कुछ कहानियां अनकही होती हैं, तो कुछ लार-लपेट पकवान की भाँति ! सृष्टि के आरंभ से ही यह बात उभरकर आयी है कि लेखक की कल्पना कभी न कभी मूर्त रूप लेकर विज्ञान का एक हिस्सा हो ही जाता है, गत वर्ष प्रकाशित लघुकथा 'टूटती लाशें' भी आख़िरत: वहीं तक पहुंचती है । वह लघुकथा दुनिया की सच्चाई को प्रस्तुत करती है !
आज मैसेंजर ऑफ़ आर्ट में श्रीमान उस्मान खान की प्रस्तुत कथा-कहानी 'मनोवैज्ञानिक ' हलचल है ! कथानायिका नेहा के पुरुषमित्र उनको छोड़कर चले जाते हैं, क्या वह किद्दू है ? प्रस्तुत कहानी पढ़ने के बाद ही हम जान पाएंगे कि यह कहानी क्या कहना चाह रही है ?
प्रस्तुत कहानी के शीर्षक पर उनकी किताब भी आने वाली है । आइये, किताब आने से पहले खान साहब के कहानी-संग्रह से प्रस्तुत कहानी को बिना देर किये यहाँ रखते हैं, तो इसे पढ़ ही डालिए तो सही...........
आज मैसेंजर ऑफ़ आर्ट में श्रीमान उस्मान खान की प्रस्तुत कथा-कहानी 'मनोवैज्ञानिक ' हलचल है ! कथानायिका नेहा के पुरुषमित्र उनको छोड़कर चले जाते हैं, क्या वह किद्दू है ? प्रस्तुत कहानी पढ़ने के बाद ही हम जान पाएंगे कि यह कहानी क्या कहना चाह रही है ?
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श्रीमान उस्मान खान |
तुमसे किसने पूछा
ज़िन्दगी में कई बार ऐसे मोड़ आते हैं, जब हम इतने हताश और निराश हो जाते हैं कि लगने लगता है मानो सब कुछ टूटकर बिखर गया है। लेकिन जो टूटकर बिखर जाने के बाद फिर से खड़े होते हैं और मंजिल की तऱफ बढ़ते हैं, वही लोग ज़िन्दगी को सही मायनों में जीते हैं।
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर जब आप खुद को बेहद टूटा हुआ महसूस करें, तो याद रखें, एक जापानी परम्परा के अनुसार, जब कोई वस्तु टूट जाती है, तो उसे कई बार सोने से जोड़ा जाता है। इससे टूटी हुई वस्तु की ख़राबी, खूबी में तब्दील हो जाती है, और वस्तु की क़ीमत बढ़ जाती है। ठीक उसी प्रकार कभी-कभी टूटने से ज़िन्दगी और ज्यादा कीमती बन जाती है। टूटकर जुड़ने में इंसान को जो लगन लगती है, वही इंसान को मूल्यवान बनाती है।
शुरूआत तो त़करीबन पाँच साल पहले एक अनजानी मुला़कात से हुई थी। तुम मेरी यूनिवर्सिटी में आये थे और तुमने विश्व महिला दिवस पर महिलाओं के अधिकारों की जमकर वकालत की थी। ‘महिलाएँ हर मामले में पुरुष के बराबर हैं।’ यह बताते हुए तुमने कल्पना चावला, सावित्रीबाई फुले, फ़ातिमा शे़ख से लेकर न जाने कितनी महिलाओं के नाम गिना दिए थे । मैं स्टूडेंट थी। तुम्हारी बातों ने मुझ पर जादू जैसा असर किया था। तुम्हारे दिल में महिलाओं को लेकर सम्मान और जो तुम्हारा ऩजरिया था, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया था और न जाने कब मैं तुमसे प्यार कर बैठी ? पता ही नहीं चला !
लेकिन उन सब बातों को अब मैं याद नहीं करना चाहती हूँ। वह सब अब बीत चुका है, जिनको दोहराने का मतलब है, खुद के जख्मों को नाखून से कुरेदना ।
मुझे याद है, वह दिसम्बर की सर्दियाँ ही थीं । अचानक तुमने मुझसे धीरे-धीरे किनारा कर लिया था। उन दिनों मैं बेहद तनहा रहती थी। कई बार इतनी तनहा कि कई-कई दिन गु़जर जाते थे, मेरे पास बात करने तक को कोई नहीं होता था और तब अक्सर मैं जोर-़जोर से खुद से बातें करने लगती थी, घंटों पुराने ख्यालों में खोई रहती। ज़िन्दगी जैसे बँध सी गई थी। सुबह को भाग-भागकर, दिल्ली मेट्रो के नीले प्लेटफॉर्म से पीले प्लेटफॉर्म को साँप-सीढ़ी के जैसे बदलते हुए ऑफिस और शाम को फिर वही कंधे से कंधा ठेलते ऑफिस से घर, उल्टा-सीधा खाना खाने और देर रात जागते हुए सो जाना... बस यही ज़िन्दगी के कुछ हिस्से थे, जिन्हें मैं जिए जा रही थी । कहना मुश्किल है कि मैं ज़िन्दगी जी रही थी या ज़िन्दगी गु़जार रही थी। इतना तनहा पहले कभी मैंने खुद को महसूस नहीं किया था। अचानक से सब कुछ इतना दूर चला जायेगा, मैंने सोचा भी न था। तुम मेरे पास नहीं थे, लेकिन तुम्हारा एहसास आज भी हर पल मेरे पास है ।
ऐसी ही एक रात जब मैं मेट्रो से निकलकर सुनसान बस स्टैंड पर खड़ी किसी ऑटो के आने का का इंत़जार कर रही थी, तो अचानक वह मुझे मिल गया। मैं उसको कनखियों से देखने लगी। एक दो बार के बाद उसको एहसास हो गया कि मैं उसको देख रही हूँ। उस सुनसान बस स्टैंड पर मेरे और उसके अलावा और कोई नहीं था। स्ट्रीट लाइट की रोशनी बेहद मद्धम थी। वह जीन्स टीशर्ट पहने था, जिस पर उसने एक खुला हुआ हुड वाला स्वेट शर्ट पहना हुआ था। कंधे पर एक छोटा सा बैग था और सर पर ऊनी कैप । शायद उसको भी मेरी तरह किसी ऑटो के आने का इंत़जार था । मेरा दिल चाह रहा था कि मैं उससे बात करूँ, लेकिन न जाने क्यों हिम्मत नहीं जुटा पाई ?
‘आप नेहा हो?’ मैंने उससे इस तरह अचानक सवाल की उम्मीद नहीं की थी, वह भी सीधा मेरे नाम के साथ। लेकिन ऐसा होना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी जानने वाले से अचानक कहीं न कहीं मिल जाते हैं। मैंने उसके चेहरे को देखते हुए धीरे से ‘जी’ बोला, और अपने दिमाग़ पर जोर देने लगी कि वह कौन है ? मुझे कैसे जानता है ?
‘‘आप रो़ज यहाँ से निकलकर साउथ एक्सटेंशन तक जाती हो, फिर देर रात तक जागती हो, और भाग-भागकर सुबह फिर ऑफिस आती हो; दिन भर सब पर गुस्सा करती हो और यहाँ तक कि कैंटीन के खाने तक पर गुस्सा निकालती हो; इनसे जो बच जाता है वह भड़ास फेसबुक पर लिखकर निकालती हो।’’
‘‘आप... आप कौन हो? इतना कुछ कैसे जानते हो... ’’
वह अब बिल्कुल मेरे पास खड़ा था । मैं उसको आँखे फाड़-फाड़कर देख रही थी और जानने की कोशिश कर रही थी कि आख्रिर वह कौन है? मैं अपने दिमा़ग पर जोर दे रही थी कि कहीं यह मेरा कोई स्टूडेंट तो नहीं है, जिससे मैं चार साल पहले ही पीछा छुड़ा चुकी थी... या शायद मेरे साथ किसी ऑफिस में जॉब करता था। एक पल में ही मैंने कई चेहरे खंगाल डाले, लेकिन उसका चेहरा उनमें ऩजर नहीं आया। तब आख़िरी उम्मीद के साथ दिमाग़ पर जोर देते हुए मैंने मान लिया कि जरूर कोई फेसबुक फ्रेंड है, जो मेरी पोस्ट पढ़ता है । मैंने फिर वही सवाल दोहराई-- ‘‘आप कौन हो ?’’
वह अब बिल्कुल मेरे पास खड़ा था । मैं उसको आँखे फाड़-फाड़कर देख रही थी और जानने की कोशिश कर रही थी कि आख्रिर वह कौन है? मैं अपने दिमा़ग पर जोर दे रही थी कि कहीं यह मेरा कोई स्टूडेंट तो नहीं है, जिससे मैं चार साल पहले ही पीछा छुड़ा चुकी थी... या शायद मेरे साथ किसी ऑफिस में जॉब करता था। एक पल में ही मैंने कई चेहरे खंगाल डाले, लेकिन उसका चेहरा उनमें ऩजर नहीं आया। तब आख़िरी उम्मीद के साथ दिमाग़ पर जोर देते हुए मैंने मान लिया कि जरूर कोई फेसबुक फ्रेंड है, जो मेरी पोस्ट पढ़ता है । मैंने फिर वही सवाल दोहराई-- ‘‘आप कौन हो ?’’
‘‘छोड़ो न... मुझे कोई कहानी सुनाओ न !’’ यह बेहद अजीब-सी फरमाइश थी, वह भी एक अनजान लड़के के द्वारा, जिसको मैं दिमाग़ पर का़फी जोर देने के बाद भी नहीं पहचान पाई थी और उसकी पहचान को खारि़ज कर चुकी थी कि मैं इसको पहले से जानती हूँ।
‘‘कहानी ? इस व़क्त ? और आप कौन हो... आपका नाम ?’’ न जाने क्यों मैं एक अजीब-सी कैफ़ियत खुद में महसूस कर रही थी। मैंने फिर वही सवाल दोहराया।
‘‘नेहा, वह सब छोड़ो... अभी बहुत व़क्त बा़की है। कोई कहानी सुनाओ, लेकिन पुरानी या सुनी सुनाई नहीं।’’
‘‘तो फिर...?’’ मुझे अपने सीने में एक जलन-सी महसूस हो रही थी। दिल कर रहा था कि इस जलन को आँसुओं से धो दूँ । यह सब बेहद अजीब था। दिल कर रहा था कि मैं फूट-फूटकर रो दूँ ।
‘‘अभी... अभी सुनाओ, तुरंत कोई कहानी बनाकर सुनाओ।’’ यह बेहद अविश्वसनीय-सा था। वह अगले ही पल किसी बच्चे के जैसा ठुनकने लगा। अगर मैं एक पल की और देर करती तो शायद वह रो देता। वह मेरा चेहरा देख रहा था और मेरे लबों के खुलने का इंत़जार कर रहा था।
‘‘ठीक है बाबा सुनो !’’ कहकर मैंने बोलना शुरू किया । वह मेरा चेहरा देख रहा था ।
‘‘उन दिनों मैं दसवीं क्लास में पढ़ती थी। मेरे पड़ोस में सड़क के पार एक लड़का रहता था, जो कि मुझसे का़फी छोटा था। वह अनाथ था। उसके माँ-बाप दोनों ही मर चुके थे और दूर के रिश्तेदारों के लिए वह एक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए किसी ने उसकी कोई सुध नहीं ली। वह सड़क के किनारे बनी दुकानों के शेड के नीचे रहता था। रात को वहीं सोता था और दिन में लोगों के छोटे-मोटे काम कर देता था, जिससे कि लोग उसको खाने को दे देते... कोई उसको चाय पिला देता था, तो कोई उसको पुराने कपड़े पहनने को दे देता।
क्योंकि उसकी परवरिश सड़क पर हो रही थी, जिसकी वजह से गालियाँ देना, चोरी करना, लड़ाई-झगड़ा करना, कंचे खेलना, धीरे-धीरे उसकी आदत बनती जा रही थी। इतनी कम उम्र में भी उसके दाँत हर व़क्त गुटखे से बदरंग रहते। वह जब भी किसी के पास जाता, लोग उससे जमकर काम करवाते, और बदले में घर का बासी खाना दे देते, या फिर चाय । किस्मत अच्छी रही तो कभी-कभार कोई मिठाई भी मिल जाती । कई बार वह सीधा खाना या चाय न लेकर पैसे माँगता। तब कोई उसके हाथ पर एक-दो रुपए का सिक्का रख देता।
उसका असली नाम क्या था, मैं आज भी नहीं जानती... बस सब उसको किद्दू कहते थे। अनाथ होने के बावजूद वह खाना खाने में बेहद नखरे करता था। ऐसा नहीं था कि आप उसको जो दोगे खा लेगा; जो उसको पसंद होता था वही खाता था, जो नहीं पसंद आता, उसको अपने कुत्ते को खिला देता। इन नखरों के कारण वहाँ उसको लोग दूर दूर तक ‘‘किद्दू क्या खाएगा?’’ बोलकर चिढ़ाते। वह भर-भर कर माँ-बहन की गालियाँ देता। आस-पास के सभी दुकान वाले, ठेले वाले, पटरी वाले, बुक्का फाड़कर जोर-़जोर से हँसते । जितना वह गालियाँ देता, लोग उतना ही उसको छेड़ते । उन छेड़ने वालों में मैं भी शुमार थी। जब भी किद्दू दिखता, बा़की लोगों के जैसे ही मैं भी उसको ‘‘किद्दू क्या खायेगा?’’ बोलकर छेड़ती और ते़जी से अपने घर के दरवा़जे की तरफ भाग जाती। लेकिन न जाने क्यों, किद्दू मुझको गालियाँ नहीं देता । वह ‘‘अले जाओ याल।’’ बोलकर निकल जाता। उसकी ज़िन्दगी सड़क पर ठोकर खाते पत्थर से ज्यादा कुछ नहीं थी, लेकिन फिर भी वह मेरे लड़की होने का मान रखता।
लोग उसको अठन्नी-चवन्नी देने से पहले, जमकर परेशान करते, फिर कोई चाट के ठेले वाले से कहता ‘‘अरे काले, जरा किद्दू को मेरी तरफ से आलू खिला देना, अठन्नी मुझसे ले लियो।’’ इतना होने के बाद भी किद्दू, चटपटे आलू खाने के लालच में तुरन्त सब भूल जाता, और ठेले की तऱफ खुशी-़खुशी दौड़ जाता। उसको छेड़ने में जो शब्द वह इस्तेमाल करते, वह बेहद तकली़फदेह होते थे, लेकिन किद्दू अभी इतना बड़ा नहीं था कि उन शब्दों को समझ पाता... वह तो बस, जो जैसा कहता, नाक सुड़कते हुए उसको पलटकर वही गाली दे देता।
कोई कहता ‘वह बड़े दाँत वाली खप्पड़ रंडी तेरी अम्मा है, वही तुझे नाले के पास डाल गई थी।’ तो कोई कहता ‘किद्दू गुड़वंती है, दो रुपये के बदले इसने खेत में बंगाली के लौंडे को दी थी।’ किद्दू उनकी बात का वही मुँहतोड़ जवाब दोहरा देता कि खप्पड़ रंडी की तू औलाद, मैं नहीं। तूने बंगाली के लौंडे से मरवाई है, मैंने नहीं, मैं गुड़ नहीं हूँ।
दिन ऐसे ही बीत रहे थे। सब किद्दू को चिढ़ाते, छेड़ते, या फिर किद्दू के जरिये किसी बुड्ढे-ठुड्डे को छेड़ते। जैसा कि मैंने बताया, उन छेड़ने वाले लोगों की जमात में मैं भी शामिल थी। जब भी किद्दू को देखती, तुरंत जोर से, कभी छत के छज्जे से तो कभी दरवा़जे से ‘किद्दू क्या खायेगा?’ आवा़ज लगा देती। किद्दू ‘‘अले जाओ याल।’’ बोलता हुआ हाथ झटकता हुआ वहाँ से निकल जाता।
एक शाम बहुत ते़ज बारिश हुई । मैं और मेरे चचेरे भाई-बहन, मोहल्ले के बाकी बच्चों के साथ इकट्ठा खड़े थे। हम लोग भरे हुए गंदे पानी में अठखेलियाँ कर रहे थे।
तभी एक साथी लड़के ने फुसफुसाते हुए कहा ‘‘देख-देख, किद्दू आ रहा है।’’ सबने उधर देखा।
एक हाथ में खाने की पॉलीथीन और एक हाथ में हवाई चप्पलें थामे किद्दू, भरे हुए गंदे पानी में छपड़-छपड़ करता हुआ बढ़ता जा रहा था। हम सबने एक साथ आवा़ज लगाई ‘‘किद्दू क्या खायेगा...?’’
‘‘अले याल... हम मर भी जायेंगे तब भी तुम लोग मेरी कबर पर आकर यही कहना।’’ कहता हुआ किद्दू बढ़ गया। हम सब जोर-़जोर से बुक्का फाड़कर हँस दिए।
नमस्कार दोस्तों !
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