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1.10.2017

'व्यंग्य के छेनी-हथौड़े लिए' : राजेश सेन

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     10 January     अतिथि कलम     No comments   

व्यंग्य के हस्ताक्षर में शुमार 'श्री राजेश सेन' वर्त्तमान राजनीति में जमकर व्यंग्य लिख रहे हैं । उनके प्रस्तुत व्यंग्यालेख , जो कि भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में सत्ता और विपक्ष को उकसाते नजर आते हैं - में नोटबंदी , समाजवादी पार्टी में उठा-पटक , धींगा-मुश्ती इत्यादि लिए नववर्ष 2017 की शुभकामना व्यक्त की गयी हैं । इस व्यंग्य में अगर कुछ कट्टरता को छोड़ दी जाय , तो इसे पढ़ने में "चवन्नी-हँसी" aur "अठन्नी" मज़ा जरूर आयेगा । मैसेंजर ऑफ ऑर्ट के प्रस्तुतांक में पढ़िए आज ...छैनी और हथौड़े के साथ ..
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"शातिर कौन : कोयल या कौवें या अंडे"

 
बीता बरस आया तो बड़े दबे पाँव था साहब, मगर तेज दुडकी लगाकर कब गायब हो लिया, पता ही नहीं चला | लोगों को बस इतना भर याद है कि वह जाते-जाते उनकी सर-सब्ज़ तिजोरियां उलीच गया | अनेक लोगों के निरपराध अपराधबोध को सहसा ही बदहवास बनाकर बैंकों की कतारों में खड़ा कर गया | पता ही नहीं चला कि कब कतारों में खड़े-खड़े पुराना साल बीत गया और मितव्ययिता संदेशी नया साल आ भी गया | अब नया साल संकल्प दिला रहा है कि, ‘हे अतीत मुद्रा-किलौली पुरुष ! तूझे अब आधुनिक कैशलेस-सोसाइटी का एक अप-टू-डेट बाशिंदा बनना है | याद रख, भले ही तू कर-चोर नहीं है | मगर एक कर-चोर से किसी मायने कमतर भी नहीं है |’ अब डरा-सहमा आदमी अपना पचरंगी तासीर वाला धन लेकर सिस्टम का आदमी बनना चाहता है | अब ये अलग बात है कि उसे पता ही नहीं चला कि कोई शातिर काला कौवा चुपके से उसके बैंक खाते को कोयल का निरापद घोसला जताकर वहां अपने काले-कलूटे अंडे सुरक्षित छोड़ गया है | अब इन अंडों का लालन-पालन करना, उन्हें सेतना अब आम-आदमी की नैतिक जवाबदारी बन गई है | सिस्टम का मान बनाए रखने के लिए और खुद को निरपराध घोषित करने के लिए इन अंडों के प्रति अपना मातृत्व बनाए रखना, अब उसका प्रारब्ध बन गया है | तिस पर नए साल का कुशलक्षेम भरा अभिवादन उसका उपहास कर रहा है | नया साल निर्मम ठहाका लगाते हुए आम-आदमी की बची-खुची उम्र डकारने फिर आ धमका है |

  इन सबके बीच, राजनीति अपने नित-नए स्वांग धरने को वचनबद्ध है | व्यवस्था कह रही है कि अब बेईमान लोगों को सुधारना ही होगा | वहीँ बेईमान आदमी ईमानदार आदमी के मुंह को इस हसरत से तक रहा है कि कहीं सरकार का ये आदेश हम ईमानदारों के लिए तो नहीं है | ईमानदार अपने निजी अपराधबोध के चलते ये मानने को अभिशप्त है कि कहीं वाकई हम ही तो बेईमान नहीं हैं | बड़ा घटाटोप है भाई ! हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता | बीते बरसों में बदले हुए सामाजिक मूल्यों ने ये तो सत्य स्थापित किया ही है कि किसी का ईमानदार होना बेईमानी के मूल्यों को हमेशा असहज बनाता है | तभी तो आम-आदमी ईमानदार होने से सिर्फ इसलिए डरता है कि कहीं उसके इस कृत्य से बेईमानी-परस्त समाज में उसकी ईमानदारी की सरे-आम छीछालेदर न हो जाए | मगर अब-जब व्यवस्था सबको ईमानदार बनाने के लिए कृत-संकल्पित है, तब ईमानदार लोगों को डर सताने लगा है कि कहीं वही शातिर कौवे ईमानदार दिखाई देने के लिए कोयलों के कोटर ही साक्षात किराए पर न उठा लें |

  उधर, पुराने साल में लड़ते-भिड़ते नए साल में दाखिल हो चुके समाजवाद की बेचैनी साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है | नए दौर का पारिवारिक कलह अपनी समाजवादी परिभाषाएं खुद गढ़ना चाहता है | देश की जनता को ये समझना मुश्किल है कि जैसे भगवान् ने पहले शरीर रचा या भाग्य, वैसे ही पहले समाजवाद गढ़ा या फिर परिवारवाद | मगर यहाँ तो कलह की लिखी गई स्क्रिप्ट ही कमजोर नज़र आ रही है | जनता इस नूरा-कुश्ती के दांव-पेंच खूब समझ रही है | न सिर्फ समझ रही है बल्कि पेले जा रहे सभी संभावित धोबी-पचाटों की अग्रिम भविष्यवाणी भी कर रही है | राजनीति का ककहरा लिखने वाले जिस स्क्रिप्ट-रायटर को ‘अमर घर चल, झटपट जल भर’ जैसा सीधा-सीधा डायलॉग लिखना चाहिए था, वह बेकार ही समाजवादी-कलह के गुब्बारे में सनसनी की हवा भरने की जुगत भिड़ा रहा है | कुलजमा समाजवाद की समाजवादी कलाई लगभग उतर चुकी है |

  इसी बीच, प्रतिरोध में उछलने वाले जूते बराबर अपना हक़ अदा कर रहे हैं | न जाने क्यों वे वैकल्पिक राजनीति के पैरोकारी पुरुष का चरित्र हनन करने पर तुले हुए हैं | मान को अपमान पर जाया कर, वे न जाने क्या हासिल करना चाहते हैं | जूतों को अपने पारंपरिक कर्तव्यों के प्रति हमेशा सजग रहना चाहिए | मगर चुकी हुई राजनीति के पैरोकारों पर अपना सम्मान जाया करना जूतों को कतई शोभा नहीं देता |
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