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1.21.2017

'पापा के जादुई कोट और अन्य कवितायें' : समीक्षा रमा पाण्डेय

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     21 January     कविता     No comments   

हर लड़कियाँ पता नहीं -- ऐसा क्यों सोचती हैं कि उनके जो पति हो, उसमें, उनकी पिता का अक़्स हो ! चाहे पिता क्रूर हो या ... ! पृथ्वी की शुरुआत से लेकर अबतक महिलाओं का पुरुष शोषण ही करते रहे हैं -- पता नहीं क्यों ? पर इस सच्चाई को कवयित्री समीक्षा रमा पाण्डेय अपनी प्रस्तुत कविता में प्रूफ करती  हैं । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट एक बेटी की अपने पापा के प्रति आई भावनायें पढ़ाने जा रहा, तो पति नामक जीव के बिछोह को भी ! साथ ही एक कवयित्री द्वारा भगवान् राम की सच्चाई भी, वे उसे मर्यादापुरुषोत्तम क्योंकर माने ! आप प्रबुद्ध पाठकगण ही आइये और वीरोचित कविताओं से आत्मसात् होइए.....

'पापा के जादुई कोट और अन्य कवितायें'

पिता का पुराना कोट 
जिसे देख, मुस्कुरा उठते हैं
पिता आज भी !

कोट उतना ही पुराना है-- 
जितनी पुरानी उनकी डिग्रियाँ ।

पिता बताते हैं-- यह कोट दिया था 
उन्हें उनके पिता ने ,
बताने के साथ ही तैर जाती है
उनकी आँखो में गर्वीली चमक ।

कोट का इतिहास बहुत पुराना है 
मेरे पैदा होने से भी पहले का  !

 
कोट ख्वाहिश थी 
एक पिता की,जिन्हें यकीन था 
कि एक दिन, कोट पहन 
बन जायेंगे साहब / उनके बच्चे
और घूमेंगे झक्क सफेद गाड़ियों में !

बाबा खुश होते  
हमारी तोतली आवाज सुनकर
जब हम कहते थे धूमने दायेंगे ताल से
कंधे पर बिठा के बाबा घुमा देते 
पूरी बस्ती !

बाबा बुलाते दादी को 
मूंछ ऐठते हैं...
सुनती हो पण्डित की माई 
घूमेंगे हमारे बच्चे भी एक दिन कार में !

कोट सपना था ,एक पिता का
जिसे सम्हाल कर रखा हैं,  
अपनी अलमारी में / एक पिता ने
मानो सहेज रखा हो 
तनिक-सा ही स्पर्श प्यार का ...

~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~~_~


तुम्हारी रूह का कुछ हिस्सा ले जबरन
खड़ा किया खुद को तुम्हारे सामने !

सोच रहे हो न ??
कैसी खड़ी हो गई एक औरत 
जिसे तुम देते रहे
अपमान, 
कुण्ठा और
बेहिसाब गालियां !

जिसे तुम रौंदते रहे हर रात 
बिना पूछे
उसकी रजामंदी है या नही !

वो तुम्हे दिखती है दिन में बाई,
दर्द होने पर नौकर...
और रात में एक बिस्तर 
जिसपर सिलवटे भी तुम्हे पसंद नहीं !

तुम करते रहे ढोंग / समाज के सामने 
 
एक अच्छे पति का,
एक अच्छे बेटे का,
एक अच्छे भाई का !

पर मैं जानती हूँ 
तुम बिल्कुल वैसे नहीं
तुम एक नरपिशाच हो
जिसने मेरी खूँ पी-पी, 
मेरी हर एक खुशी 
मेरे सारे सपने, छिना है तुमने !

वैसे भी अब मैं एक लाश हूं
एक जिन्दा लाश
टुकड़ो में बोटी-बोटी होकर ।

फिर क्यों खड़ी हूं तुम्हारे सामने 
सोच रहे हो न
सिर्फ तुम्हे आईना दिखाने को । 

एक दिन 
जब सब तुम्हे छोड़ देंगे
और तुम अलग-थलग पड़ जाओगे
मेरा मौन तुम्हें पागल कर देगा 
तब तुम डरोगे, मेरी परछाई से !

देखना उस दिन तुम
कर लोगे आत्महत्या 
मुझे पता है..... 
तुम खोखले इन्सान हो
डरपोक एक नंबर के ।

मैं तब भी जानती थी 
जब तुम 
मुझे 
बेहिसाब गालियों से 
नवाजा करते थे ।

मुझे पता था 
अगर रोक दिया मैंने तुम्हारे उठते हाथ को
फिर कभी तुम खड़े नही रह पाते मेरे सामने 
तुम्हारी नज़रे झुकी रहती 
और हाथ ढीले रहते ।

 मैं तुम्हे मारना नही चाहती थी
तुमसे प्रेम करना मेरी चाहत थी 
और इसे ही तुम चाहो तो
मेरी कमजोरी कह सकते हो ।

पर मैं जानती हू
तुम इसे कभी नही समझोगे 
क्योंकि तुम्हारा दिल 
तो कब का मर चुका है !!!

(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)(*_*)


बदल दूंगी दुनिया 
रचूंगी एक नयी सृष्टि 
गढूंगी नये प्रतिमान
अब नहीं जलूंगी
न धरती में समाऊंगी
तुम कहों, मुझे क्या मतलब !

मैं नहीं मानती 
तुम्हारे नियम
न तुम्हारे बंधन 
प्रेम के छलावे में मैं नही फंसती
क्यों देते हो शब्द बाण
क्यों करते हो पद प्रहार
मेरी इतिहास भरी है, 
प्रताड़नाओं से 
मैं मुक्ता हूं
जिसने लिया था सन्यास  !

करते हो तुम ब्याह पे ब्याह 
लाते हो एक से एक अप्सरा
सोचो किसी दिन तुम्हे छोड़कर
घर से निकाल 
थाम ले, किसी और के हाथ 
करूँ वही कृत्य जो तुम करते 
आ रहे हो मेरे साथ 
क्या सह लोगे,,,,???

आश्चर्य पुरूष कर सकता है 
अन्याय अत्याचार भी
किन्तु सह नही सकता 
अपने पुरूषत्व पर एक वार
सुना है कभी रवनी का नाम 
नही सुना होगा 
इतिहास में दबा दिया गया उसको
गलती क्या थी उसकी 
काट ली जीभ 
उसके ही पति ने, 
जानते हैं क्यों??
ज्यादा पढ़ी थी वह 
वाराहमिहिर से !

क्यों मुझे बांधते हो 
चारदिवारी में
बर्तनों के ढेर में
मर्यादा-मान के जाल में
फख़्त ऑनर-कीलिंग के माफिक ।

कितनी बार लेते हो परीक्षा तुम
सुनो राम
क्या कभी किसी सीता ने ली तुम्हारी परीक्षा 
या तुम जले कभी आग में
या दबे मिट्टी में
या कभी खौलते तेल में डाला हाथ
कैसी मर्यादा थी राम
बताओ तो मर्यादापुरुषोत्तम !

जुएं में लगा दी स्त्री
युधिष्ठिर तुम कापुरूष हो
मैं नही मानती तुम्हें, 
सोचो क्यों बाट दिया तुमने 
एक स्त्री को
जिसे तुम बचा भी नही पाये
पांच पतियों के रहते  ।

तुलसी हो या बुद्ध 
या महानायक
हार गये एक स्त्री के सामने
दोनो ने छोड़ा 
पत्नी को 
तुममें विश्वास नही था खुद पर
जो डरते हो छाया से भी 
चले जाते हो परित्यक्त कर
रात के अंधेरे में
एक स्त्री से डर कर ।

प्रश्न हैं
क्यों रहती है स्त्री
मौन,शांत 
और कहलाती है-- 
तिरस्कृत, भोग्या, कुलटा !

चलो कर देती हूं 
संसार को थोड़ा उल्टा
बदल देती हूं कुछ नियम
क्या सह सकोगे
यह ज़रा सा परिवर्तन 
जहां तुम घर के अंदर
और मैं घर के बाहर... !



नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email - messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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