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9.12.2016

"पवित्र कुरान, बकरीद का पर्व और दिल से ईमानदार"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     12 September     आपबीती     No comments   

 "पवित्र कुरान, बकरीद का पर्व और दिल से ईमानदार"

सूरह-42. अश-शूरा:-- शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है । ....... और बेशक ज़ालिमों के लिए दर्दनाक अज़ाब है ।तुम जालिमों को देखोगे की वे डर रहे होंगे उससे जो उन्होंने कमाया और वह उनपर ज़रूर पड़नेवाला है । जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किये, वे ज़न्नत के बागों में होंगे । उनके लिए उनके रब के पास वह सब होगा, जो वे चाहेंगे, यही बड़ा इनाम है....... (21-23).
'पवित्र कुरान' का हिंदी रूपांतर काफी हद तक पढ़ लिया है, जो कि मुझे पीछे के वर्षों के पटना पुस्तक मेला से प्राप्त हुआ है, लेकिन उस सवाल का हल अबतक अनहलित ही रहा, जो मेरे एक 'मुस्लिम दोस्त' ने आज से 5 साल पहले 'बकरीद पर्व' की सुबह शाकाहार के इस नाचीज को दावत-ए-स्वाहा के लिए बुलाया था और उनके रैक पर रखा 'कुरान पाक' को छूने भर की अपाकता कर बैठा, यह ठीक उसी भाँति था, जैसे आज से मात्र कुछ दशक पहले हिन्दू धर्म में कोई शूद्र अगर वेद-पाठ सुन भर लेता था, तो मनुकांडी ब्राह्मण उनके कानों में शीशा पिघलाकर डाल देते थे, ताकि भविष्य में ये स्साले शूद्र इसकी हिमाकत नहीं कर सके । धर्म के विषय में ऐसा अनप्रसंग मुझे कभी-कभार होना लगता था, किन्तु उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह महसूस करने लगा हूँ कि सभी धर्म प्रायशः ऐसे ही हैं । प्रगतिशील कोई भी नहीं हैं और है भी तो तिल भर ।
'सम्पूर्ण कहानी' बताने के लिए मुझे आपको अपनी उस दुनिया में खेद के साथ ले जाना चाहूँगा, जो तो एक छोटा 'प्रश्न' मात्र है, किन्तु बड़ा उत्तर की प्रत्याशा में आज भी उस चिड़ी की भाँति है, जो स्वाति नक्षत्र के आगमन की आश में उस नक्षत्र की ओस भर पाने को कब से ही आसमान की और मुँह घुमाए और चोंच खोले टकटकी लगाए इंतज़ार करती हैं ।
मैं उस समय 12 वीं का छात्र था । काफी कम 'बेस्ट फ्रेंड' मेरे ज़िन्दगी के हिस्से आये हैं, लेकिन वो उनमे से एक रहा था, अब भी है , लेकिन उस घटना के बाद पता नहीं, क्यों, 'बेस्ट फ्रेंड' में 'बेस्ट' कहने को लोचा आ गया है । खैर ! मैं उस घटना पर आता हूँ । बहरहाल, उनका नाम न बताने का मैंने सोचा है, क्योंकि
नाम बताकर मैं उनकी कुंठित 'सोच' को दबाना नहीं चाहूँगा.........  हालाँकि वो मुझे  बताया करते थे----------- जब भी गाँव जाता हूँ तो शादी मैं कराता हूँ । उसके धार्मिक गुणों का दीवाना था मैं । कैसे हर चीजों को धर्म से जोड़कर ठीक और संतुलित करता था वह, लेकिन उस दिन के उनके हरकतों ने मुझे उनके कुंठा भाव को प्रकट कराया और 'कुरान' तक पहुँच बनाने और पढ़ने की ओर उत्सुकता बढ़ाया, जो कि हाल-ए-दिन ही संपन्न हो सका । देवनागरी लिपि में लिखा उर्दू -हिंदी लिए शब्दों के जखीरों में अरबी के शब्द भी मिले और कोशिश किया, शब्दकोशों के सहारे उन्हें पढ़ डालूँ । विद्वान अनुवादक मौलाना वहीदुद्दीन खां के मेहनत का फल को नियति तक पहुंचाया । मेरा पढ़ा  Holy Quran के Hindi translation  के प्रकाशक का वेबसाइट पता है --www.goodwordbooks.com और www.goodword.net . इस पाक पुस्तक का संस्करण वर्ष 2010 है । 


उस मित्र को 'मैं कुरान पढ़ लिया है' बताने के लिए अब उनका कांटेक्ट मेरे पास नहीं है । वह भी मुझे बेस्ट फ्रेंड ही मानता । बकरीद के दिनों उसने मुझे अपने 'किराये' वाले रूम में सुबह के 10 बजे invite किया था , चूंकि मैं शाकाहारी हूँ और 'शाकाहारी बकरीद' मनवाने के प्रति एकलक्ष्यता से जुड़ा हूँ, इसलिए उसने 'सेवई' सिर्फ मेरे लिए ही मंगवा लिया था ।
मैं उस दिन के पूर्व भी कई बार उनका रूम गया था, लेकिन आज रूम की स्थिति 'स्टूडेंट रूम' से काफी भिन्न देखने को मिला कि टेबल पर किताबों की  जगह 'सेवई' का प्लेट ने ले लिया था । मैंने और उसने साथ-साथ सेवई चट कर गए ।
खाने के बाद मैंने कहा - यार 'पटेल सर' का मैथ्स की कॉपी देना जरा ! उसने कहा-  रैक पर है, ले लो ।
मैंने रैक पर से कॉपी उठा लिया और कॉपी के साथ ही कोई मोटी -सी किताब भी थी । मैं उसे भी उठाता, पर उठाने से पहले सोचा कि दोस्त से पूछ लूँ कि यह कौन सी किताब है ?
मैंने पूछा लिया ।
मित्र ने जवाब दिया 'कौन - सी वाली' ।
मैंने कहा - मोटी और जिल्द लगी ?
अच्छा वो, वो तो 'पवित्र कुरान' है- उसने कहा ।
मैंने उसे उठाने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया कि वे तड़पकर, कलपकर और जोरदार आवाज में लगभग चिल्लाते से कहा- अरे, उसे तुम हरगिज़ मत छूना  !!
मुझे आश्चर्य हुआ और पूछा - क्यों ????
उसने कहा - क्योंकि तुम हिन्दू हो और सुन्नत भी नहीं किये हो । जो व्यक्ति 'सुन्नत' किये होते हैं, वो पवित्र होते हैं और वही इसे 'छू' (Touch) सकता है ।
मैंने कहा - यार ! ये सुन्नत किया होता है और मैं खुद हिन्दू धर्म में मनुवादियों से परेशान हूँ । हिन्दू धर्म में ऐसे ही जातिगत छुआछूत है और तुम्हारे धर्म में पुस्तक-छूत है.............क्या............?????
मैंने curiosity के लिए बहस करना उचित समझा !
उसने कहा - यह पुस्तक भर नहीं है, धर्म ग्रन्थ है ।
किन्तु कोई धर्म अपने ग्रन्थ का छूने भर से ही छूत्ता जाएगा - मैंने कहा ।
कैसे...., उससे क्या ? तुम अपने लिंग की त्वचा का थूथन वाला हिस्सा नहीं कटाया है, इसलिए तू अछूत हो ।
अब वह भी बहस पर उतर चुका था । मैंने कहा- यार , हिन्दू में जाति से छूत होता है और तुम्हारे यहां लिंग-चाम से ! मुस्लिम औरतों के लिए तब....
उनकी खतना होती है,खासकर अरेबियन कंट्री के महिलाओं की- उसने कहा । मैंने बहस को दूसरी तरफ मोड़ा - अच्छा, यह बताओ, जो 'बुक स्टॉल' वाले बुक बेचते हैं, वे काफी मात्रा में हिन्दू या अन्य धर्मावलंबी होते हैं , फिर वे तो बेचने के क्रम में ऐसे ग्रन्थ को छुते होंगे ही ?
तब उनका जो आंसर आया, उसे सुनकर मैं ही नहीं , आप भी हँसे बिना न रह पायेंगे ।
उसने कहा-  'कुरान' सिर्फ मुस्लिम 'बुक स्टॉल' में ही बिकते हैं !  मैंने ऐसे तर्कहीन बहस को और आगे बढ़ाना तब अनुचित समझा । लेकिन मेरे अंदर का  'ज्ञानी मानव' ने और भी पूछने की उत्कण्ठा को दबने नहीं दिया तथा मैंने फिर एक क्वेश्चन रॉकेट लांचर की भांति दाग ही दिया- यार , यानी सुन्नत का  मतलब 'मुस्लिम' कहते हैं ।
उसने 'हां' कहा ।
मेरा अंतिम प्रश्न, जो मैंने उनसे पूछा - तुम कहते हो 'सुन्नत' करने वाले ही 'कुरान' छू सकते है और सुन्नत वाले इंसान मुस्लिम होते हैं यानी 'सुन्नत' के पहले तुम 'मुस्लिम' नहीं थे, क्योंकि सुन्नत से पहले तुम तब 'लिंग प्रताड़ना' से नहीं गुजरे थे । उस अवस्था में तुम इस्लाम न होकर कोई अन्य धर्म के मुरीद कहलाओगे ?
उसने कुछ नहीं कहा, सिर्फ वहाँ से जाने के लिए इशारे-इशारों में क्षोभ व्यक्त किया ।
मैं लौट आया, यह सोचते कि ऐसे भी किसी के अभिभावक व ईश्वर होते हैं, जो फख़्त उन्हीं को राह दिखाते हैं, जो उनसे डर रखने वाले होते हैं । मुझे बचपन से सवाल पूछने का 'curiosity' है , विवेकानंद भी तो रामकृष्ण परमहंस से तर्क स्थापित किया था । 'गणेश चतुर्थी' के दिन मेरी 'माँ' उपवास रखती हैं ,भगवन के रीत्यानुसार । मैंने माँ से पूछ लिया - गणेश जी खुद तो खाकर 'लम्बोदर' हो गए और दूसरे को कहते - फिरते 'भूखे' रहकर मेरी उपासना करो । यह कहाँ का न्याय है ?
मेरे प्रश्न पर मेरे दोस्त की तरह माँ भी गुस्साई , परंतु हँस दी, किन्तु मेरे अज़ीज़ दोस्त के मुख आभामंडल पर तब चवन्नी हँसी भी नहीं आया था ।



-- प्रधान प्रशासी-सह-प्रधान संपादक ।

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