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4.18.2018

'राह और मंजिल में श्रेष्ठ कौन ?' (एक धारदार कविता)

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     18 April     कविता     No comments   

ज़िंदगी आशाजनक है, तो निराशाजनक भी ! अगर आप आशावादी हैं और कोई परिणाम हमेशा ही आपके विरुद्ध रहा, तो आशाएँ डगमगाने लगती हैं । फिर एकबार निराश और हताश हुए, तो इस फ्रस्टेशन से उबरने में बेहद मुश्किलात आती हैं । हम इंसान किन्हें मानते हैं । हाँ, इंसान भी कभी-कभी ऐसे द्वंद में आबद्ध हो घिर आते हैं कि वे सही और गलत का फैसला नहीं ले पाते हैं ? आज मैसेंजर ऑफ आर्ट में पढ़ते हैं, श्रीमान नितिन श्रीवास्तव की कविता, जिनमें राह और मंजिल के मध्य 'श्रेष्ठ कौन' को तार्किक ढंग से बताया है ! क्या मंजिल भटकाव है, भ्रम है ? क्या राहें वास्तविक है, सच है ? तो निर्णय खुद लीजिए.....

श्रीमान नितिन श्रीवास्तव


राह और मंजिल में श्रेष्ठ कौन ?


मंजिल से दूर एक रास्ता दिखा 
और मैं चल पड़ा,
बिना ये जाने कि कहाँ पहुंच पाऊंगा ?
कभी-कभी भटकने पर भी मजा होता है,
बल्कि मजा तो भटकने में ही होता है...!
क्या है यह दुनिया ...?
बस एक घिसे हुए टेप की तरह चलते रहो,
वही करते रहो जो कल किया था 
और परसों फिर करोगे...!
तो मैंने भटकने का फैसला किया,
रास्ते भी बड़े अजीब होते हैं 
कहीं न कहीं तो पहुंचाते ही हैं...!
जबकि मंजिलें तो ठहरी रहतीं हैं
वहीं के वहीं...?
पर हमने मंजिलों को ऊपर बैठाया,
रास्तों को भुलाकर...!
मगर भटकाना हो, 
तो रास्ते ही काम आते हैं, मंजिलें नहीं !
मैं भटकना चाहता हूँ,
इसलिए मैं चल पड़ा ...!
रास्ते पे रास्ते की तलाश में,
मंजिलों की नहीं,
क्योंकि मंजिलें ठहरी हुई हैं, रास्ते नहीं !
रास्ते चुनते वक्त लोग 
गलत-सही का फैसला करना चाहते हैं,
मैं नहीं करना चाहता !
क्योंकि भटकना तो तभी मुमकिन,
जब रास्ता गलत हो,
फिर रास्ते सही हो या गलत, 
पर चलने का मजा तो देते हैं,
मंजिलें तो ठहरी हुई हैं...?
और मंजिलें तो गलत ही होती हैं,
किसी की मंजिल है धन कमाना,
पर जब मंजिल मिलती है, 
तो पता चलता है कि कितनी जड़ है,
कितनी ठहरी हुई है,
मैं ही पागल था, जो इसके पीछे...?
इस धन के पीछे पागल था
जब पाया तो देखा ठहराव
देखी जड़ता
अब समझ में आया कि रास्ता बेहतर था
मंजिल तो भरम है, जिन्होंने हमें भटकाया
फिर मंजिल धन की हो, 
नाम की हो या कुछ और की,
सब भटकाव है ।
हाँ, मंजिल भविष्य है,
रास्ता वर्तमान है ।
मंजिल भ्रम है,
रास्ता सच है ।
मंजिल माया है,
रास्ता मोक्ष ।
मंजिल इच्छा है,
रास्ता खुशी ।
इसीलिए मैंने रास्ते को चुना
मैंने वर्तमान को चुना
सही हो या गलत, मैंने चलने को चुना
जो चलता है, मदमस्त वही 
वह ही मस्ती को समझ सकता है
बाकी मंजिलें तो फरेब है,धोखा है...!
सिर्फ भटकाती हैं
रास्ते ही चलने का मजा देते हैं
जीवन एक रास्ता है
जिसे वही समझ पाता है, 
जो मंजिलों से परे हर पल उसे जीने की कोशिश करता है
जो हर पल इसे जीता है
जो रास्ते में मिलने वाले पेड़ों के 
और धूप का बराबरी से मजा लेते हैं
जो झरनों की कल-कल का आनन्द लेता है
जो रिमझिम बारिश में खुद को भिंगोता है
क्योंकि जीवन सिर्फ एक रास्ता है
जिसकी कोई मंजिल नहीं !
मंजिलों की तलाश में भटक जाते हैं लोग
वरना जीवन एक ऐसा रास्ता है, जो भटकाता नहीं 
बल्कि आनंद से भर देता है 
सिर्फ मंजिलों की तलाश छोड़नी होती है
और सिर्फ रास्ते पर चलना होता है
भटकना होता है
सम्भलना होता है
जीवन को तलाशे बिना सिर्फ़ जीना होता है
पर यही है सबसे मुश्किल कार्य...!
क्योंकि मंजिलें हमें आकर्षित करती हैं
हमें भरम में डालती हैं 
कि हमारा जीवन इन मंजिलों के बिना कुछ नहीं !
मंजिलें हमें सिर्फ भटकाती हैं
और रास्ते तो हमें चलना सिखाते हैं
आनंद से, परिपूर्णता से....
इसलिए मैं चल पड़ा .... 
ऐसे-जैसे चलना ही मेरी मंजिल है
और मैं चल पड़ा...!


नमस्कार दोस्तों ! 

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