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8.09.2017

"पिंजड़े में बंद पंछी : घर-समाज की अनावश्यक बंदिशों से त्रस्त महिलाएं"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     09 August     कविता     No comments   

'हम पंछी हैं उन्मुक्त गगन के....' न सिर्फ़ पक्षी, अपितु पिंजड़े व घर की अनावश्यक बंदिशों से नारी भी त्रस्त हो उठती हैं । आज ही नहीं, हर सदी, समय, सम्प्रदाय और समाजों में नारी की आज़ादी पिंजड़े में बंद पंछियों जितनी ही हैं । 'कुमारी' हो या 'देवी'-- के लब भी आजाद नहीं हैं ! परदे अथवा बुर्के पहनी महिला को सिर्फ दैहिक नज़र से ही क्यों देखें ? उन्हें कितनी उमस से गुजरनी पड़ती होंगी तथा कितनी ही चर्म रोगों से गुजरनी पड़ती होंगी, उसे भी तो देखिए....... । अद्यतन जारी फ़िल्म 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' एक पहलभर है, किन्तु पहल स्वागतयोग्य है । नारीवादी कवयित्री सुश्री मोनिका कुमारी की यहाँ प्रकाशित हो रही कवितायें अत्याधुनिक नारियों की भी दशा और दिशा को विवर्णित कर रही होती हैं, जो कि चर्चित कवयित्री 'विश्वफूल' की कविताओं की याद दिला देती है, तो आइए हम आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट में पढ़ते हैं, सुश्री मोनिका कुमारी की कवितायें.....




चुप है

मैंने सवाल किया--
क्या आपको पता है, हमारे देश के किसान भूखा और कर्ज़ से बदहाल हैं ?
सरकार :चुप है !
मैने फिर पूछा-- क्या आपको पता है ? हमारा देश बेरोज़गार है ?
सरकार :चुप है !
मैने पूछा-- क्या आप देख सकते हैं, लोग सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं ?
सरकार :फिर से चुप है !
मैंने पूछा-- सीमाओं पर सैनिक गोली खा रहे हैं,उनकी सुरक्षा का क्या इरादा है ?
सरकार : चुप है !
फिर सवाल है-- शिक्षा व्यवस्था से विद्यार्थी परेशान हैं ?
सरकार : चुप है !
मेरे तो सवाल पर सवाल है ?
और मेरे इन सवालों से सरकार के मन में उठते बवाल हैं (इसे 'कंट्रोल' कर रखा है )
मेरा देश आतंकवाद से बेहाल है ?
सरकार : फिर से चुप है !
क्या आपको मालूम है, देश में लड़कियां तो क्या, बकरियाँ भी सुरक्षित नहीं हैं ?
सरकार  : आँखे नीचे झुकी हुई है !!
(शर्म से नहीं, अपितु जवाब नहीं है, सरकार के पास )
मेरा आख़िरी सवाल है-- आप इन सब बातों के लिए क्या करते हैं ?
सरकार  : हम कड़ी से कड़ी शब्दों से निंदा करते हैं !
(पता चल गया कि सरकार भी बोलता है और क्या ही ज़बरदस्त बोलता है और फिर मंच पर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी है। )

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मेट्रो सिटी की सड़कों पर


नंगे -नंगे पाँव जलती धूप में
न जाने कैसे इधर-उधर भटक 
जाते हैं,
मेरी समझ में नहीं आता !
गाड़ियों से भरी उस सड़क पर 
न जाने वह कैसे व किसी भय के बग़ैर,
इधर-उधर से कुछ न कुछ मांगने को विवश है,
पेट की भूख के आगे कुछ याद नहीं रहता,
रहती है सिर्फ चिंता...
चिंता अपनी नहीं, अपने परिवार की
और उनके भूख की ।
इतनी सारी चिंताओं से युक्त उसके अविकसित बुद्धि को,
कि अपने जान जाने का भी डर है, इतना भी याद नहीं !
उस धूप की तेज और धार दर
किरणों से घायल उसका 
शरीर / झुलस-सा गया है,
फिर भी वह इन सबकी परवाह किये बग़ैर
सब के सामने जा-जाकर 
कुछ मांगने की कोशिश कर रहा....
लेकिन उसको सिर्फ गालियों के सिवा 
कुछ मिल नहीं रहा....
यह दृश्य देख कर भी मैं--
कुछ नहीं कर पा रही हूँ 
उसकी मदद करने में असमर्थ हूँ ।
नहीं है मेरे पास इतना वक्त 
कि मैं उसको कुछ दे सकूँ ,
न ही मेरे पास 10 रुपये तक ही है 
उसको देने के लिए 
हालांकि मैंने उसको अपने 
महंगे कार से कितनी बार देखा है,
अपना पेट भरने के लिए-- 
लोगों से कुछ न कुछ मांगते हुए 
और कई बार वह मेरे पास भी आये 
लेकिन मैंने भी उसे गाली और धित्कार के अलावा कुछ नहीं दिया है ।
माफ़ करना मुझे
मेरे पास तुम्हारे लिए न कोई समय है, न ही पैसा 
मैं--एक आधुनिक युग / मेरे पास 
क्लबों में शराब पीने,
पार्लर में थ्रेडिंग,
मॉल में पिक्चर,
इन सब के लिए बहुत समय और पैसे हैं,
लेकिन तुम जैसे लोगो के लिए बिलकुल भी नहीं है, कभी नहीं है 
मुझे शर्म है मुझ पर कि मैं इतनी--
असहाय अवस्था में हूँ 
मैं आधुनिक युग हूँ.... 
और न जाने कितने युगों तक देखूंगी तुम्हें, इसी प्रकार तपते धूप में
नन्हें-नन्हें कदमों लिए 
यूँ इधर-उधर भागते 
उन मेट्रो सिटी की सड़कों पर ।

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मैं हूँ

मैं सिनेमा के सतरंगी गानों पर नाचती आईटम गर्ल हूँ, 
ऑफिस में दांतों तले कलम चबाती हॉट बला हूँ, 
कॉलेजो /स्कूलों में उफ़्फ़ ..बे ! क्या जान मार देने वाली अदा हूँ,
बसों में / सड़को पे (सार्वजनिक स्थानों पर) पीस, फ़िगर,
याररर ..!
कमाल की माल हूँ ....
नहीं -नहीं !
सिर्फ बाहर ही नहीं ―
घर में भी हूँ
कुलटा, कुलक्षणी, बदचलन, आवारा .... 
हफ़्तों के हर सातवें दिन के कालिमामयी रातों में ,
मैं तुम्हारी चन्द्रमा-सी चमकीली प्रियतमा हूँ 
और शेष दिवसों में-- मैं डायन हूँ । 
पर हूँ मैं एक बेटी,
एक बहन,
एक पत्नी,
एक दोस्त 
और सबसे पहले एक नारी--
तुम्हारी जननी, है जो अस्तित्व तुम्हारी । 

👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊👊


इस समय में कवि होना

मेरे दोस्त !
घर से बेदखल कर दिए जाओगे,
समाज में कुदृष्टि से देखे जाओगे,
तुम सच लिखोगे,
लोग तुम्हे गालिया देंगे,
तुम समाज को आईना दिखाओगे 
और वो तुम्हारे चरित्र को देखेंगी....
तुम अश्लील !
देशद्रोही ! 
चरित्रहीन !
अन्याय के प्रति विरोध किया तो ....
अपमानित और लांछित किए जाओगे,
और कई सारे नए उपमानों से सुसज्जित किये जाओगे,
फिर भी गर नहीं तोड़ पाएंगे 
तुम्हें ,
तो तुम्हारी जान ले लेंगे
ख़ुद को एक महान आलोचक 
समझ के।
मेरे दोस्त , 
कठिन है,कठिन है 
नहीं कविता करना नहीं ,
लोगों (रूढ़िवादियों , मतिभ्रष्ट ) के लिए तुम्हारे सच को क़ुबूल कर पाना....
तुम्हारे सच के आगे--
अपने अहम को ढेर होते देख पाना,
इसलिए, मेरे दोस्त !
व्यर्थ है,
खतरनाक है,खतरनाक है 
किसी--
बलात्कार से भी ज़्यादा
सबसे ज़्यादा कुकर्म है,
कि बहुत ख़तरनाक है,
इस समय में कवि होना ।



नमस्कार दोस्तों ! 


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