यद्यपि देश का एक वर्ग 'तलाक-तलाक-तलाक' के परम्पराई logo से पीड़ित हैं , तथापि परंपरा इंसान के सहूलियत के लिए बनाया गया है । अगर यह परम्परा 'रिश्तों' में दरार ला दे, तब ऐसी परम्परा को तोड़ देना चाहिए , जैसे- सर्दी में दही खाने से जुकाम लग ही जाती है, तो हम खाँसी-जुकाम से बचने के लिए सर्दी के दिनों में दही खाने की मनाही करते हैं । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है -- इसी तलाक रूपी परंपरा के बाद क्या तलाकशुदा 'पति-पत्नी' का रिश्ता मिलने पर वही रहता है या बदल जाता है, जानने के लिए यह पढ़ना ही पड़ेगा । आपको सुश्री जाह्नवी शर्मा की प्रस्तुत कहानी --
यह अदालत इस तलाक़ को मंज़ूर करती है.”
जज साहब की इस घोषणा ने कोर्ट में खड़े अभिनव और रुचिका के चेहरों की चमक धूमिल कर दी. दोनों की ज़िंदगी का फैसला हो चुका था. दोनों अब विवाह बंधन से मुक्त थे, लेकिन यह उनकी ख़ुशी का कारण था या दुख का, कहना मुश्किल था. उनके रिश्तेदार और एडवोकेट प्रसन्न मुद्रा में विजयी मुस्कान के साथ कोर्ट परिसर से बाहर आ गए. अभिनव का दिल टूट चुका था. भारी क़दमों से चलता हुआ वह बाहर कॉफी हाउस में जा बैठा. रुचिका भी स्कूटी पर सवार होकर जाने लगी. उसका चेहरा भावहीन था, जिसे प़ढ़ने में वह असफल रहा.
जीवन के ऐसे क्षण बहुत विचित्र होते हैं, जब हार-जीत को समझना ही कठिन हो जाता है. दोनों परिवारों के रिश्तेदार जा चुके थे. दोनों एडवोकेट जो कोर्ट में एक-दूसरे से बेइंतहा झगड़ रहे थे, अब एक-दूसरे का हाथ पकड़े प्रेम से चाय पी रहे थे. किन की ज़िंदगी टूटी, किन के सपने बिखरे, किसी को इससे कोई मतलब नहीं था. सभी रिश्तेदार और परिजन अपनी आन-शान पर आई तोहमत को तलाक़ रूपी परिणाम में बदलकर अब रुख़सत हो चुके थे, अब उनकी दख़लंदाज़ी की कोई और संभावना नहीं बची थी.
रुचिका अब उसके सामने से गुज़र रही थी. एक नज़र उसने अभिनव को देखा. दोनों ठिठके भी, लेकिन शायद अहं की दीवारें भावनाओं से ज़्यादा मज़बूत थीं. वह स्पीड बढ़ाकर निकल गई. उसका आक्रोश शायद स्कूटी की स्पीड पर निकल रहा था, तभी तेज़ कर्कश आवाज़ गूंजी और अभिनव ने रुचिका की स्कूटी को सामने से आती कार से टकराते देखा. वह दौड़ पड़ा, रुचिका सड़क पर बेसुध पड़ी थी. सिर से बहते खून को देखकर वह घबरा गया. वो फ़ौरन उसे उठाकर ऑटो से अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा. रुचिका की आंखें मुंदती जा रही थीं. अभिनव का डर बढ़ता जा रहा था.
अस्पताल में उसका इलाज शुरू हो गया, लेकिन उसे इस हालत में छोड़कर वह जाने को तैयार नहीं था. नियति के खेल भी कितने अजीब होते हैं. इंसान जब क़रीब हो, तो दूर हो जाते हैं और दूर रहने पर मुहर लग जाए, तो नज़दीक आना संयोग बन जाता है. ज़्यादा दुखद पहलू तो यह था कि एक्सीडेंट की ख़बर उसके भाई-भाभी को मिल चुकी थी, लेकिन अभी तक दोनों का अस्पताल में आगमन नहीं हो पाया था. खून के रिश्ते अक्सर विपरीत अनुभव देते हैं. रुचिका के माता-पिता तो थे नहीं, बस भाई और भाभी थे. भाभी सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट से कम नहीं थी. दूसरे रुचिका के बड़े जीजा भी कुछ ज़्यादा ही समझदार थे. हक़ीक़त यह थी कि पीहर में उन दोनों की ही चलती थी, जिनकी सोच में भावनाओं से ज़्यादा जोड़-तोड़ के कारनामे छुपे होते थे.
रुचिका को होश आ गया था. वह असमंजस भाव से बोली, “आप! यहां…?”
“क्यों, मुझे यहां नहीं होना चाहिए था?” दुखी स्वर में अभिनव बोला.
“आप जीत गए… मैं हार गई… इस शादी से मुक्त हो गए आप… एक चरित्रहीन महिला के साथ यहां आपको और समय बर्बाद नहीं करना चाहिए अभिनव.”
“रुचिका प्लीज़! पहले अपने आपको देखो. मैं क्रिमिनल, नालायक, दहेज का लोभी, तुम्हें टॉर्चर करनेवाला… अब तुम मुक्त हो गई मुझसे. स्वतंत्र रहो, जैसा मन करे, ख़ुशियों को महसूस करना अब.”
रुचिका ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ समय ऐसे ही निस्तब्धता में निकल गया. फिर धीमे स्वर में बोली, “पैर का ऑपरेशन नहीं करवाया ना आपने?”
“नहीं, अब दर्द महसूस नहीं होता मुझे.” अभिनव शांत स्वर में बोला.
“क्यों? मैंने क़सम दिलाई थी अपनी, वो तो मान लेते.”
“मुझे ऑपरेशन से भी बड़ा काम करना था रुचिका.”
“आप कब समझोगे? अपने लिए भी जीना सीखो. सबका ख़्याल, लेकिन ख़ुद..?” उदास रुचिका ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया.
“नहीं, अगर ख़्याल रखता, तो तुम्हें यूं न खोता. एक हारा हुआ इंसान हूं मैं.”
“ऐसा नहीं कहते अभिनव, शायद मेरी नियति ही ऐसी थी.”
माहौल बहुत गंभीर हो गया था. अभिनव रुचिका की आंखों में आए आंसुओं को पोंछ रहा था.
“सुनो! आप मुझे वो कोर्ट डिक्रीवाले छह लाख रुपए मत देना.”
“अरे नहीं, वो तो मैं ज़रूर चुकाऊंगा तुम्हें, चाहे ख़ुद को बेचना ही क्यों न पड़े.” अभिनव दृढ़ स्वर में बोला.
“प्लीज़ अभिनव… मुझे नहीं लेने पैसे.”
“क्यों? अब क्या हुआ? कोर्ट में तो तुम्हारा वकील मुझे असक्षम साबित करने पर तुला था, तुम्हारा ख़्याल रखने में नाक़ाबिल…” अभिनव के स्वर में आक्रोश उभर रहा था.
“मुझे अब आत्मनिर्भर बनना है. कोई रख-रखाव, कोई ज़िम्मेदारी किसी और की नहीं.” रुचिका गंभीर हो गई.
“नहीं रुचिका, तुम पैसे ले लेना. मैं नहीं चाहता तुम अब दर-दर की ठोकरें खाओ. भइया-भाभी के आगे हाथ फैलाओ.” रुचिका का चेहरा मुरझा गया. अभिनव ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था.
कितना भी दिखावा करे, लेकिन हक़ीक़त यही थी. उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी. तभी डॉक्टर चेकअप के लिए आ गए. अभिनव उनसे रुचिका की हालत जानने को बेक़रार था. डॉक्टर ने मीठी झिड़की देते हुए कहा, “मिस्टर, अपनी वाइफ का ख़्याल रखो, बच ही गई आज वरना.” अभिनव को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या बोले?
पिछले दो साल से दोनों अलग रह रहे थे. तलाक़ की पहल रुचिका की ओर से हुई थी. इसमें उसकी भाभी और जीजा की मुख्य भूमिका थी, जिनकी सोच अभिनव से कभी मेल नहीं खाई. सच तो यह था कि वह आज भी उसे दिल से चाहता था. तलाक़ को रोकने के लिए उसने कई बार प्रयास भी किया, लेकिन बातचीत या संपर्क स्थापित ही नहीं हो पाया. कोर्ट में भी दोनों बोलने को हुए, लेकिन भाभी दीवार की तरह हमेशा बीच में खड़ी मिली. डॉक्टर जा चुके थे.
रुचिका फिर से बोलने लगी, “आप घर जाइए प्लीज़. आपकी मम्मी ख़ुशख़बरी सुनने को तड़प रही होंगी.”
“तुम्हें इस हाल में छोड़कर कैसे जा सकता हूं?” दुखी मन से अभिनव बोला.
“अरे! अब हमारा रिश्ता ही क्या रह गया है? एक मुहर ने तुम्हें आज़ाद कर दिया है.”
“तुम मुझे ही दोष क्यों दे रही हो? तलाक़ के पेपर्स तो तुम्हीं ने भेजे थे.”
“चलो छोड़ो, अब सब बदल गया है. अलग रास्ते, नई ज़िंदगी, इसलिए फॉर्मैलिटी छोड़ो.” रुचिका की हंसी के पीछे का दर्द साफ़ झलक रहा था.
“एक बात पूछूं? क्या तुम्हें सच में लगता है कि मेरे किसी और से प्रेम संबंध थे?” अभिनव ने उदास स्वर में पूछा.
“नहीं, मैं जानती हूं आप ऐसे नहीं हो.”
“तो फिर तुमने कोर्ट में मेरे लिए ऐसी बातें क्यों कहीं?”
“इसलिए ताकि आप मुझसे पीछा छुड़ा सको. आपके घरवाले यही तो चाहते थे कि मैं आपकी ज़िंदगी से दूर हो जाऊं.”
अभिनव कुछ और बोल पाता, उससे पहले ही रुचिका के भाई-भाभी दनदनाते हुए आ पहुंचे. भाई अभिनव पर गरजने लगा, “मिस्टर, अब क्या जान लेकर ही मानोगे मेरी बहन की?”
अभिनव खून का घूंट पीकर रह गया. वहां हंगामा खड़ा करना व्यर्थ था. भाई रुचिका को समझा रहा था कि सब अभिनव का ही किया धरा है. वो बदला लेने के लिए उसकी जान तक ले सकता है. रुचिका अब और चुप नहीं रख सकी, “प्लीज़, मुझे अकेला छोड़ दो. मैं अब जीना नहीं चाहती.” अभिनव का वहां रहना अब और संभव नहीं था.
घर पहुंचते ही उसे एक और झटका लगा. ड्रॉइंग रूम में बहन-बहनोई वगैरह सब जीत का जश्न मना रहे थे. टेबल पर मिठाई सजी थी. मानव मन की ऐसी विचित्रता पर उसे कोफ़्त होने लगी. क्या इंसान इतना असंवेदनशील हो सकता है? व्यथित मन से वह अभी भी अपनी जीत-हार को समझने में लगा था.
रात के नौ बज रहे थे. बिस्तर पर पड़ा अभिनव करवटें बदल रहा था. उसे आज जीवन का कड़वा सच महसूस हो रहा था. रिश्ते की अहमियत तभी समझ आती है, जब सब कुछ ध्वस्त हो जाता है. रुचिका दो साल पहले घर छोड़कर जा चुकी थी, पर एक उम्मीद थी कि वो वापस ज़रूर आएगी, लेकिन आज कोर्ट की मुहर ने वह उम्मीद भी ख़त्म कर दी थी. उसकी आंखें नम हो गईं. आलमारी में आज भी रुचिका की कुछ साड़ियां, कपड़े रखे थे, जिन्हें अभिनव ने स्मृतियों की धरोहर समझकर सहेज रखा था. रुचिका का अक्स अब ज़ेहन से हटने को तैयार नहीं था. भले ही वह कड़वा बोलती थी, लेकिन उसकी हर ज़रूरत को बिना कहे, समय से पहले समझ लेना उसकी ख़ूबी थी. नींद कोसों दूर थी. उसे बीते पांच वर्षों का घटनाक्रम याद आने लगा.
बिना मां-बाप की रुचिका का रिश्ता आते ही घर में भूचाल आया था, लेकिन उसकी फोटो ने अभिनव का दिल जीत लिया था. सुंदर-सुशील और ज़माने की सताई-सी दबी-छुपी छवि को अभिनव ने आंखों ही आंखों में पढ़ लिया था. जब वह उसे देखने गया, तब गंभीर मूरत की तरह बैठी रुचिका की आंखों ने बहुत कुछ बयां कर दिया था. उसमें अन्य लड़कियों जैसा उमंग और जोश नज़र नहीं आया था. उसके एक कथन ‘आपको जीवन में मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं मिलेगी’ ने अभिनव का दिल जीत लिया था. इस एक पंक्ति ने ही शादी का फैसला कर दिया था.
ससुराल में रुचिका ने अपने वायदे को पूरी तरह निभाया, लेकिन शायद परिस्थितियों के साथ वह समायोजन नहीं कर पाई. अम्मा गाहे-बगाहे उसे कोसने से बाज़ न आतीं. फिर जब छोटी बहू अमीर घराने से आ गई, तो रुचिका का जीवन और कठिन हो गया. अभिनव के पास कोई स्थायी रोज़गार नहीं था, जबकि छोटा भाई सीए बन चुका था. भाई की बड़ी आमदनी ने अभिनव को बड़े से छोटा बना दिया और रुचिका को और ज़्यादा महत्वहीन.
वह टूटती चली गई. तीन साल ऐसे ही किचकिच में बीत गए और एक दिन अभिनव की अनुपस्थिति में उसके भाई और जीजा उसे पीहर छोड़ गए. अब बात मान-सम्मान और अहं में फंस गई. जिन्हें अपने जीवन का फैसला करना था, वो अन्य लोगों के अभिमान में उलझकर रह गए. अभिनव ने पहल भी की, लेकिन सामर्थ्यहीन होकर उसने भी घुटने टेक दिए. रुचिका शायद इतनी निराश हो चुकी थी कि अब ससुराल में उसे कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही थी.
अचानक मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर रुचिका का नाम डिस्प्ले हुआ. अभिनव ने तपाक से कॉल रिसीव किया. रुचिका भर्राई आवाज़ में बोल रही थी, “भइया ने बहुत ग़लत कहा आपके लिए, उनकी तरफ़ से मैं माफ़ी मांगती हूं.”
“छोड़ो ये सब… कैसी तबीयत है अब? कौन है तुम्हारे पास अस्पताल में?” अभिनव ने पूछा.
“कोई नहीं है.”
“अकेली हो? खाना खाया या नहीं?”
“नहीं. इच्छा नहीं खाने की.”
“हद करती हो. रुको, मैं आता हूं.”
“अरे नहीं, आप परेशान न हों.”
“पागल हो, रात में तबीयत बिगड़ गई तो?”
“कुछ नहीं बिगड़ेगा अभिनव. मौत मेरे नसीब में नहीं.”
“प्लीज़ रुचिका, ऐसी बातें मत करो, मैं अभी भी तुमसे बहुत प्यार करता हूं.”
अभिनव ने एक पल की भी देरी किए बिना अस्पताल का रुख किया. थोड़ी देर में वो रुचिका के सामने था. होटल से उसने खाना भी पैक करवा लिया था. रुचिका के चेहरे पर चमक साफ़ दिख रही थी.
“मुझे पता था, आप ज़रूर आओगे.” “लो, खाना खाओ पहले. कैसा हाल बना लिया है तुमने?” अभिनव लाड़ से बोला.
“नहीं, हालत तो आपकी ज़्यादा ख़राब है. दवा नहीं लेते आप?”
“अरे! दवा वगैरह सब लेता हूं. पैसे भी हैं अब. चार लाख जमा कर लिए हैं. वो तुम ले लेना.”
रुचिका उसे निहार रही थी. भारतीय पति-पत्नी का संबंध सदैव अप्रचारित क़िस्म का होता है. ज़रूरत के समय यह ज़्यादा प्रगाढ़ साबित होता है. रुचिका हाथ धोना चाहती थी. अभिनव ने उसे सहारा देकर उठाया और वॉशरूम की ओर ले जाने लगा. कुछ देर बाद दोनों खाना खाने लगे. मनपसंद सब्ज़ियां देखकर रुचिका पूछ बैठी, “आपको अब भी याद है मुझे क्या पसंद है?”
“क्यों, तुम्हें क्या लगता है कि मैं तुम्हें भूल सकता हूं?” अभिनव ने भावपूर्ण स्वर में पूछा. रुचिका मौन रही. दोनों खाना खाने लगे. अभिनव ने उसे सहारा दे रखा था. सहारा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक, जिसकी ज़रूरत प्राय: सभी को रहती है. कुछ पल की मौन स्तब्धता के बाद अभिनव बोला, “रुचिका, मेरी एक बात मानोगी?”
“क्या?” रुचिका के स्वर में उम्मीद की झलक महसूस हो रही थी.
“वापस चलो तुम. मुझे तुम्हारी ज़रूरत है.”
रुचिका के मुंह से शब्द उच्चारित नहीं हो रहे थे. उसका सिर अभिनव के सीने से सट गया. अभिनव ने उसे बांहों में भर लिया. पूर्व में हुई ग़लतियों को दोनों ने समय रहते सुधार लिया था.
'मैकेनिकल तलाक'
यह अदालत इस तलाक़ को मंज़ूर करती है.”
जज साहब की इस घोषणा ने कोर्ट में खड़े अभिनव और रुचिका के चेहरों की चमक धूमिल कर दी. दोनों की ज़िंदगी का फैसला हो चुका था. दोनों अब विवाह बंधन से मुक्त थे, लेकिन यह उनकी ख़ुशी का कारण था या दुख का, कहना मुश्किल था. उनके रिश्तेदार और एडवोकेट प्रसन्न मुद्रा में विजयी मुस्कान के साथ कोर्ट परिसर से बाहर आ गए. अभिनव का दिल टूट चुका था. भारी क़दमों से चलता हुआ वह बाहर कॉफी हाउस में जा बैठा. रुचिका भी स्कूटी पर सवार होकर जाने लगी. उसका चेहरा भावहीन था, जिसे प़ढ़ने में वह असफल रहा.
जीवन के ऐसे क्षण बहुत विचित्र होते हैं, जब हार-जीत को समझना ही कठिन हो जाता है. दोनों परिवारों के रिश्तेदार जा चुके थे. दोनों एडवोकेट जो कोर्ट में एक-दूसरे से बेइंतहा झगड़ रहे थे, अब एक-दूसरे का हाथ पकड़े प्रेम से चाय पी रहे थे. किन की ज़िंदगी टूटी, किन के सपने बिखरे, किसी को इससे कोई मतलब नहीं था. सभी रिश्तेदार और परिजन अपनी आन-शान पर आई तोहमत को तलाक़ रूपी परिणाम में बदलकर अब रुख़सत हो चुके थे, अब उनकी दख़लंदाज़ी की कोई और संभावना नहीं बची थी.
रुचिका अब उसके सामने से गुज़र रही थी. एक नज़र उसने अभिनव को देखा. दोनों ठिठके भी, लेकिन शायद अहं की दीवारें भावनाओं से ज़्यादा मज़बूत थीं. वह स्पीड बढ़ाकर निकल गई. उसका आक्रोश शायद स्कूटी की स्पीड पर निकल रहा था, तभी तेज़ कर्कश आवाज़ गूंजी और अभिनव ने रुचिका की स्कूटी को सामने से आती कार से टकराते देखा. वह दौड़ पड़ा, रुचिका सड़क पर बेसुध पड़ी थी. सिर से बहते खून को देखकर वह घबरा गया. वो फ़ौरन उसे उठाकर ऑटो से अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा. रुचिका की आंखें मुंदती जा रही थीं. अभिनव का डर बढ़ता जा रहा था.
अस्पताल में उसका इलाज शुरू हो गया, लेकिन उसे इस हालत में छोड़कर वह जाने को तैयार नहीं था. नियति के खेल भी कितने अजीब होते हैं. इंसान जब क़रीब हो, तो दूर हो जाते हैं और दूर रहने पर मुहर लग जाए, तो नज़दीक आना संयोग बन जाता है. ज़्यादा दुखद पहलू तो यह था कि एक्सीडेंट की ख़बर उसके भाई-भाभी को मिल चुकी थी, लेकिन अभी तक दोनों का अस्पताल में आगमन नहीं हो पाया था. खून के रिश्ते अक्सर विपरीत अनुभव देते हैं. रुचिका के माता-पिता तो थे नहीं, बस भाई और भाभी थे. भाभी सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट से कम नहीं थी. दूसरे रुचिका के बड़े जीजा भी कुछ ज़्यादा ही समझदार थे. हक़ीक़त यह थी कि पीहर में उन दोनों की ही चलती थी, जिनकी सोच में भावनाओं से ज़्यादा जोड़-तोड़ के कारनामे छुपे होते थे.
रुचिका को होश आ गया था. वह असमंजस भाव से बोली, “आप! यहां…?”
“क्यों, मुझे यहां नहीं होना चाहिए था?” दुखी स्वर में अभिनव बोला.
“आप जीत गए… मैं हार गई… इस शादी से मुक्त हो गए आप… एक चरित्रहीन महिला के साथ यहां आपको और समय बर्बाद नहीं करना चाहिए अभिनव.”
“रुचिका प्लीज़! पहले अपने आपको देखो. मैं क्रिमिनल, नालायक, दहेज का लोभी, तुम्हें टॉर्चर करनेवाला… अब तुम मुक्त हो गई मुझसे. स्वतंत्र रहो, जैसा मन करे, ख़ुशियों को महसूस करना अब.”
रुचिका ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ समय ऐसे ही निस्तब्धता में निकल गया. फिर धीमे स्वर में बोली, “पैर का ऑपरेशन नहीं करवाया ना आपने?”
“नहीं, अब दर्द महसूस नहीं होता मुझे.” अभिनव शांत स्वर में बोला.
“क्यों? मैंने क़सम दिलाई थी अपनी, वो तो मान लेते.”
“मुझे ऑपरेशन से भी बड़ा काम करना था रुचिका.”
“आप कब समझोगे? अपने लिए भी जीना सीखो. सबका ख़्याल, लेकिन ख़ुद..?” उदास रुचिका ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया.
“नहीं, अगर ख़्याल रखता, तो तुम्हें यूं न खोता. एक हारा हुआ इंसान हूं मैं.”
“ऐसा नहीं कहते अभिनव, शायद मेरी नियति ही ऐसी थी.”
माहौल बहुत गंभीर हो गया था. अभिनव रुचिका की आंखों में आए आंसुओं को पोंछ रहा था.
“सुनो! आप मुझे वो कोर्ट डिक्रीवाले छह लाख रुपए मत देना.”
“अरे नहीं, वो तो मैं ज़रूर चुकाऊंगा तुम्हें, चाहे ख़ुद को बेचना ही क्यों न पड़े.” अभिनव दृढ़ स्वर में बोला.
“प्लीज़ अभिनव… मुझे नहीं लेने पैसे.”
“क्यों? अब क्या हुआ? कोर्ट में तो तुम्हारा वकील मुझे असक्षम साबित करने पर तुला था, तुम्हारा ख़्याल रखने में नाक़ाबिल…” अभिनव के स्वर में आक्रोश उभर रहा था.
“मुझे अब आत्मनिर्भर बनना है. कोई रख-रखाव, कोई ज़िम्मेदारी किसी और की नहीं.” रुचिका गंभीर हो गई.
“नहीं रुचिका, तुम पैसे ले लेना. मैं नहीं चाहता तुम अब दर-दर की ठोकरें खाओ. भइया-भाभी के आगे हाथ फैलाओ.” रुचिका का चेहरा मुरझा गया. अभिनव ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था.
कितना भी दिखावा करे, लेकिन हक़ीक़त यही थी. उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी. तभी डॉक्टर चेकअप के लिए आ गए. अभिनव उनसे रुचिका की हालत जानने को बेक़रार था. डॉक्टर ने मीठी झिड़की देते हुए कहा, “मिस्टर, अपनी वाइफ का ख़्याल रखो, बच ही गई आज वरना.” अभिनव को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या बोले?
पिछले दो साल से दोनों अलग रह रहे थे. तलाक़ की पहल रुचिका की ओर से हुई थी. इसमें उसकी भाभी और जीजा की मुख्य भूमिका थी, जिनकी सोच अभिनव से कभी मेल नहीं खाई. सच तो यह था कि वह आज भी उसे दिल से चाहता था. तलाक़ को रोकने के लिए उसने कई बार प्रयास भी किया, लेकिन बातचीत या संपर्क स्थापित ही नहीं हो पाया. कोर्ट में भी दोनों बोलने को हुए, लेकिन भाभी दीवार की तरह हमेशा बीच में खड़ी मिली. डॉक्टर जा चुके थे.
रुचिका फिर से बोलने लगी, “आप घर जाइए प्लीज़. आपकी मम्मी ख़ुशख़बरी सुनने को तड़प रही होंगी.”
“तुम्हें इस हाल में छोड़कर कैसे जा सकता हूं?” दुखी मन से अभिनव बोला.
“अरे! अब हमारा रिश्ता ही क्या रह गया है? एक मुहर ने तुम्हें आज़ाद कर दिया है.”
“तुम मुझे ही दोष क्यों दे रही हो? तलाक़ के पेपर्स तो तुम्हीं ने भेजे थे.”
“चलो छोड़ो, अब सब बदल गया है. अलग रास्ते, नई ज़िंदगी, इसलिए फॉर्मैलिटी छोड़ो.” रुचिका की हंसी के पीछे का दर्द साफ़ झलक रहा था.
“एक बात पूछूं? क्या तुम्हें सच में लगता है कि मेरे किसी और से प्रेम संबंध थे?” अभिनव ने उदास स्वर में पूछा.
“नहीं, मैं जानती हूं आप ऐसे नहीं हो.”
“तो फिर तुमने कोर्ट में मेरे लिए ऐसी बातें क्यों कहीं?”
“इसलिए ताकि आप मुझसे पीछा छुड़ा सको. आपके घरवाले यही तो चाहते थे कि मैं आपकी ज़िंदगी से दूर हो जाऊं.”
अभिनव कुछ और बोल पाता, उससे पहले ही रुचिका के भाई-भाभी दनदनाते हुए आ पहुंचे. भाई अभिनव पर गरजने लगा, “मिस्टर, अब क्या जान लेकर ही मानोगे मेरी बहन की?”
अभिनव खून का घूंट पीकर रह गया. वहां हंगामा खड़ा करना व्यर्थ था. भाई रुचिका को समझा रहा था कि सब अभिनव का ही किया धरा है. वो बदला लेने के लिए उसकी जान तक ले सकता है. रुचिका अब और चुप नहीं रख सकी, “प्लीज़, मुझे अकेला छोड़ दो. मैं अब जीना नहीं चाहती.” अभिनव का वहां रहना अब और संभव नहीं था.
घर पहुंचते ही उसे एक और झटका लगा. ड्रॉइंग रूम में बहन-बहनोई वगैरह सब जीत का जश्न मना रहे थे. टेबल पर मिठाई सजी थी. मानव मन की ऐसी विचित्रता पर उसे कोफ़्त होने लगी. क्या इंसान इतना असंवेदनशील हो सकता है? व्यथित मन से वह अभी भी अपनी जीत-हार को समझने में लगा था.
रात के नौ बज रहे थे. बिस्तर पर पड़ा अभिनव करवटें बदल रहा था. उसे आज जीवन का कड़वा सच महसूस हो रहा था. रिश्ते की अहमियत तभी समझ आती है, जब सब कुछ ध्वस्त हो जाता है. रुचिका दो साल पहले घर छोड़कर जा चुकी थी, पर एक उम्मीद थी कि वो वापस ज़रूर आएगी, लेकिन आज कोर्ट की मुहर ने वह उम्मीद भी ख़त्म कर दी थी. उसकी आंखें नम हो गईं. आलमारी में आज भी रुचिका की कुछ साड़ियां, कपड़े रखे थे, जिन्हें अभिनव ने स्मृतियों की धरोहर समझकर सहेज रखा था. रुचिका का अक्स अब ज़ेहन से हटने को तैयार नहीं था. भले ही वह कड़वा बोलती थी, लेकिन उसकी हर ज़रूरत को बिना कहे, समय से पहले समझ लेना उसकी ख़ूबी थी. नींद कोसों दूर थी. उसे बीते पांच वर्षों का घटनाक्रम याद आने लगा.
बिना मां-बाप की रुचिका का रिश्ता आते ही घर में भूचाल आया था, लेकिन उसकी फोटो ने अभिनव का दिल जीत लिया था. सुंदर-सुशील और ज़माने की सताई-सी दबी-छुपी छवि को अभिनव ने आंखों ही आंखों में पढ़ लिया था. जब वह उसे देखने गया, तब गंभीर मूरत की तरह बैठी रुचिका की आंखों ने बहुत कुछ बयां कर दिया था. उसमें अन्य लड़कियों जैसा उमंग और जोश नज़र नहीं आया था. उसके एक कथन ‘आपको जीवन में मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं मिलेगी’ ने अभिनव का दिल जीत लिया था. इस एक पंक्ति ने ही शादी का फैसला कर दिया था.
ससुराल में रुचिका ने अपने वायदे को पूरी तरह निभाया, लेकिन शायद परिस्थितियों के साथ वह समायोजन नहीं कर पाई. अम्मा गाहे-बगाहे उसे कोसने से बाज़ न आतीं. फिर जब छोटी बहू अमीर घराने से आ गई, तो रुचिका का जीवन और कठिन हो गया. अभिनव के पास कोई स्थायी रोज़गार नहीं था, जबकि छोटा भाई सीए बन चुका था. भाई की बड़ी आमदनी ने अभिनव को बड़े से छोटा बना दिया और रुचिका को और ज़्यादा महत्वहीन.
वह टूटती चली गई. तीन साल ऐसे ही किचकिच में बीत गए और एक दिन अभिनव की अनुपस्थिति में उसके भाई और जीजा उसे पीहर छोड़ गए. अब बात मान-सम्मान और अहं में फंस गई. जिन्हें अपने जीवन का फैसला करना था, वो अन्य लोगों के अभिमान में उलझकर रह गए. अभिनव ने पहल भी की, लेकिन सामर्थ्यहीन होकर उसने भी घुटने टेक दिए. रुचिका शायद इतनी निराश हो चुकी थी कि अब ससुराल में उसे कोई उम्मीद की किरण नहीं दिख रही थी.
अचानक मोबाइल की घंटी बजी. स्क्रीन पर रुचिका का नाम डिस्प्ले हुआ. अभिनव ने तपाक से कॉल रिसीव किया. रुचिका भर्राई आवाज़ में बोल रही थी, “भइया ने बहुत ग़लत कहा आपके लिए, उनकी तरफ़ से मैं माफ़ी मांगती हूं.”
“छोड़ो ये सब… कैसी तबीयत है अब? कौन है तुम्हारे पास अस्पताल में?” अभिनव ने पूछा.
“कोई नहीं है.”
“अकेली हो? खाना खाया या नहीं?”
“नहीं. इच्छा नहीं खाने की.”
“हद करती हो. रुको, मैं आता हूं.”
“अरे नहीं, आप परेशान न हों.”
“पागल हो, रात में तबीयत बिगड़ गई तो?”
“कुछ नहीं बिगड़ेगा अभिनव. मौत मेरे नसीब में नहीं.”
“प्लीज़ रुचिका, ऐसी बातें मत करो, मैं अभी भी तुमसे बहुत प्यार करता हूं.”
अभिनव ने एक पल की भी देरी किए बिना अस्पताल का रुख किया. थोड़ी देर में वो रुचिका के सामने था. होटल से उसने खाना भी पैक करवा लिया था. रुचिका के चेहरे पर चमक साफ़ दिख रही थी.
“मुझे पता था, आप ज़रूर आओगे.” “लो, खाना खाओ पहले. कैसा हाल बना लिया है तुमने?” अभिनव लाड़ से बोला.
“नहीं, हालत तो आपकी ज़्यादा ख़राब है. दवा नहीं लेते आप?”
“अरे! दवा वगैरह सब लेता हूं. पैसे भी हैं अब. चार लाख जमा कर लिए हैं. वो तुम ले लेना.”
रुचिका उसे निहार रही थी. भारतीय पति-पत्नी का संबंध सदैव अप्रचारित क़िस्म का होता है. ज़रूरत के समय यह ज़्यादा प्रगाढ़ साबित होता है. रुचिका हाथ धोना चाहती थी. अभिनव ने उसे सहारा देकर उठाया और वॉशरूम की ओर ले जाने लगा. कुछ देर बाद दोनों खाना खाने लगे. मनपसंद सब्ज़ियां देखकर रुचिका पूछ बैठी, “आपको अब भी याद है मुझे क्या पसंद है?”
“क्यों, तुम्हें क्या लगता है कि मैं तुम्हें भूल सकता हूं?” अभिनव ने भावपूर्ण स्वर में पूछा. रुचिका मौन रही. दोनों खाना खाने लगे. अभिनव ने उसे सहारा दे रखा था. सहारा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक, जिसकी ज़रूरत प्राय: सभी को रहती है. कुछ पल की मौन स्तब्धता के बाद अभिनव बोला, “रुचिका, मेरी एक बात मानोगी?”
“क्या?” रुचिका के स्वर में उम्मीद की झलक महसूस हो रही थी.
“वापस चलो तुम. मुझे तुम्हारी ज़रूरत है.”
रुचिका के मुंह से शब्द उच्चारित नहीं हो रहे थे. उसका सिर अभिनव के सीने से सट गया. अभिनव ने उसे बांहों में भर लिया. पूर्व में हुई ग़लतियों को दोनों ने समय रहते सुधार लिया था.
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