'बेगमजान' नामक हिंदी मूवी हमारे मित्र पाठकों ने अवश्य देखे होंगे, लेकिन किस तरह सरहद उर्फ 'दीवार' का कोठे के बीच आ जाने से एक फ़िल्म बन जाती है ! सरकारी फरमान उस 'सरकारी औरतों' (वेश्याएँ) के हिस्से भी 'बेवफ़ा' भर रह जाती है ! .... तो ये दीवार ट्रम्प साहब के विचार को भी गति देता है कि पहले स्वदेश, बाद में ही परदेश... भारत भी यही सोचता है, हर देश यही सोचता है ! कुछ ऐसी ही बिम्बनायें लिए आज मैसेंजर ऑफ ऑर्ट लेकर आई है, कवि अरुण शर्मा की कविता 'ये जो दीवार है, कभी खत्म नहीं होती'। आइये, पढ़ते हैं और दीवार तोड़ने का प्रयत्न करते हैं कि बर्लिन की दीवार टूट गयी । चीन की दीवार की क्या मुराद है, हम देशभक्तों के बीच ! तो उठाइये, फावड़ा-कुदाल और शत्रुता की दीवार तोड़कर समतल मैदान कर डालिये.....
दीवारें महज़ बँटवारा नहीं करती
कभी कभी दूसरी दुनिया की
तरफ अग्रसर कर देती हैं
दिशाओं का ज्ञान तिलिस्म
जैसा लगता है
वो सूरज वो तारे
वो चांद और उसकी चांदनी
सब कुछ रहती हैं पर
कभी एहसास नहीं होता है !
ये दीवारें दूसरी दुनिया में
तो पहुंचा देती हैं
घुट घुट कर मरने के लिए,
उपचार भी होता है
अस्पताल से लेकर चिकित्सक
भी रहते हैं पर दवाई तो
तनहाई वाली ही खिलाते हैं !
हमारी दुनिया के लोगों से
भरी पड़ी है दूसरी दुनिया पर
सामंजस्य स्थापित करना
बहुत ही कठिन है
दूसरों के दुःख सुन कर
समझ कर अपना दुःख
तिनका सा लगता है !
सोचने समझने की क्षमता
क्षीण होने लगती है जब
मनोवृत्ति के विपरीत
जीवनयापन करना हो
स्वतंत्रता तो है ही नहीं यहाँ
पांव में बेड़ियाँ भी नहीं है
पर हम लोग गुलाम हैं
इच्छाएं मन ही मन घुटने लगती हैं
हिम्मत दम तोड़ देती हैं
दीवार की ईटों को गिनने चलिए
तो सिर के बाल गिरने लगते हैं
ये दीवारें हैं जो कभी खत्म नहीं होती ।
दीवारें महज़ बँटवारा नहीं करती
कभी कभी दूसरी दुनिया की
तरफ अग्रसर कर देती हैं
दिशाओं का ज्ञान तिलिस्म
जैसा लगता है
वो सूरज वो तारे
वो चांद और उसकी चांदनी
सब कुछ रहती हैं पर
कभी एहसास नहीं होता है !
ये दीवारें दूसरी दुनिया में
तो पहुंचा देती हैं
घुट घुट कर मरने के लिए,
उपचार भी होता है
अस्पताल से लेकर चिकित्सक
भी रहते हैं पर दवाई तो
तनहाई वाली ही खिलाते हैं !
हमारी दुनिया के लोगों से
भरी पड़ी है दूसरी दुनिया पर
सामंजस्य स्थापित करना
बहुत ही कठिन है
दूसरों के दुःख सुन कर
समझ कर अपना दुःख
तिनका सा लगता है !
सोचने समझने की क्षमता
क्षीण होने लगती है जब
मनोवृत्ति के विपरीत
जीवनयापन करना हो
स्वतंत्रता तो है ही नहीं यहाँ
पांव में बेड़ियाँ भी नहीं है
पर हम लोग गुलाम हैं
इच्छाएं मन ही मन घुटने लगती हैं
हिम्मत दम तोड़ देती हैं
दीवार की ईटों को गिनने चलिए
तो सिर के बाल गिरने लगते हैं
ये दीवारें हैं जो कभी खत्म नहीं होती ।
नमस्कार दोस्तों !
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