार को खोजती और मादा तितलियों की मानिंद पुरुष 'फूल' पर मँडराती काम-त्रासद महिलाओं की अनोखी कहानी है 'जी-मेल एक्सप्रेस' ! पर पुरुषवादी दृष्टि से महिलाओं की वासनामयी-दुनिया से ऊपर की कहानी है यह !
पढ़ते-पढ़ते सूरज पाल चौहान की आत्मकथा की याद चिरस्मृति हो आयी कि किस तरह उनकी पत्नी उन्हें प्रताड़ित करती थी । ऐसे में नपुंसक और ठंडा मरद कह देना बिलकुल सरल होता है । बता दूँ, कथाकार श्रीमान् चौहान के सगे भतीजे से कालान्तर में श्रीमती चौहान शादी कर लेती हैं । चाची-भतीजा यानी माँ-बेटा.....! हम कहाँ जा रहे हैं ? इसे कौन-सी आज़ादी कहेंगे ? हाँ, इसे पढ़ना चाहिए, पाठ्यक्रम की भाँति !!
-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।
0 comments:
Post a Comment