आइये, मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, प्रकृति प्रेमी कवि व लेखक श्री मिथिलेश कुमार राय की शानदार रचना 'भादो की धूप'.......
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श्री मिथिलेश कुमार राय |
भादो में जब आसमान साफ होता है और काले-काले बादल के टुकड़े को हवा कहीं और उड़ाकर पहुंचा देती है, तब सूरज का रूप देखते ही बनता है. कक्का की माने तो तब जो धूप उगती है उसके सामने मई-जून की धूप पानी भरती नजर आती है. हालांकि भादो की धूप की चर्चा करते हुए उन्होंने यह भी बताया कि यह स्थाई नहीं होती. अभी प्रचंड धूप है तो यह जरूरी नहीं होता कि उसकी प्रचंडता दिन भर स्थिर ही रहेगी. जब तक हवा और बादल के टुकड़ों का ध्यान उस पर नहीं जाता है, तभी तक वह अपनी मनमानी करती है. हवा जैसे ही लौटती है, बादल के टुकड़े यहां-वहां से जमा होने लगते हैं. धूप बादलों का जमावड़ा देखते ही दूम दबाकर भाग जाती है और हमारे सामने रिमझिम वाला सुहाना मौसम उपस्थित हो जाता है.
असल में पांच-सात दिनों की लगातार बारिश के बाद दो दिनों से यह तीखी धूप निकल रही थी और इसको देखकर मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधे और खेतों में लगी धान की फसल भी राहत पाती नजर आ रही थी. किसी के चेहरे पर भादो की इस तीखी धूप को लेकर कोई मलाल नहीं था. सब मुग्ध थे और आपस में ठिठोली भर कर रहे थे !
कक्का भी तो सूखते जूट की ओर बार-बार निहारकर भादो की इस धूप को धन्यवाद दे रहे थे !
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