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12.12.2018

"मैं धर्मध्वजा-धारणकर्त्ता, तुम अधर्म की माई हो" [श्री अश्वनी राजपूत की मंत्रबिंध-छंदबद्ध कविता]

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     12 December     कविता     No comments   

क्या यह पीड़ादायक नहीं है कि एकतरफ मिट्टी की मूर्ति को देवी कह कर कपड़ा पहनायी जाती है, मोम की बुतों को सुरक्षित तरीके से रखी जाती है, जिनमें लाखों खर्च कर डालते हैं । वहीं जिन्दा औरत को नग्न करके घुमायी जाती है और उनसे भीख मंगवायी जाती है ! हम उस देश की बात कर रहे हैं, जहाँ 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' सूक्त लिए अवधारणा पुष्पित और पल्लवित हुई है ! कुछ ऐसी ही मीमांसा लिए आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान अश्वनी राजपूत की  मार्मिक कविता ! इस  छंदबद्ध-कविता में  कवि ने 'माया' को ठगिनी, योगिनी, डाकिनी इत्यादि कह उन्हें अपनी औकात बतायी है । आइये, इसे पढ़ते हैं........
श्रीमान अश्वनी राजपूत

    तुम माया की कपट कला, मैं लाल हूं दुर्गा माता की ।
    मैं कृपापात्र हूं महादेव का, तुम हो श्राप विधाता की ।।

    तुम योनि हो दु:ख-क्लेश की, कि मैं योगी तपने वाला हूं।
    तुम नित्य प्यासी तृष्णा हो, मैं शिवधुन में रमने वाला हूँ।।

    न चलेगी तेरी खेल-डाकिनी, बहुत लिया है झेल, डाकिनी !
    मत आंख दिखा डाकिनी, मुझपर है शिव-कृपा डाकिनी ।।

    मैं धर्मध्वजा धारणकर्ता, तुम अधर्म की माई हो।
    मैं साधक हूं मुक्ति का, तुम दासत्व की खाई हो।।

    मैं तो हूं रमता जोगी, तुम महा चंचला माया हो।
    मैं मगन शिवचरणों में, तुम अनिष्ट की छाया हो।।

    मैं धर्मरती योद्धा, तुम कायरता की जड़ व चर हो।
    मैं साधक निर्मल पावन, तुम पापमलिन कीचड़ हो।।

    मैं छोरा गंगा तट का हूँ, तुम दुर्गन्धित मल की नाली हो।
    मैं गंगाजल पीनेवाला, तुम हलाहल विष की प्याली हो।।

    मैं हूं उज्ज्वल हंस सरीखे, तुम फुफकार नागिन की।
    मैं हूँ शीतल सौम्य बसंत, तुम पतझड़ हो बागन की।।

    मैं खुद में ही मस्त मगन, तुम फँसा के बड़ा नचाती हो।
    मैं नित्य सजग रहने वाला, तुम मौका देख लुभाती हो।।

    मैं हूँ अल्पायु मानव, और तुम सदा यौवना बाला हो।
    मैं हूँ मात्र पतंगे-सा, तुम नित्य धधकती ज्वाला हो।।

    मैं याचक हूँ अनन्त-सुख का, तुम दुर्दान्ती भवसागर की।
    मैं शरणागत हूँ शिव का,  तुम महा विपत्ति हो नर की।।

    मैं मर्यादित सच्चरित्र,  तुम हो जननी चरित्रहीनता की।
    मैं छहों संपत्ति का स्वामी, तुम कारण दरिद्र-दीनता की।।

    मैं सादा जीवन जीता हूँ, तुम चकाचौंध की दुनिया हो।
    मैं विवेक वैराग्ययुक्त और  तुम भोगी की दुल्हनिया हो।।

    मैं राग-द्वेष का शत्रु हूं, तुम मोहपाश की धारक हो।
    मैं पुण्यवान अधिकारी, तू सुख-शांति की मारक हो।।

     मैं चिंतक एकांतप्रिय और तुम ह्रदय का हाहाकार हो।
    मैं ध्यानी परम सत्य का, तू मिथ्यात्म चीख-पुकार हो।।

    मैं अभिनेता जीवन-नाटक का, तुम महाविनाशक हो।
    मैं साधना में लिप्त रहूं, तुम ज्ञान-धर्म की बाधक हो।।

    मैं सीधा-साधा पक्षी हूं, तुम नित्यनूतन जाल बिछाती हो।
    मैं उड़ना चाहूं नील गगन में, तुम मुझको मार गिराती हो।।

    मैं सद्गुण का संचयकर्ता और तुम दुर्गुण की खान हो।
    मैं सेवक हूं महादेव का, तुम माया का अभिमान हो।।

    मत खुलवाओ मुंह डाकिनी।
    काँप उठेगी तेरी रूह पापिनी।।


    नमस्कार दोस्तों !

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