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1.08.2019

"सोच रहा हूँ मैं लिखूँ, मगर लिखूँ तो मैं क्या लिखूँ" (श्री प्रवीण शुक्ल 'श्रावस्ती' की एक सुकुमार कविता)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     08 January     अतिथि कलम     No comments   

प्यार की कोई नववर्ष नहीं होती है, बावजूद नववर्ष आते ही प्रेमी और प्रेमिकाओं के बीच 'हैप्पी न्यू ईयर' कहने और  नववर्ष-ग्रीटिंग्स भेजने पर मानो नववर्ष का अहसास होती है ! हम ऐसे शब्दों की युगलबंदी को भी शब्दों के साथ जोड़ उनकी नई परिभाषा तो गढ़ लेते हैं, लेकिन मूक जीव की तरह 'प्यार' भी निराली चीज है । प्रस्तुत कविता अपने आप में निराली है । प्रेम, प्रेमी, प्रेमिका और प्रकृति के अध्ययन में प्रवीण संदर्भित कवि भी एतदर्थ महत्वता लिए हैं। आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं श्रीमान प्रवीण शुक्ला 'श्रावस्ती' की कुछ अलग दास्ताँ ! आइये, इसे पढ़ ही डालते हैं.......
श्रीमान प्रवीण शुक्ला 'श्रावस्ती'

सोच रहा हूँ मैं लिखूँ,, मगर लिखूँ तो मैं क्या लिखूँ,
आसमां की एक बूंद या गहरा सागर अधाह लिखूँ ।

लोगों की नफरत लिख दूं या प्रीतम का  प्यार लिखूँ,
खिलती हुई कुमुदिनी या फिर मुरझाए गुलाब लिखूँ ।

अपनों की तानाशाही या फिर गैरों की चाह लिखूँ,
लिख दूं जहरीली बातें या शाबासी या वाह  लिखूँ ।

वो सुंदर सुबह की किरणें लिखूँ या गौधूली शाम लिखूँ,
रात की वो चमकीली सितारें या सूरज - प्रभात लिखूँ ।

नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।

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