व्यवस्था से हम इतने दुःखी हो जाते हैं कि कभी-कभी लगता है कि हमें आज़ादी ही क्यों मिली ? घोटाला, कुव्यवस्था, भ्रष्टाचार इत्यादि इतने आकंठ डूब चुके हैं कि ईमानदारी और सदाचारिता को पूछो ही मत ! यही गुस्सा ईश्वर और ख़ुदा पर भी है, जो एक होकर दो क्यों हैं ? ... और दो है भी तो ये अक्षमों, असमर्थों, निर्धनों के पास क्यों नहीं रहते हैं ? आज ईश्वर की वंदना लोग प्रतिशत के हिसाब करते हैं, लेकिन फिर भी कोई अपना भाग्य को कोसते हैं । ऐसे ही मन्तव्यों के साथ मानवीय और ईश्वरीय व्यवस्था पर नाखुशी ज़ाहिर करने को लेकर श्री मनीष सिंह "वंदन" की 2 कवितायें पढ़ते हैं, 'मैसेंजर ऑफ ऑर्ट' के आज के अंक में । यह लीजिये व पढ़िए तो सही......
'क्या यही है आजादी ...?'
आवाम भूखी प्यासी है
चारों तरफ घोर उदासी है
नफ़रत का दंश झेल रहे
मुफ्त में काबा-काशी है
क्या यही है आजादी ?
स्त्रियों का दारूण रूदन
बच्चों का कर्णभेदी क्रंदन
चहुँओर है यहाँ त्राहिमाम
नेता करते मनोरंजन
क्या यही है आजादी ?
धनवान बन रहे मालामाल
निर्धन होते और कंगाल
अकारण ही समाज में
होते फ़साद और बवाल
क्या यही है आजादी ?
दवा महँगी और सस्ती शराब
समस्याओं का बढ़ता बहाव
निरीह जनता टकटकी लगाती
जनप्रतिनिधि नहीं देते जवाब
क्या यही है आजादी ?
बहू-बेटी हमारे होते लज्जित
नित्य नये उलाहनों से सज्जित
न्याय का पथरीले है डगर
सत्य भी होते रहे पराजित
क्या यही है आजादी ?
😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎😎
'आज का इंसान'
हर गली मे मंदिर और मस्जिद है
फ़िर इतना अधर्म पनपता क्यूँ है,
जब खुदा से इत्ती ही मोहब्बत है
इंसान आपस में झगड़ता क्यूँ है ?
कहते हैं, खुदा सबके अंदर बसा है
तो औरों को देख़, मुँह फुलाता क्यूँ है,
खुदा औ' भगवान में कोई होड़ है क्या
एक दूजे के अनुयायी को, दौड़ाता क्यूँ है ?
जिसने बनाई दुनिया,क्या वो रिश्व़त लेगा
सोने का हार,चाँदी की पायल, चढ़ाता क्यूँ है,
किसने कहा- उनकोे दिखावा पसंद आता है
कि भस्म,चंदन,इत्र,सूरमा,अबीर,लगाता क्यूँ है ?
जिस माँ-बाप ने तुझे जीवन दिया है
उसको ही, जिंदगी से, डराता क्यूँ है,
आपकी बहू, किसी की बेटी ही तो है
आग की भेंट उसको, चढ़ाता क्यूँ है ?
जीने के लिए दो रोटी ही तो चाहिए
पैसों के पीछे खुद को,धकेलता क्यूँ है,
सब यहीं धरा रह जाना है एक दिन
इतना गबन-घोटाला, करता क्यूँ है ?
लड़खड़ातों को सहारा नहीं देना था जब
बोतल की आख़िरी बूंद तक,पिलाता क्यूँ है,
जब पीठ मे खंजर घोपना ही रहता है
तो अपना बनाकर, गले लगाता क्यूँ है ?
बीमारियों की जड़ गलत खान-पान है
रसना को भाये, ऐसा अन्न खाता क्यूँ है,
दालान तक तो किसी को बना नहीं सकता
फ़िर बना-बनाया मकान, ढहाता क्यूँ है ?
जिंदा इंसानों को कोई पूछता तक नहीं
तो मोम के पुतले को सजाता क्यूँ है,
समय के साथ परिवर्तन लाज़िमी है
खोख़ली मान्यताओं को, मानता क्यूँ है ?
पालन-पोषण करने को और भी चीजे हैं
दुश्मनी का बीज दिल पे, डालता क्यूँ है,
हार-जीत लगी रहती है, इस जिंदगानी में
फिर फैसलों को लेकर इतना घबराता क्यूँ है ?
हर रिश्ते में खुदा की छाप है, रज़ा है
इंसा रिश्ते को निचोड़ता-मरोड़ता क्यूँ है,
जिंदगी की नेमत मिली है बस, एक ही बार
बस इत्ती-सी बात को झुठलाता क्यूँ है ?
श्रीमान मनीष सिंह "वंदन" |
'क्या यही है आजादी ...?'
आवाम भूखी प्यासी है
चारों तरफ घोर उदासी है
नफ़रत का दंश झेल रहे
मुफ्त में काबा-काशी है
क्या यही है आजादी ?
स्त्रियों का दारूण रूदन
बच्चों का कर्णभेदी क्रंदन
चहुँओर है यहाँ त्राहिमाम
नेता करते मनोरंजन
क्या यही है आजादी ?
धनवान बन रहे मालामाल
निर्धन होते और कंगाल
अकारण ही समाज में
होते फ़साद और बवाल
क्या यही है आजादी ?
दवा महँगी और सस्ती शराब
समस्याओं का बढ़ता बहाव
निरीह जनता टकटकी लगाती
जनप्रतिनिधि नहीं देते जवाब
क्या यही है आजादी ?
बहू-बेटी हमारे होते लज्जित
नित्य नये उलाहनों से सज्जित
न्याय का पथरीले है डगर
सत्य भी होते रहे पराजित
क्या यही है आजादी ?
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'आज का इंसान'
हर गली मे मंदिर और मस्जिद है
फ़िर इतना अधर्म पनपता क्यूँ है,
जब खुदा से इत्ती ही मोहब्बत है
इंसान आपस में झगड़ता क्यूँ है ?
कहते हैं, खुदा सबके अंदर बसा है
तो औरों को देख़, मुँह फुलाता क्यूँ है,
खुदा औ' भगवान में कोई होड़ है क्या
एक दूजे के अनुयायी को, दौड़ाता क्यूँ है ?
जिसने बनाई दुनिया,क्या वो रिश्व़त लेगा
सोने का हार,चाँदी की पायल, चढ़ाता क्यूँ है,
किसने कहा- उनकोे दिखावा पसंद आता है
कि भस्म,चंदन,इत्र,सूरमा,अबीर,लगाता क्यूँ है ?
जिस माँ-बाप ने तुझे जीवन दिया है
उसको ही, जिंदगी से, डराता क्यूँ है,
आपकी बहू, किसी की बेटी ही तो है
आग की भेंट उसको, चढ़ाता क्यूँ है ?
जीने के लिए दो रोटी ही तो चाहिए
पैसों के पीछे खुद को,धकेलता क्यूँ है,
सब यहीं धरा रह जाना है एक दिन
इतना गबन-घोटाला, करता क्यूँ है ?
लड़खड़ातों को सहारा नहीं देना था जब
बोतल की आख़िरी बूंद तक,पिलाता क्यूँ है,
जब पीठ मे खंजर घोपना ही रहता है
तो अपना बनाकर, गले लगाता क्यूँ है ?
बीमारियों की जड़ गलत खान-पान है
रसना को भाये, ऐसा अन्न खाता क्यूँ है,
दालान तक तो किसी को बना नहीं सकता
फ़िर बना-बनाया मकान, ढहाता क्यूँ है ?
जिंदा इंसानों को कोई पूछता तक नहीं
तो मोम के पुतले को सजाता क्यूँ है,
समय के साथ परिवर्तन लाज़िमी है
खोख़ली मान्यताओं को, मानता क्यूँ है ?
पालन-पोषण करने को और भी चीजे हैं
दुश्मनी का बीज दिल पे, डालता क्यूँ है,
हार-जीत लगी रहती है, इस जिंदगानी में
फिर फैसलों को लेकर इतना घबराता क्यूँ है ?
हर रिश्ते में खुदा की छाप है, रज़ा है
इंसा रिश्ते को निचोड़ता-मरोड़ता क्यूँ है,
जिंदगी की नेमत मिली है बस, एक ही बार
बस इत्ती-सी बात को झुठलाता क्यूँ है ?
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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