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8.25.2017

इंसाँ को भी बेच डाला !

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     25 August     कविता     No comments   

मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट में आज पढ़ते है, एक अनोखी कविता, जो उगलती है आग,आज के बाबाओं पर ...आइये पढ़े !




मैं विक्रेता !
गुरु को बेचता हूँ,
राम को बेचता हूँ, 
रहीम को बेचता हूँ,
सिंह को बेचता हूँ,
औ' इंसाँ को भी बेच डाला !

लेकिन वो अनेक में एक ठहरी, 
जो दो जून रोटी की खातिर
वा कि भूख की खातिर 
तुम्हारे प्रांगण आयी--
औ' यौन शोषित होकर भी,
अपनी जमीर नहीं बेची !

लेकिन एक तू है--
गुरु को बदनाम किया,
राम को बदनाम किया,
रहीम को बदनाम किया,
सिंह को बदनाम किया,
इंसाँ तक को बदनाम किया,
कि सभी धर्मों के धार्मिक-शब्दों से तूने
धर्मनिरपेक्ष नाम रख तो लिया
और करोड़ों अनुयाइयों के स्वामी बन बैठे,
किन्तु अपनी जवानी को सेवक नहीं बना सका !

कई निरीह अनुयाइयों की बहू-बेटी पे नज़रें
आसाराम से भी आगे बढ़
इस कदरन रख-- 
कि तूने नोंच डाले चोली 
औ' लूट लिये अबला की ढकी चुनरिया
तुम्हें अनुनायी भी ऐसे मिले-- 
कि भगवान के नाम पर बहू-बेटी सौंप दे
तो वो कुछ न बोलेंगे / चाहकर भी
क्योंकि / तुम उसे 9 माह बाद नाना वा दादा जो बनाओगे !

ले लिए तूने / इतनी जान
मार दिए तूने / इतने प्राण
सच्चा तो हो नहीं,
फिर क्यों हो, 
कैसे हो डेरा-सच्चा
पन्द्रह साल लगे तो लगे
कि हिम्मत तो जुटाई.....
तुम्हारे खौफ़ औ' आतंक के विरुद्ध
एक जज ने--
सच्चा तो जज है बिल्कुल
औ' कोर्ट उनके डेरा लिए
कोई सौदा (खरीददारी) नहीं किए
अब, तू ही बता दे !
कि कौन हुए डेरा-सच्चा-सौदा ?


-- प्रधान प्रशासी-सह-संपादक ।
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