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11.23.2018

".... कि चाय बेचने वाले ने, सब्सिडी ना दी चाय पर !" (श्री आलोक शर्मा की उद्देश्यपूर्ण कविता)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     23 November     कविता     No comments   

8 नवम्बर 2018 यानी नोटबन्दी की दूसरी वर्षगाँठ । पुराने नोटों को बदलने से कोई परेशानी नहीं हुई, चूंकि नकदी नोटों का संचय यानी जमाखोरी मेरे परिवार के प्रसंगश: कभी नहीं रहा । अब तो बड़ी संख्या में बैंक और पोस्टऑफिस रहने के कारण रुपये तो वहाँ जमा हो जाते हैं, अब तो सामान्य पेशेवरों की आय सीधे बैंक-खाता में ही चली जाती है और कुछ हजार घर पर इसलिए रखा जाता है, ताकि बर-बीमारी को निबटाये जा सके, किन्तु नोटबन्दी के अगले दिन से ही जब कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी बन्द हो गई, तब मेरी एक दुःखी बहन, जिनकी टेक्निकल क्लास में नामांकन नोटबन्दी के कारण नहीं हो पाई थी, क्योंकि नोटबन्दी के कारण तब बैंकों ने व्यस्तता जताकर 'बैंक ड्राफ़्ट' नहीं बनाये थे, एडमिशन नहीं होने पर भी अतिप्रसन्न हुई कि अगर इनसे पत्थरबाज़ी बन्द हो गई, इसतरह से देश की अखंडता और अक्षुण्णता के लिए अगर उनकी सीनियरटी जाती है, तो ऐसी-तैसी हजारों-लाखों कुर्बानी सही ! देश बची रहेगी, तब ही हमारी अस्तित्व बची रह सकती है ! देश है, तब हम हैं ! पहले देश, तब हम ! आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं कवि आलोक शर्मा की कविता, कुछ ऐसी ही यादों की सौगात लिए और उनमें प्रतिपल आत्मसात हुए ! कविता की प्रस्तुति रुचिकर है, तो आइये इसे एक ही साँस में पढ़ ही डालते हैं......

कवि आलोक शर्मा

             
हुआ विचार बन्द नोट,और जी एस टी से
                    आय पर;
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,चर्चा  कर  ली
                    गाय पर !
जहां कहीं  भी 'रिश्ता' था,सबने सबका
                 उद्धार किया;
पर चाय बेचने वाले ने, सब्सिडी  ना  दी
                   चाय पर !
चाय-चौक औ' राजनीति का, रिश्ता बहुत
                     पुराना है;
जीत-हार की  चर्चा का, यह  सबसे बड़ा
                    ठिकाना है !
नित्य  सुबह  ही  आ जाते हैं, लेकर  यह
                    उद्देश्य बड़ा;
किसकी हार निश्चित,किसका जनाधार यहां
                    है देश बड़ा !
हाँ, अच्छा  असर डालते  रहते, राजनीति
                    व्यवसाय पर;
पर  चाय  बेचने वाले  ने, सब्सिडी  ना दी
                       चाय पर !
इन चाय बेचने वालों की इक दारुण भरी
                      कहानी है;
सबकी स्थिति बदल गयी, पर इनकी वही
                       पुरानी है !
भट्ठी में झोंके 
जा रहे बच्चे, इसपर किसी का  
                       ध्यान नहीं;
जब शीर्षमान पर बेटा है, क्यों अब इनको
                       सम्मान नहीं !
सबके दिन अच्छे हैं फिर भी, ग्रहण इनकी
                        आय पर;
क्यों  चाय  बेचने वाले ने, सब्सिडी ना दी
                       चाय पर !
इस महापेय के विक्रेता, कम कीमत पर ही
                        मरते हैं;

अठारह घण्टे प्रति-दिन सबकी,सेवा करते
                        रहते हैं !
अस्सी प्रतिशत, देश के वोटर, यदि, इनसे
                       हैं जुड़े हुये;
तो लोकतन्त्र में ऐसे सेवक,गलियों में क्यों
                      पड़े हुए !
मौन हुयी क्यों ? राजनीति, इस दर्द, वेदना,
                       हाय पर;
कि  चाय  बेचने  वाले ने, सब्सिडी  ना दी
                        चाय पर !
सब  चाय  बेचने  वाले यह, कह  सकते है
                      अधिकार से;
अद्भुत 'पी एम'  देश को  दी, इक छोटे से
                       परिवार से !
जब  बेटा संघर्ष झेलकर, इक  मुकाम पा
                          जाता है;
घर, परिवार, गोत्र,राष्ट्र को  दिल  से  पुनः
                         सजाता है !
सभी केतली वालों का, 
मतैक्य  हुआ इस
                          राय पर;
कि  चाय  बेचने  वाले ने, सब्सिडी  ना  दी
                          चाय पर !


नमस्कार दोस्तों ! 

'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें  Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।

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