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1.15.2017

'देश को जानिये, विदेशी मुआ से' : अभिषेक कश्यप

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     15 January     अतिथि कलम     No comments   

'देश को जानिये, विदेशी मुआ से' यह शीर्षक है, प्रस्तुत आलेख का । आलेखकार व पत्रकार श्री अभिषेक कश्यप ने अपनी नींबू-निचुड़ी अनुभव के सहारे लिखा है कि भारत को जानने के लिए किसी भारतीय लेखकों के दिवा-स्वप्निल 'एक्सरसाइज़' से अच्छा विदेशी लेखकों व पत्रकारों के एतदर्थ 'रेस' को समझना होगा ! महापंडित राहुल सांकृत्यायन की यायावरी-परंपरा का यहाँ अभाव दिखा ! आलेख  को पढ़ने के बाद ही इसपर निर्णय लिया जा सकता है । अब आपके धैर्य की परीक्षा न लेते हुए 'मेसेंजर ऑफ़ आर्ट' में पढ़िए प्रस्तुत आलेख...



    'देश को जानिये, विदेशी मुआ से' 

तीन-चार साल पहले की बात है। युवा कुचिपुड़ी नृत्यांगना शालू जिंदल से मैंने एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान पूछा था-‘‘आपकी रुचियां क्या हैं ? क्या आप किताबें पढ़ती हैं ?’’ उन्होंने चहकते हुए कुछ इस तरह बताया मानो वह ऐसे ही किसी सवाल की प्रतीक्षा में हों-‘‘भारत के बारे में फॉरेन राइटर्स के लिखे ट्रैवलॉग (यात्रा वृत्तांत) मुङो बेहद पसंद आते हैं। ऐसी किताबें मैं खोज-खोज कर पढ़ती हूं।’’

कुछ लोगों को यह अटपटा लग सकता है लेकिन यह सच है कि भारत के बारे में सबसे विश्वसनीय ढंग से संस्मरण विदेशी लेखकों ने ही लिखे है चाहें वह पॉल ब्रंटन (‘ए सर्च इन सीक्रेट इंडिया’, ‘ए हरमिट इन द हिमालयाज’) हों, डोमनिक लापियर (‘सिटी ऑफ ज्वॉय’), गुंटार ग्रास (‘शो योर टंग’) हों या फिर अभी कुछ बरसों पहले भारत आयीं जिल लो (जर्नी ऑफ लव) और एलिजाबेथ गिल्बर्ट (‘ईट प्रे लव’) जैसी लेखिकाएं हों। हिंदी के हमारे लेखक रोज-ब-रोज घटनेवाली जिन घटनाओं पर गौर तक नहीं करते, उन्हें ये विदेशी लेखक अपनी सूक्ष्म दृष्टि, अद्भूत लेखकीय तटस्थता और अपूर्व विश्लेषण से दर्ज़ करते हुए एक याद्गार रचनात्मक अनुभव में बदल देते हैं। वे हमें उस भारत के दर्शन कराते हैं, जो अब भी हमारे लिए जाना-पहचाना लेकिन अजनबी है। वे हमें ‘वह भारत’ दिखाते हैं, जो हमारी आंखों के सामने होने के बावजूद अब तक अनदेखा था। 

यह सही है कि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना की तुलना में यात्र-वृत्तांत कम लिखे गए हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि लिखे ही नहीं गए। इनमें यायावर लेखक-विचारक कृष्णनाथ (‘स्पीति में बारिश’, ‘लद्दाख में राग-विराग’, ‘अरूणाचल यात्रा, ‘कुमाऊं यात्र’, ‘किन्नौर यात्र’, ‘हिमालय यात्र’) का नाम अग्रणी है, जिन्होंने निरंतर अपनी यात्राओं के वृत्तांत लिखे हैं और अपने काव्यात्मक गद्य से हिंदी में इस विद्या को समृद्घ किया है।  मृदुला गर्ग (‘कुछ अटके, कुछ भटके’), गगन गिल (‘अवाक्’)  के नाम भी तत्काल याद आते हैं। इनके अलावा भी नयी-पुरानी, कई पीढ़ियों के हिंदी लेखकों के देश-विदेश में की गई यात्रओं के किसी पत्र-पत्रिका के लिए लिखे पांच-दस हजार शब्दों के आलेख से लेकर पूरी किताब भर के संस्मरण मौजूद हैं। निर्मल वर्मा ने यूरोप-प्रवास पर संस्मरण (‘चीड़ों पर चांदनी’) लिखे तो असगर वजाहत ने ईरान (‘चलते तो अच्छा था’) पर। लेकिन इनमें से ज्यादातर संस्मरण एक पर्यटक से ‘थोड़ा ज्यादा’ हासिल कर लेने का उत्सूक प्रयास भर हैं, जो किसी देश या परिवेश की भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक स्थितियों के बीच वहां के वाशिंदों के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, परंपरा, बोल-व्यवहार आदि से हमारा परिचय कराते हैं। इनमें किसी देश या परिवेश विशेष की जमीनी सच्चाइयों से मुठभेड़ का माद्दा नज़र नहीं आता, न ही विपरीत स्थितियों, लोगों, प्रकृति और परिवेश के बीच खुद को गढ़ने का गहन आत्म संघर्ष नज़र आता है। कहना न होगा, विदेशी लेखकों के संस्मरणों में पाठक यह सब सहज ही पाकर चमत्कृत हो उठते हैं।

अच्छे यात्र वृत्तांत न केवल किसी अदेखे-अनजाने देश-परिवेश की आत्मा से हमारा साक्षात्कार कराते हैं बल्कि कहानी-उपन्यास से इतर वे एक अलहदा किस्म की जीवंतता का भी अहसास कराते हैं। लेकिन अफसोस कि हिंदी के ज्यादातर यात्र-वृत्तांत स्थूल विवरणों और ‘अहो भाव’ में दम तोड़ते नज़र आते हैं। 

क्या इसकी वजह यह है कि हमारे लेखकों की यात्रएं खास तरह की सुविधाओं और सुरक्षाओं के बीच होती हैं ? निश्चित गंतव्य तक की गई निश्चिंतता भरी यात्राएं, जिनमें अनिश्चितता, असुरक्षा और जोखिम की गुंजाइश न के बराबर होती है !

वजहें और भी हो सकती हैं। यहां एलिजाबेथ गिल्बर्ट की पुस्तक ‘ईट प्रे लव’ का जिक्र प्रासंगिक होगा। एक अमेरिकी औरत तलाक की कड़वाहट भरी यादों और डिप्रेशन से जूझते हुए इटली, भारत और इंडोनेशिया की यात्र करती है। इटली में तरह-तरह के सुस्वादु भोजनों के जरिए वह रोम की आत्मा में उतरती है तो भारत के एक आश्रम में रहते हुए पूजा, प्रार्थना, ध्यान के जरिए जीवन में संतुलन की तलाश करती है, वहीं इंडोनेशिया में उसके कदम प्रेम की ओर बढ़ते हैं। 108 अध्यायों में बंटी इस पूरी पुस्तक में बहुनस्ली मेल-मिलाप की गहरी उलझनों का रोमांच है तो सांस्कृतिक भिन्नता से पैदा हुए टकरावों की अनूगूंज भी। साथ ही है-किसी देश-परिवेश की आत्मा में उतर कर झांकने की जिद ! पुस्तक में भारत पर केंद्रित 36 अध्यायों में एलिजाबेथ ने बड़ी गहराई, बेबाकी और तटस्थता से ध्यान, अध्यात्म, प्रार्थना और आश्रम से जुड़े अपने अनुभवों के बारे में लिखा है। 

हिंदी के लेखकों ने कभी इन विषयों को जानने, इन पर लिखने की जहमत क्यों नहीं उठायी ? वामपंथ के खुमार में कब तक हमारे लेखक अध्यात्म, योग-ध्यान को छूत का विषाणु मानते रहेंगे ?
 कब तक सीमित दायरों में घिरे खुद को व्यापक अनुभव संसार से वंचित रखेंगे ?

नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email - messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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