ऐसी महिला, जिन्होंने काफी संघर्ष की, शरीर से, अंतरतम से, विभाग से.... आर्थिक परेशानियों से रूबरू होती रहीं, बावजूद चेहरे पे शिकन तक नहीं ! क्या मजाल कोई उन्हें अबला कह दे ! एनसीसी कैडेट, इंडियन एयर लाइन्स में सुरक्षा जांच सहायक, रेडियो एंकर.... कोई भी जॉब 'दया' से नहीं मिली ! एक 'जॉब' पाने के लिए तो दौड़ लगा दी, यह तब, जब प्रसव के कुछेक माह के अंतराल में ही और पैर तुड़वा बैठी..... बेहद जुनूनी महिला! जिनके पिता भी 'निराला जी' की भांति सिर्फ़ 'सरोज' के लिए प्रतिबद्ध ! एक विभाग ने 'मातृत्व अवकाश' में होने पर इन्हें नौकरी से निकाल दिए, परंतु कोई शिकन नहीं ! एक जॉब छूटेगी, तो दूज़े के लिए वेकैंसी आ जायेगी । हमेशा ही खुद के पैरों पे खड़ा रहने की सोची, बावजूद इस महिला के लिए मैके के साथ-साथ ससुराल 'गेंदा फूल' ही रही यानी हमेशा ही सहयोगात्मक । ..... और एक दिन कविताएं और कहानियाँ रचते-लिखते पुरुष-वेश्यावृत्ति पर उपन्यास 'जी-मेल एक्सप्रेस' लिख डालती है। पुरुष लेखकों के बीच तूफान आ खड़ा होता है और उन्हीं की कवितांश-- "परिवर्तन किसी अवतारी का मोहताज नहीं" की भांति ऐसी बवाल मचाती है, मत पूछिए, सिर्फ पढ़ डालिए ।
'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में प्रत्येक माह 'इनबॉक्स इंटरव्यू' प्रकाशित होती है । इस माह के इस कॉलम में 14 गझिन प्रश्नों के बेबाक उत्तर उस महिला से जानिए, साहित्य की नव लौहमहिला श्रीमती अलका सिन्हा को उन्हीं की जुबानी उनके दर्शन से भी अवगत तो होइए, तो यह लीजिये....
प्रश्न (1):-
आपके कार्यों को इंटरनेट के माध्यम से जाना। इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आइडिया संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये।
उत्तर :-
इंडियन एअरलाइन्स में सुरक्षा कर्मियों की भर्ती में महिला कर्मियों को प्रयोग के तौर पर लेने की योजना बनी। मैं उसी प्रयोग के तहत इस संस्थान में सुरक्षा सहायक के रूप में भर्ती हुई और इंडियन एअरलाइन्स के सुरक्षा विभाग से जुड़ी। बतौर महिला सुरक्षाकर्मी मैंने बहुत-सी अनुभव बटोरी और मेरी जानकारी बढ़ी।
इसके साथ-साथ लिखने-पढ़ने की रुचि के कारण ही मैं रेडियो और टीवी के कार्यक्रमों से जुड़ी । मेरी आवाज की प्रशंसा सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर जी ने भी तब की थी, जिनकी आवाज की दुनिया दीवानी है । ...तो वहीं मेरे लेखनकर्म के साथ-साथ मीडिया के क्षेत्र में भी पहचान बनती चली गयी । तेरह वर्षों तक गणतंत्र दिवस परेड के साथ-साथ राष्ट्रीय महत्व के अनेक कार्यक्रमों में 'आँखों देखा हाल' सुनाने का गौरव मुझे मिला है । युववाणी की प्रस्तोता से लेकर आकाशवाणी की नेशनल कमेंटेटर बनने की यात्रा सच में बहुत ही ऊर्जा प्रदान करती है। दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रम ‘पत्रिका’ की प्रस्तोता के रूप में न जाने कितनी साहित्यिक विभूतियों का सान्निध्य मिला, जो मन में साहित्यिक संवेदनायें भरती चली गयी ।
महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित मेरी सात किताबों ने लेखन के क्षेत्र में मुझे महती पहचान दिलाई और सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं से मेरी पुस्तकें पुरस्कृत भी हुईं । पुरुष वेश्यावृत्ति पर लिखी गई मेरी हालिया उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ इन दिनों चर्चा में है।
प्रश्न (2):-
आप किस तरह की पृष्ठभूमि से आई हैं? बतायें कि यह आपकी इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार का मार्गदर्शक बन पाया है?
उत्तर :-
मेरा जन्म भागलपुर (बिहार) में हुआ, किन्तु पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई। इस नाते महानगरीय परिवेश में मिली परवरिश के बावजूद गांव का संस्कार मुझे महत्वाकांक्षी भीड़ से अलग करती है, साथ ही मुझमें स्पष्टवादिता संस्कार व सच को सच और झूठ है तो झूठ है-- यह कहने पिताजी से मिला, जो स्वयं गांव से पढ़कर नौकरी करने दिल्ली आए थे। महानगरीय चकाचौंध और दिखावे से दूर मेरे पिता का व्यक्तित्व बहुत स्पष्ट और सादा है, इसीलिए मैं सादगी के सौन्दर्य को समझती हूँ तथा साफ-स्पष्ट दिखना, करना और बेलाग लिखना चाहती हूँ।
रही बात मेरी उपलब्धियों की, तो जो कुछ भी पाया है मैंने, उसके लिए अपने पाठकों और शुभचिंतकों की हृदयश: आभारी हूँ, किन्तु मैं हासिल करने के इरादे से काम नहीं करती, मुझे जो सही लगता है, मैं वही करती हूं । इससे मुझे क्या मिलेगा अथवा क्या खो जाएगा, इसकी बहुत चिंता करती तो शायद ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ उपन्यास लिखने की साहस नहीं जुटा पाती !
प्रश्न (3):-
आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किस तरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं?
उत्तर:-
लेखन के प्रति मेरी जवाबदेही न केवल मजबूत बनाती है, अपितु मेरे भीतर आकर वह ऐसी दृढ़ता पैदा करती है, जो मुझे किसी भी दबाव को महसूसने तक नहीं देती !सत्यश:, अगर व्यक्ति अपने भीतर आत्मबल सृजित कर सके तो वह दुनिया की बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत सकता है। यह देखकर कई बार अत्यंत दुःखी हुई हूँ कि लोग बहुत ही हल्का लाभ के लिए बड़े-बड़े समझौते कर लेते हैं, बावजूद एक वक्त ऐसा आता है जब वे महसूस करते हैं कि बहुत पाकर भी वे अंदर से खोखला हैं। कम से कम एक लेखक को इनसे बचना चाहिये। लेखक सर्जक होता है, इसलिए वह स्वयं ब्रह्म होता है। रचनाकार को ऐसी दुनिया का मानचित्र गढ़ना चाहिये, जो समाज को बेहतर जिंदगी दे सके।
प्रश्न (4):-
आपके कार्य में आई जिन रुकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें?
उत्तर:-
नागर विमानन सुरक्षा में काम करते हुए बहुत सी बाधाएं आईँ । इन बाधाओं ने ही मुझे कहानियों की ओर ले गई । सबसे बड़ी बाधा तो मानसिकता की थी । सुरक्षा जांच करते-करवाते हुए व्यक्ति खुद को शक के दायरे में महसूस करने लगता है जबकि सुरक्षा जांच उसपर शक करने के बावजूद उसकी सुरक्षा के नाते है। इस बात को समझा पाना बहुत मुश्किल था। दूसरी बात, विमान यात्री के सहयोग के बिना सही सुरक्षा जांच नहीं हो सकती, जबकि यात्री इससे अपमानित महसूस करते हैं।
एक बार सामानों की जांच करती हुई जब मैंने बैग खोल कर देखना चाहा तब पता चला कि वह सामान किसी सीनियर आईपीएस अधिकारी का था, जो तब आया भी नहीं था। उस अधिकारी के समय बचाने के लिए उसके मातहत किसी अधिकारी ने उसका सामान एक्स-रे के लिए रख छोड़ा था। उसके पास बैग पर लगे ताले की चाबी नहीं थी। मैंने इस पर आपत्ति जताई और सामान रोक लिया। यह खबर दस मिनट के भीतर पूरी शिफ्ट में फैल गई। मेरे शिफ्ट इंचार्ज ने आगे बढ़कर स्थिति को संभालने की कोशिश की, मगर बात बिगड़ती चली गई। तब तक आईपीएस अधिकारी भी आ चुके थे, पर मैं अपनी बात पर अडिग रही और सामान जांचने के बाद ही उसे विमान पर चढ़ाने की अनुमति दी।
ऐसी कई घटनाएं आए दिन घटती रहती थीं। उनमें से कुछ को थोड़े-बहुत बदलाव के साथ फिक्शन के रूप में अपने कहानी- संग्रह ‘सुरक्षित पंखों की उड़ान’ में शामिल किया है।
प्रश्न (5):-
अपने कार्यक्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित होने के तो शिकार न हुए? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये?
उत्तर:-
आर्थिक दिक्कतें तो हर किसी के साथ होती हैं। इच्छाओं का अंत नहीं है, चूंकि पैदल चलने वाला जहाँ गाड़ी की कामना करता है, तो गाड़ीवाले बड़ी गाड़ी की कामना करते हैं। फिर भी, मैं कह सकती हूँ कि मेरा आर्थिक संघर्ष मुझ पर कभी हावी नहीं होने पाया ।
'ट्रेड फेयर ऑथोरिटी ऑफ इंडिया' में लगी-लगाई अस्थाई नौकरी तब छूट गई, जब मैं 'मैटरनिटी लीव' पर गई हुई थी। बहुत दुख हुआ। आर्थिक तंगी से अधिक यह दु:स्थितियाँ खुद को नाकारा महसूस करने की चोट थी। ऐसे वक्त में ऑल इंडिया रेडियो में अस्थाई उदघोषक के तौर पर पैनल में रख ली गई। महीने में चार, छः बुकिंग्स मिल जाया करती थीं। कठिनाई में ही सही, पर गुजारा चल जाता था।
'इंडिया न्यूज' में श्रीमान मजीद अहमद की लोकप्रिय ऋंखला ‘मेरा कमरा’ के अंतर्गत मैंने जिक्र किया है कि जिन दिनों मेरी दूसरी बेटी होने वाली थी, उन दिनों मैं खट्टी उल्टियों के साथ सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रहती थी। एक कमरे के घर में मां (सासू मां) ने बीच में परदा डाल कर ससुर साहब और मेरे बीच की निजता को बचा रखा था। उसी कमरे में छोटा देवर पढ़ाई करते हुए मेरी बड़ी बेटी को स्कूल का होम वर्क भी करा दिया करता था। एक कमरे में हर किसी की अपनी दुनिया थी, अपना एकांत था। सब बड़ी शाइस्तगी से, बिना दखल दिए एक-दूसरे की दुनिया में आवाजाही करते थे।
आज भी याद है मुझे, पति की नौकरी नई थी और जमा जोड़े पैसे हमारी शादी और घूमने में खर्च हो गए थे। तब हमारे खाते में कुल 2700/-रुपये थे और ऐसे में मैंने 2400/- रुपये की अलमारी खरीद ली थी। खाता खाली हो गया था। ऐन इसी वक्त इंडियन एअरलाइन्स में नौकरी पाने का तार मिला और आर्थिक स्थिति सुधरने लगी !
प्रश्न (6):-
आपने यही क्षेत्र क्यों चुना? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उन सबों ने राहें अलग पकड़ लीं ?
उत्तर:-
हिंदुस्तान में अपनी पसंद का काम चुनने का समय अभी तक नहीं आया है। अधिकतर परिस्थितियों में काम आपको चुन लेता है। मैं भी कोई अपवाद नहीं रही। बस कुछ करना चाहती थी, अलग तरह का। ट्रेड फेयर में गाइड के तौर पर डेली वेज पर काम कर रही थी, जो मैटरनिटी के दौरान खत्म हो गई। इसी बीच एअर इंडिया में सुरक्षा विभाग में महिलाओं की भर्ती के लिए विज्ञापन आया। एनसीसी की ‘सी’ सर्टिफिकेट प्राप्त होने के कारण मैं जरूरी शर्तें पूरी करती थी। मैंने इसकी लिखित परीक्षा पास की। उसके बाद शारीरिक क्षमता परीक्षा थी, जिसमें तय समय में एक निश्चित दूरी तक दौड़ लगानी थी । मैं प्रथम संतान की मां बनी थी, जो कि अभी 6 माह भी नहीं हुई थी । शरीर कच्चा (प्रसव के बाद की दुर्बल स्थिति) था। दिसंबर की कंपकंपाती ठंड में कड़े अभ्यास से निर्धारित समय से बहुत कम समय में ही मैं वह दूरी तय कर लेती थी, मगर शारीरिक क्षमता परीक्षा से ठीक एक रोज पहले जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में अभ्यास के दौरान मेरी पैर अचानक ही मुड़ गई और फ्रैक्चर हो गई । फिटकिरी वाले गर्म पानी में पैर सेंकने के बावजूद मैं अगले दिन की परीक्षा में ठीक से दौड़ नहीं पाई। चार कदम दौड़ते ही गिर पड़ी और यह नौकरी मिलते-मिलते हाथ से फिसल गई। तीन माह के लिए बायीं पैर पर प्लास्टर ऑफ पेरिस चढ़ा दी गई थी । इसी दौरान इंडियन एअरलाइन्स के सुरक्षा विभाग में भर्ती निकली । पैर टूटा था, किन्तु हौसला नहीं ! मैंने इसके लिए अप्लाइ कर दी और फिर पास हुई । इस बार बात बन गई और मैंने इंडियन एअरलाइन्स ज्वाइन कर लिया।
हमें इसमें ऐन्टी सैबटाज चेक यानी बम विस्फोट की रोकथाम का काम करना था। मेरे घर में तो क्या, समाज में भी लड़कियों की यह भूमिका बिलकुल नई थी, पर मुझे भी तो कुछ अलग करने की उत्कट लालसा थी और कुछ मजबूरियां भी थीं। इसलिए जोखिम भरा काम होने के बावजूद मैंने बिना समय गंवाए इसे ज्वाइन कर लिया।
परिवार की प्रतिक्रिया के बारे में कहूं तो एक बार मेरे पिता ने विमान यात्राक्रम में यह कहा, “सुरक्षा जांच के दौरान मैंने वहां जब लड़कियों को मुस्तैदी से इस जिम्मेदाराना काम को करते देखा तो मुझे अपनी बेटी पर फक्र हुआ।”
नौकरी के साथ-साथ आगे की पढाई-लिखाई और बच्चों की परवरिश में मेरे पति हमेशा मेरे साथ-साथ चलते रहे हैं और मैं अपने हर्ष और संघर्ष के गीत उनके नाम लिखती रही हूँ।
प्रश्न (7):-
आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं?
उत्तर:-
लेखन कार्य में आसानी से कुछ हासिल नहीं होता ! फिर भी, घर के लोगों ने मेरा साथ दिया। मेरे पति मेरे कार्यक्रमों में प्रायः साथ आते-जाते हैं जिससे मैं कई प्रकार की चिंता और तनावों से मुक्त रहती हूँ। मेरी पुस्तकों की प्रूफ रीडिंग वे अपने स्तर पर भी करते हैं। मैं दावे से कह सकती हूँ कि मेरी किताबों में प्रूफ की कमी निकालना एक चुनौती होगी। मेरी पहली किताब निकल रही थी। उस समय मेरे बच्चे बहुत छोटे थे। इतने छोटे कि तब वे सृजनात्मकता का मतलब भी नहीं जानते थे, मगर वे इतना समझते थे कि उनकी मां कोई विशिष्ट काम कर रही हैं और उन्होंने अपने हिस्से का समय खुशी-खुशी मेरे नाम कर दिया। तभी मैंने अपनी पहली किताब के लिए अपने बच्चों के प्रति आभार ज्ञापित की है, “मेरी शोणित रचनाएं -- प्राची और शाद्वल, तुम्हें धन्यवाद कैसे दूं, तुमसे तो क्षमा मांगती हूँ कि तुम्हारे हिस्से का वक्त चुरा लेने का नतीजा ही तो है ये कविताएं !”
पुरुष-वेश्यावृत्ति जैसे विषय पर लिखने का साहस जुटाने में मेरे पिता ने यह कहकर मुझे साहस दिया कि लेखक समाज का डॉक्टर होता है, अगर वही रोग के बारे में पूरी जानकारी देने में झिझकेंगे, तब इस काम को कौन करेगा ? ससुरालवाले भी मेरे लेखन से गौरवान्वित होते हैं । मेरी किताबों के कवर पेज और उस पर मेरे चित्र को अंतिम रूप देने से पहले मेरे परिवार का होमवर्क भी कम नहीं होता। मेरी पहली कविता-संग्रह ‘काल की कोख से’ के प्रत्येक पृष्ठ पर मेरे चित्रकार देवर गुलशन की चित्रकारी लिए है।
अपने खाते में उन आत्मीय मित्रों का होना भी मैं अपना भाग्य समझती हूँ, जिनके साथ चाय की चुस्कियों के साथ बहसें होती रहती हैं । सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ में पुरुष-वेश्यावृत्ति जैसे अनछुए विषय पर उन्होंने मुझसे खुल कर चर्चा की और मेरा आत्मबल बढ़ाया।
प्रश्न (8):-
आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती है ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती है अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने की कोई वजह ?
उत्तर:-
भारतीय संस्कृति बहुत ही समृद्ध और गौरवशाली है। मेरी रचनाओं का मकसद उन मूल्यों को पुनर्सृजित करना है, जो आधुनिकता के नाम पर खत्म होते जा रहे हैं। इस नाते मैंने कई रचनाओं के माध्यम से खंडित होते जा रहे मूल्यों पर कुठाराघात भी किया है। बल्कि प्रारंभिक रचनाओं में विद्रोही स्वर प्रमुख रहा है, जो धीरे-धीरे, उम्र के साथ गहरे और ठहरे हुए ढंग से अभिव्यक्त होने लगा है। ‘गहरे तालाब की विरासत’, ‘चांदनी चौक की जुबानी’, ‘अपूर्णा’, ‘फादर ऑन हायर’ जैसी अनेक कहानियां इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं। उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ उस जीवन शैली पर प्रहार करता है, जिसमें आधुनिकता के नाम पर एक सामाजिक विकृति को बढ़ावा मिल रहा है और हमारा युवा वर्ग दिग्भ्रमित हो रहा है।
प्रश्न (9):-
भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं ?
उत्तर:-
शब्द ब्रह्म है। उसमें इतनी ताकत होती है कि जो मरते हुए व्यक्ति को आत्मविश्वास से भर देते हैं। मगर इसके लिए शब्द को साधना होता है और केवल ईमानदार रचनाएं ही ऐसी ताकत जुटा सकती हैं वरना आजकल तो जिस तरह थोक भाव से रचनाएं आ रही हैं कि शब्द पर अर्थहीन होने का संकट गहराने लगा है। इसीलिए मैं गणना से अधिक गुणवत्ता में विश्वास करती हूँ। दृष्टिबाधित व्यक्तियों के लिए लिखी गई मेरी कहानी ‘जन्मदिन मुबारक’ तीन साल तक दिमाग में घूमती रही। मैं इसका अंत तय नहीं कर पा रही थी। कारण यह कि मैं जो मैसेज देना चाहती थी, उससे समझौता नहीं कर सकती थी। लगभग तीन साल बाद अचानक एक ख्याल आया कि इस कहानी का ट्रीटमेंट इस तरह किया जाए तो समाज को एक राह मिल सकती है। मुझे इस कहानी को लिख कर बहुत संतोष मिला।
इसी प्रकार ‘अपूर्णा’ कहानी भी एक महीन बुनावट लिए कहानी है, जो आजादी की लड़ाई से लेकर अबतक के सफर का खुलासा करती है । दोनों वक्त आमने-सामने होकर पाठकों को यह सोचने को विवश करते हैं कि क्या इन्हीं मूल्यों के लिए हमने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी और हमारे परिजनों ने अपनी जानें गंवाईं ? पाठको के सोच का स्तर को समृद्ध करना ही मेरे लेखन का महत्वपूर्ण ध्येय है।
प्रश्न (10):-
इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षेप में बताइये।
उत्तर:-
कुछेक पुरस्कारों से प्राप्त राशि इतनी तो होगी ही, जिनसे रचनाओं की टाइपिंग इत्यादि का खर्चा निकल जाए। वैसे कोई लेखक आर्थिक लाभ से अधिक सामाजिक और पाठकीय स्वीकृति की कामना रखता है ।
प्रश्न (11):-
आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियां, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलनी पड़ी हों ?
उत्तर:-
जीवनयापन के लिए जिस क्षेत्र को चुना वहां की सीमितताओं को अपनी क्षमता मानते हुए काम कर रही हूँ। जहां तक सवाल है लेखन का, तो विश्वास का छला जाना ही तो लेखन के लिए जमीन तैयार करता है। तमाम कहानियां ऐसी घटनाओं के स्पर्श से ही तो लिखी गई हैं। मशहूर शायर राजगोपाल जी का शेर कहना चाहती हूँ --
“तुम हमें नित नई व्यथा देना,
हम तुम्हें रोज इक ग़ज़ल देंगे।”
प्रश्न (12):-
कोई किताब या पैम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हो, तो बताएँगे ?
उत्तर:-
अब तक की प्रकाशित सात कृतियां इसी से संबंधित हैं। कविता संग्रह - काल की कोख से (वाणी प्रकाशन), मैं ही तो हूँ ये (नेशनल पब्लिशिंग हाउस), तेरी रोशनाई होना चाहती हूं (किताबघर प्रकाशन) ; कहानी संग्रह - सुरक्षित पंखों की उड़ान (किताबघर प्रकाशन), मुझसे कैसा नेह (किताबघर प्रकाशन) तथा ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ की नवसाक्षर साहित्यमाला के अंतर्गत प्रकाशित कथा पुस्तक ‘खाली कुरसी’; उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ (किताबघर प्रकाशन) ।
प्रश्न (13):-
इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उत्तर:-
कविता-संग्रह ‘मैं ही तो हूँ ये’ पर हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार द्वारा साहित्यिक कृति सम्मान (2002), संसदीय हिंदी परिषद् द्वारा संसद के केंद्रीय कक्ष में राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान (2009), कविता-संग्रह ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’ पर परंपरा ऋतुराज सम्मान (2011), महात्मा फुले रिसर्च अकादमी, नागपुर द्वारा अमृता प्रीतम राष्ट्रीय पुरस्कार (2011), कहानी ‘धिनाधिन...धिन...धिनाधिन’ पर कमलेश्वर-स्मृति कथाबिंब सर्वश्रेष्ठ कथा पुरस्कार (2014), उपन्यास 'जी-मेल एक्सप्रेस' पर 'सृजनलोक नयी कृति सम्मान’ (2017)।
प्रश्न (14):-
आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उत्तर:-
मेरे कार्य मूलतः आत्म चेतना से संचालित हैं। जो कुछ गलत है, नहीं होना चाहिये, मेरी रचनाएं उनके विरोध में खड़ी होती हैं और एक परिष्कृत समाज की कामना करती हैं। हर आदमी हथियार से लड़ाई नहीं करता। मेरा हथियार कलम है और कागज मेरा रणक्षेत्र। अपनी एक कविता में मैंने कहा है कि परिवर्तन किसी अवतारी का मोहताज नहीं होता। तो समाज और राष्ट्र से बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि व्यवस्था को कोसने के बदले हमें खुद आगे आना होगा। मेरी कहानियों के नायक बहुत ही साधारण और आम आदमी हैं जो इस विश्वास को पुख्ता करते हैं कि सहज-सामान्य व्यक्ति भी समाज में परिवर्तन लाने की ताकत रखता है, इसके लिए हीरो होना कोई जरूरी नहीं।
'मैसेंजर ऑफ आर्ट' में प्रत्येक माह 'इनबॉक्स इंटरव्यू' प्रकाशित होती है । इस माह के इस कॉलम में 14 गझिन प्रश्नों के बेबाक उत्तर उस महिला से जानिए, साहित्य की नव लौहमहिला श्रीमती अलका सिन्हा को उन्हीं की जुबानी उनके दर्शन से भी अवगत तो होइए, तो यह लीजिये....
श्रीमती अलका सिन्हा |
प्रश्न (1):-
आपके कार्यों को इंटरनेट के माध्यम से जाना। इन कार्यों अथवा कार्यक्षेत्र के आइडिया संबंधी 'ड्राफ्ट' को सुस्पष्ट कीजिये।
उत्तर :-
इंडियन एअरलाइन्स में सुरक्षा कर्मियों की भर्ती में महिला कर्मियों को प्रयोग के तौर पर लेने की योजना बनी। मैं उसी प्रयोग के तहत इस संस्थान में सुरक्षा सहायक के रूप में भर्ती हुई और इंडियन एअरलाइन्स के सुरक्षा विभाग से जुड़ी। बतौर महिला सुरक्षाकर्मी मैंने बहुत-सी अनुभव बटोरी और मेरी जानकारी बढ़ी।
इसके साथ-साथ लिखने-पढ़ने की रुचि के कारण ही मैं रेडियो और टीवी के कार्यक्रमों से जुड़ी । मेरी आवाज की प्रशंसा सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर जी ने भी तब की थी, जिनकी आवाज की दुनिया दीवानी है । ...तो वहीं मेरे लेखनकर्म के साथ-साथ मीडिया के क्षेत्र में भी पहचान बनती चली गयी । तेरह वर्षों तक गणतंत्र दिवस परेड के साथ-साथ राष्ट्रीय महत्व के अनेक कार्यक्रमों में 'आँखों देखा हाल' सुनाने का गौरव मुझे मिला है । युववाणी की प्रस्तोता से लेकर आकाशवाणी की नेशनल कमेंटेटर बनने की यात्रा सच में बहुत ही ऊर्जा प्रदान करती है। दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रम ‘पत्रिका’ की प्रस्तोता के रूप में न जाने कितनी साहित्यिक विभूतियों का सान्निध्य मिला, जो मन में साहित्यिक संवेदनायें भरती चली गयी ।
महत्वपूर्ण प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित मेरी सात किताबों ने लेखन के क्षेत्र में मुझे महती पहचान दिलाई और सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं से मेरी पुस्तकें पुरस्कृत भी हुईं । पुरुष वेश्यावृत्ति पर लिखी गई मेरी हालिया उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ इन दिनों चर्चा में है।
प्रश्न (2):-
आप किस तरह की पृष्ठभूमि से आई हैं? बतायें कि यह आपकी इन उपलब्धियों तक लाने में किस प्रकार का मार्गदर्शक बन पाया है?
उत्तर :-
मेरा जन्म भागलपुर (बिहार) में हुआ, किन्तु पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई। इस नाते महानगरीय परिवेश में मिली परवरिश के बावजूद गांव का संस्कार मुझे महत्वाकांक्षी भीड़ से अलग करती है, साथ ही मुझमें स्पष्टवादिता संस्कार व सच को सच और झूठ है तो झूठ है-- यह कहने पिताजी से मिला, जो स्वयं गांव से पढ़कर नौकरी करने दिल्ली आए थे। महानगरीय चकाचौंध और दिखावे से दूर मेरे पिता का व्यक्तित्व बहुत स्पष्ट और सादा है, इसीलिए मैं सादगी के सौन्दर्य को समझती हूँ तथा साफ-स्पष्ट दिखना, करना और बेलाग लिखना चाहती हूँ।
रही बात मेरी उपलब्धियों की, तो जो कुछ भी पाया है मैंने, उसके लिए अपने पाठकों और शुभचिंतकों की हृदयश: आभारी हूँ, किन्तु मैं हासिल करने के इरादे से काम नहीं करती, मुझे जो सही लगता है, मैं वही करती हूं । इससे मुझे क्या मिलेगा अथवा क्या खो जाएगा, इसकी बहुत चिंता करती तो शायद ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ उपन्यास लिखने की साहस नहीं जुटा पाती !
प्रश्न (3):-
आपका जो कार्यक्षेत्र है, इनसे आमलोग किस तरह से इंस्पायर अथवा लाभान्वित हो सकते हैं?
उत्तर:-
लेखन के प्रति मेरी जवाबदेही न केवल मजबूत बनाती है, अपितु मेरे भीतर आकर वह ऐसी दृढ़ता पैदा करती है, जो मुझे किसी भी दबाव को महसूसने तक नहीं देती !सत्यश:, अगर व्यक्ति अपने भीतर आत्मबल सृजित कर सके तो वह दुनिया की बड़ी से बड़ी लड़ाई जीत सकता है। यह देखकर कई बार अत्यंत दुःखी हुई हूँ कि लोग बहुत ही हल्का लाभ के लिए बड़े-बड़े समझौते कर लेते हैं, बावजूद एक वक्त ऐसा आता है जब वे महसूस करते हैं कि बहुत पाकर भी वे अंदर से खोखला हैं। कम से कम एक लेखक को इनसे बचना चाहिये। लेखक सर्जक होता है, इसलिए वह स्वयं ब्रह्म होता है। रचनाकार को ऐसी दुनिया का मानचित्र गढ़ना चाहिये, जो समाज को बेहतर जिंदगी दे सके।
प्रश्न (4):-
आपके कार्य में आई जिन रुकावटों, बाधाओं या परेशानियों से आप या संगठन रू-ब-रू हुए, उनमें से दो उद्धरण दें?
उत्तर:-
नागर विमानन सुरक्षा में काम करते हुए बहुत सी बाधाएं आईँ । इन बाधाओं ने ही मुझे कहानियों की ओर ले गई । सबसे बड़ी बाधा तो मानसिकता की थी । सुरक्षा जांच करते-करवाते हुए व्यक्ति खुद को शक के दायरे में महसूस करने लगता है जबकि सुरक्षा जांच उसपर शक करने के बावजूद उसकी सुरक्षा के नाते है। इस बात को समझा पाना बहुत मुश्किल था। दूसरी बात, विमान यात्री के सहयोग के बिना सही सुरक्षा जांच नहीं हो सकती, जबकि यात्री इससे अपमानित महसूस करते हैं।
एक बार सामानों की जांच करती हुई जब मैंने बैग खोल कर देखना चाहा तब पता चला कि वह सामान किसी सीनियर आईपीएस अधिकारी का था, जो तब आया भी नहीं था। उस अधिकारी के समय बचाने के लिए उसके मातहत किसी अधिकारी ने उसका सामान एक्स-रे के लिए रख छोड़ा था। उसके पास बैग पर लगे ताले की चाबी नहीं थी। मैंने इस पर आपत्ति जताई और सामान रोक लिया। यह खबर दस मिनट के भीतर पूरी शिफ्ट में फैल गई। मेरे शिफ्ट इंचार्ज ने आगे बढ़कर स्थिति को संभालने की कोशिश की, मगर बात बिगड़ती चली गई। तब तक आईपीएस अधिकारी भी आ चुके थे, पर मैं अपनी बात पर अडिग रही और सामान जांचने के बाद ही उसे विमान पर चढ़ाने की अनुमति दी।
ऐसी कई घटनाएं आए दिन घटती रहती थीं। उनमें से कुछ को थोड़े-बहुत बदलाव के साथ फिक्शन के रूप में अपने कहानी- संग्रह ‘सुरक्षित पंखों की उड़ान’ में शामिल किया है।
प्रश्न (5):-
अपने कार्यक्षेत्र के लिए क्या आपको आर्थिक दिक्कतों से दो-चार होना पड़ा अथवा आर्थिक दिग्भ्रमित होने के तो शिकार न हुए? अगर हाँ, तो इनसे पार कैसे पाये?
उत्तर:-
आर्थिक दिक्कतें तो हर किसी के साथ होती हैं। इच्छाओं का अंत नहीं है, चूंकि पैदल चलने वाला जहाँ गाड़ी की कामना करता है, तो गाड़ीवाले बड़ी गाड़ी की कामना करते हैं। फिर भी, मैं कह सकती हूँ कि मेरा आर्थिक संघर्ष मुझ पर कभी हावी नहीं होने पाया ।
'ट्रेड फेयर ऑथोरिटी ऑफ इंडिया' में लगी-लगाई अस्थाई नौकरी तब छूट गई, जब मैं 'मैटरनिटी लीव' पर गई हुई थी। बहुत दुख हुआ। आर्थिक तंगी से अधिक यह दु:स्थितियाँ खुद को नाकारा महसूस करने की चोट थी। ऐसे वक्त में ऑल इंडिया रेडियो में अस्थाई उदघोषक के तौर पर पैनल में रख ली गई। महीने में चार, छः बुकिंग्स मिल जाया करती थीं। कठिनाई में ही सही, पर गुजारा चल जाता था।
'इंडिया न्यूज' में श्रीमान मजीद अहमद की लोकप्रिय ऋंखला ‘मेरा कमरा’ के अंतर्गत मैंने जिक्र किया है कि जिन दिनों मेरी दूसरी बेटी होने वाली थी, उन दिनों मैं खट्टी उल्टियों के साथ सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रहती थी। एक कमरे के घर में मां (सासू मां) ने बीच में परदा डाल कर ससुर साहब और मेरे बीच की निजता को बचा रखा था। उसी कमरे में छोटा देवर पढ़ाई करते हुए मेरी बड़ी बेटी को स्कूल का होम वर्क भी करा दिया करता था। एक कमरे में हर किसी की अपनी दुनिया थी, अपना एकांत था। सब बड़ी शाइस्तगी से, बिना दखल दिए एक-दूसरे की दुनिया में आवाजाही करते थे।
आज भी याद है मुझे, पति की नौकरी नई थी और जमा जोड़े पैसे हमारी शादी और घूमने में खर्च हो गए थे। तब हमारे खाते में कुल 2700/-रुपये थे और ऐसे में मैंने 2400/- रुपये की अलमारी खरीद ली थी। खाता खाली हो गया था। ऐन इसी वक्त इंडियन एअरलाइन्स में नौकरी पाने का तार मिला और आर्थिक स्थिति सुधरने लगी !
प्रश्न (6):-
आपने यही क्षेत्र क्यों चुना? आपके पारिवारिक सदस्य क्या इस कार्य से संतुष्ट थे या उन सबों ने राहें अलग पकड़ लीं ?
उत्तर:-
हिंदुस्तान में अपनी पसंद का काम चुनने का समय अभी तक नहीं आया है। अधिकतर परिस्थितियों में काम आपको चुन लेता है। मैं भी कोई अपवाद नहीं रही। बस कुछ करना चाहती थी, अलग तरह का। ट्रेड फेयर में गाइड के तौर पर डेली वेज पर काम कर रही थी, जो मैटरनिटी के दौरान खत्म हो गई। इसी बीच एअर इंडिया में सुरक्षा विभाग में महिलाओं की भर्ती के लिए विज्ञापन आया। एनसीसी की ‘सी’ सर्टिफिकेट प्राप्त होने के कारण मैं जरूरी शर्तें पूरी करती थी। मैंने इसकी लिखित परीक्षा पास की। उसके बाद शारीरिक क्षमता परीक्षा थी, जिसमें तय समय में एक निश्चित दूरी तक दौड़ लगानी थी । मैं प्रथम संतान की मां बनी थी, जो कि अभी 6 माह भी नहीं हुई थी । शरीर कच्चा (प्रसव के बाद की दुर्बल स्थिति) था। दिसंबर की कंपकंपाती ठंड में कड़े अभ्यास से निर्धारित समय से बहुत कम समय में ही मैं वह दूरी तय कर लेती थी, मगर शारीरिक क्षमता परीक्षा से ठीक एक रोज पहले जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में अभ्यास के दौरान मेरी पैर अचानक ही मुड़ गई और फ्रैक्चर हो गई । फिटकिरी वाले गर्म पानी में पैर सेंकने के बावजूद मैं अगले दिन की परीक्षा में ठीक से दौड़ नहीं पाई। चार कदम दौड़ते ही गिर पड़ी और यह नौकरी मिलते-मिलते हाथ से फिसल गई। तीन माह के लिए बायीं पैर पर प्लास्टर ऑफ पेरिस चढ़ा दी गई थी । इसी दौरान इंडियन एअरलाइन्स के सुरक्षा विभाग में भर्ती निकली । पैर टूटा था, किन्तु हौसला नहीं ! मैंने इसके लिए अप्लाइ कर दी और फिर पास हुई । इस बार बात बन गई और मैंने इंडियन एअरलाइन्स ज्वाइन कर लिया।
हमें इसमें ऐन्टी सैबटाज चेक यानी बम विस्फोट की रोकथाम का काम करना था। मेरे घर में तो क्या, समाज में भी लड़कियों की यह भूमिका बिलकुल नई थी, पर मुझे भी तो कुछ अलग करने की उत्कट लालसा थी और कुछ मजबूरियां भी थीं। इसलिए जोखिम भरा काम होने के बावजूद मैंने बिना समय गंवाए इसे ज्वाइन कर लिया।
परिवार की प्रतिक्रिया के बारे में कहूं तो एक बार मेरे पिता ने विमान यात्राक्रम में यह कहा, “सुरक्षा जांच के दौरान मैंने वहां जब लड़कियों को मुस्तैदी से इस जिम्मेदाराना काम को करते देखा तो मुझे अपनी बेटी पर फक्र हुआ।”
नौकरी के साथ-साथ आगे की पढाई-लिखाई और बच्चों की परवरिश में मेरे पति हमेशा मेरे साथ-साथ चलते रहे हैं और मैं अपने हर्ष और संघर्ष के गीत उनके नाम लिखती रही हूँ।
प्रश्न (7):-
आपके इस विस्तृत-फलकीय कार्य के सहयोगी कौन-कौन हैं? यह सभी सम्बन्ध से हैं या इतर हैं?
उत्तर:-
लेखन कार्य में आसानी से कुछ हासिल नहीं होता ! फिर भी, घर के लोगों ने मेरा साथ दिया। मेरे पति मेरे कार्यक्रमों में प्रायः साथ आते-जाते हैं जिससे मैं कई प्रकार की चिंता और तनावों से मुक्त रहती हूँ। मेरी पुस्तकों की प्रूफ रीडिंग वे अपने स्तर पर भी करते हैं। मैं दावे से कह सकती हूँ कि मेरी किताबों में प्रूफ की कमी निकालना एक चुनौती होगी। मेरी पहली किताब निकल रही थी। उस समय मेरे बच्चे बहुत छोटे थे। इतने छोटे कि तब वे सृजनात्मकता का मतलब भी नहीं जानते थे, मगर वे इतना समझते थे कि उनकी मां कोई विशिष्ट काम कर रही हैं और उन्होंने अपने हिस्से का समय खुशी-खुशी मेरे नाम कर दिया। तभी मैंने अपनी पहली किताब के लिए अपने बच्चों के प्रति आभार ज्ञापित की है, “मेरी शोणित रचनाएं -- प्राची और शाद्वल, तुम्हें धन्यवाद कैसे दूं, तुमसे तो क्षमा मांगती हूँ कि तुम्हारे हिस्से का वक्त चुरा लेने का नतीजा ही तो है ये कविताएं !”
पुरुष-वेश्यावृत्ति जैसे विषय पर लिखने का साहस जुटाने में मेरे पिता ने यह कहकर मुझे साहस दिया कि लेखक समाज का डॉक्टर होता है, अगर वही रोग के बारे में पूरी जानकारी देने में झिझकेंगे, तब इस काम को कौन करेगा ? ससुरालवाले भी मेरे लेखन से गौरवान्वित होते हैं । मेरी किताबों के कवर पेज और उस पर मेरे चित्र को अंतिम रूप देने से पहले मेरे परिवार का होमवर्क भी कम नहीं होता। मेरी पहली कविता-संग्रह ‘काल की कोख से’ के प्रत्येक पृष्ठ पर मेरे चित्रकार देवर गुलशन की चित्रकारी लिए है।
अपने खाते में उन आत्मीय मित्रों का होना भी मैं अपना भाग्य समझती हूँ, जिनके साथ चाय की चुस्कियों के साथ बहसें होती रहती हैं । सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ में पुरुष-वेश्यावृत्ति जैसे अनछुए विषय पर उन्होंने मुझसे खुल कर चर्चा की और मेरा आत्मबल बढ़ाया।
प्रश्न (8):-
आपके कार्य से भारतीय संस्कृति कितनी प्रभावित होती है ? इससे अपनी संस्कृति कितनी अक्षुण्ण रह सकती है अथवा संस्कृति पर चोट पहुँचाने की कोई वजह ?
उत्तर:-
भारतीय संस्कृति बहुत ही समृद्ध और गौरवशाली है। मेरी रचनाओं का मकसद उन मूल्यों को पुनर्सृजित करना है, जो आधुनिकता के नाम पर खत्म होते जा रहे हैं। इस नाते मैंने कई रचनाओं के माध्यम से खंडित होते जा रहे मूल्यों पर कुठाराघात भी किया है। बल्कि प्रारंभिक रचनाओं में विद्रोही स्वर प्रमुख रहा है, जो धीरे-धीरे, उम्र के साथ गहरे और ठहरे हुए ढंग से अभिव्यक्त होने लगा है। ‘गहरे तालाब की विरासत’, ‘चांदनी चौक की जुबानी’, ‘अपूर्णा’, ‘फादर ऑन हायर’ जैसी अनेक कहानियां इस श्रेणी में रखी जा सकती हैं। उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ उस जीवन शैली पर प्रहार करता है, जिसमें आधुनिकता के नाम पर एक सामाजिक विकृति को बढ़ावा मिल रहा है और हमारा युवा वर्ग दिग्भ्रमित हो रहा है।
प्रश्न (9):-
भ्रष्टाचारमुक्त समाज और राष्ट्र बनाने में आप और आपके कार्य कितने कारगर साबित हो सकते हैं ?
उत्तर:-
शब्द ब्रह्म है। उसमें इतनी ताकत होती है कि जो मरते हुए व्यक्ति को आत्मविश्वास से भर देते हैं। मगर इसके लिए शब्द को साधना होता है और केवल ईमानदार रचनाएं ही ऐसी ताकत जुटा सकती हैं वरना आजकल तो जिस तरह थोक भाव से रचनाएं आ रही हैं कि शब्द पर अर्थहीन होने का संकट गहराने लगा है। इसीलिए मैं गणना से अधिक गुणवत्ता में विश्वास करती हूँ। दृष्टिबाधित व्यक्तियों के लिए लिखी गई मेरी कहानी ‘जन्मदिन मुबारक’ तीन साल तक दिमाग में घूमती रही। मैं इसका अंत तय नहीं कर पा रही थी। कारण यह कि मैं जो मैसेज देना चाहती थी, उससे समझौता नहीं कर सकती थी। लगभग तीन साल बाद अचानक एक ख्याल आया कि इस कहानी का ट्रीटमेंट इस तरह किया जाए तो समाज को एक राह मिल सकती है। मुझे इस कहानी को लिख कर बहुत संतोष मिला।
इसी प्रकार ‘अपूर्णा’ कहानी भी एक महीन बुनावट लिए कहानी है, जो आजादी की लड़ाई से लेकर अबतक के सफर का खुलासा करती है । दोनों वक्त आमने-सामने होकर पाठकों को यह सोचने को विवश करते हैं कि क्या इन्हीं मूल्यों के लिए हमने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी और हमारे परिजनों ने अपनी जानें गंवाईं ? पाठको के सोच का स्तर को समृद्ध करना ही मेरे लेखन का महत्वपूर्ण ध्येय है।
प्रश्न (10):-
इस कार्य के लिए आपको कभी आर्थिक मुरब्बे से इतर किसी प्रकार के सहयोग मिले या नहीं ? अगर हाँ, तो संक्षेप में बताइये।
उत्तर:-
कुछेक पुरस्कारों से प्राप्त राशि इतनी तो होगी ही, जिनसे रचनाओं की टाइपिंग इत्यादि का खर्चा निकल जाए। वैसे कोई लेखक आर्थिक लाभ से अधिक सामाजिक और पाठकीय स्वीकृति की कामना रखता है ।
प्रश्न (11):-
आपके कार्य क्षेत्र के कोई दोष या विसंगतियां, जिनसे आपको कभी धोखा, केस या मुकद्दमे की परेशानियां झेलनी पड़ी हों ?
उत्तर:-
जीवनयापन के लिए जिस क्षेत्र को चुना वहां की सीमितताओं को अपनी क्षमता मानते हुए काम कर रही हूँ। जहां तक सवाल है लेखन का, तो विश्वास का छला जाना ही तो लेखन के लिए जमीन तैयार करता है। तमाम कहानियां ऐसी घटनाओं के स्पर्श से ही तो लिखी गई हैं। मशहूर शायर राजगोपाल जी का शेर कहना चाहती हूँ --
“तुम हमें नित नई व्यथा देना,
हम तुम्हें रोज इक ग़ज़ल देंगे।”
प्रश्न (12):-
कोई किताब या पैम्फलेट जो इस सम्बन्ध में प्रकाशित हो, तो बताएँगे ?
उत्तर:-
अब तक की प्रकाशित सात कृतियां इसी से संबंधित हैं। कविता संग्रह - काल की कोख से (वाणी प्रकाशन), मैं ही तो हूँ ये (नेशनल पब्लिशिंग हाउस), तेरी रोशनाई होना चाहती हूं (किताबघर प्रकाशन) ; कहानी संग्रह - सुरक्षित पंखों की उड़ान (किताबघर प्रकाशन), मुझसे कैसा नेह (किताबघर प्रकाशन) तथा ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ की नवसाक्षर साहित्यमाला के अंतर्गत प्रकाशित कथा पुस्तक ‘खाली कुरसी’; उपन्यास ‘जी-मेल एक्सप्रेस’ (किताबघर प्रकाशन) ।
प्रश्न (13):-
इस कार्यक्षेत्र के माध्यम से आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए, बताएँगे ?
उत्तर:-
कविता-संग्रह ‘मैं ही तो हूँ ये’ पर हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार द्वारा साहित्यिक कृति सम्मान (2002), संसदीय हिंदी परिषद् द्वारा संसद के केंद्रीय कक्ष में राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान (2009), कविता-संग्रह ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’ पर परंपरा ऋतुराज सम्मान (2011), महात्मा फुले रिसर्च अकादमी, नागपुर द्वारा अमृता प्रीतम राष्ट्रीय पुरस्कार (2011), कहानी ‘धिनाधिन...धिन...धिनाधिन’ पर कमलेश्वर-स्मृति कथाबिंब सर्वश्रेष्ठ कथा पुरस्कार (2014), उपन्यास 'जी-मेल एक्सप्रेस' पर 'सृजनलोक नयी कृति सम्मान’ (2017)।
प्रश्न (14):-
आपके कार्य मूलतः कहाँ से संचालित हो रहे हैं तथा इसके विस्तार हेतु आप समाज और राष्ट्र को क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
उत्तर:-
मेरे कार्य मूलतः आत्म चेतना से संचालित हैं। जो कुछ गलत है, नहीं होना चाहिये, मेरी रचनाएं उनके विरोध में खड़ी होती हैं और एक परिष्कृत समाज की कामना करती हैं। हर आदमी हथियार से लड़ाई नहीं करता। मेरा हथियार कलम है और कागज मेरा रणक्षेत्र। अपनी एक कविता में मैंने कहा है कि परिवर्तन किसी अवतारी का मोहताज नहीं होता। तो समाज और राष्ट्र से बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि व्यवस्था को कोसने के बदले हमें खुद आगे आना होगा। मेरी कहानियों के नायक बहुत ही साधारण और आम आदमी हैं जो इस विश्वास को पुख्ता करते हैं कि सहज-सामान्य व्यक्ति भी समाज में परिवर्तन लाने की ताकत रखता है, इसके लिए हीरो होना कोई जरूरी नहीं।
"आप यूं ही हँसती रहें, मुस्कराती रहें, स्वस्थ रहें, सानन्द रहें "..... 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' की ओर से सहस्रशः शुभ मंगलकामनाएँ !
नमस्कार दोस्तों !
मैसेंजर ऑफ़ आर्ट' में आपने 'इनबॉक्स इंटरव्यू' पढ़ा । आपसे समीक्षा की अपेक्षा है, तथापि आप स्वयं या आपके नज़र में इसतरह के कोई भी तंत्र के गण हो, तो हम इस इंटरव्यू के आगामी कड़ी में जरूर जगह देंगे, बशर्ते वे हमारे 14 गझिन सवालों के सत्य, तथ्य और तर्कपूर्ण जवाब दे सके !
हमारा email है:- messengerofart94@gmail.com
prernaprd
ReplyDelete