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4.12.2017

"सुशांत कवि की सुप्रिय कविताएँ"

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     12 April     कविता     No comments   

वरीय कथाकार, कवि, अनुवादक और चिंतक , जो शांत तो है ही, पर सुशांत हैं और प्रिय तो है ही, पर सुप्रिय हैं । ऐसे व्यक्तित्व के धनी कृतिकार  किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, प्रिय साहित्यकार की शांत कविता, जो शांत होकर भी मन-मस्तिष्क और तन-बदन को आंदोलित कर देते हैं, तो आइये हम श्रीमान सुशांत सुप्रिय की लेखनी से नि:सृत पाँच कविताओं से रू-ब-रू होते हैं:--



श्रद्धांजलि

बौड़मदास मेरा मित्र था 

वह रोशनी का रखवाला 
लड़ाई लड़ रहा था 
अँधेरे के खलनायकों के विरुद्ध 

उसे तो ख़त्म होना ही था एक दिन 
उसके साथ केवल मुट्ठी भर लोग थे 
जबकि अँधेरे की पूरी फ़ौज थी 

उसके विरुद्ध 

जीवन का अशुद्ध पाठ करने वालों को 
सही वर्तनी और उच्चारण सिखाता था वह 

सवेरा लाने के लिए लड़ा था वह 
एक नाज़ुक दौर में 
घुप्प अँधेरे के दानवों से ...

काश , हर आदमी बौड़म दास हो जाए 
सब के हृदय में सुबह की आश हो जाए ।

🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜🌜


अगली बार

                ( कुँवर नारायण जी को समर्पित )                                                                           
यदि आया तो 
अगली बार बेहतर बन कर 

आना चाहूँगा यहाँ 
झूठ और अवसरवादिता के 

अक्ष पर टिका हुआ नहीं 
बल्कि मनुष्यता की धुरी पर 
घूमता हुआ आना चाहूँगा 

अपनों को और समय दूँगा 
सपनों को और समय दूँगा 

यदि आया तो 
अगली बार दुम हिलाने 
नहीं आना चाहूँगा 
छल-कपट करके खाने 
नहीं आना चाहूँगा 

सही बात कहूँगा 
तुच्छताओं की ग़ुलामी 
नहीं सहूँगा 

यदि आया तो 
अगली बार सूर्य-किरण-सा 

आना चाहूँगा 
श्रम करते जन-सा 
आना चाहूँगा 

यदि आया तो 
अगली बार 
आँकड़ा बन कर नहीं 
आदमी बन कर 
आना चाहूँगा यहाँ ।

🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟🌟


आदमकद सोच 

                    
कितना भी उगूँ 
जुड़ा रहूँ अपनी जड़ों से 
जैसे गर्भ-नाल से 
जुड़ा रहता है 
गर्भ में पलता शिशु 

कितना भी बढ़ूँ 
बँधा रहूँ अपने उद्गम-स्थल से 
जैसे बँधे रहते हैं प्रेमी-प्रेमिका 
फ़ौलाद और चाशनी की 
डोरी से 

कितना भी सोऊँ 
जगा रहूँ अपने कर्तव्यों के प्रति 
जैसे जगी-सी रहती है 
अबोध शिशु की माँ नींद में भी 
बगल में पड़े शिशु के कुनमुनाने से ।

🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞🌞

 आत्मीय-परिचितों का जाना 

                       

जीवन की सांध्य-वेला में 
आत्मीय-परिचितों का जाना 
एक धीमी मौत जैसा होता है 

आकाश तब भी ऊपर तना होता है
केवल उसका रंग धुँधला बना होता है

सपनों में जानी-पहचानी जगहें ख़ाली नज़र आती हैं 
जागने पर अपनों की आश्वस्ति बिन बदहाली नज़र आती है 

काँधे पर कोई पहचाना हाथ नहीं होता है 
क़दम मिला कर चलने वाला साथ नहीं होता है 

हम भीतर-ही-भीतर ढहते जाते हैं 
ख़ालीपन को बदहवास-सा सहते जाते हैं 

आँसू पोंछने वाले हाथ नहीं होते 
बाट जोहने वाले साथ नहीं होते 

आईने में जैसे एक उदास छवि छिपी होती है 
जो हमारा चेहरा ओढ़ कर हमें ही घूरती रहती है 

हम मन-ही-मन रोते हैं 
अपने एकाकीपन की लाश 
अपने तनहा काँधों पर ढोते हैं 

और तब एक दिन यह पाया जाता है कि 
हमारी कलाई-घड़ी तो चल रही होती है 
पर हमारे सूने दिल की धड़कन बंद होती है ।

🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈🎈


आज की ताज़ा ख़बर 


यह तो होना ही था 
एक दिन 

बरसों से 
प्रतिदिन इकट्ठा कर रहा था 

इस युग का समूचा तंत्र 
सूचनाओं के हथगोले , प्रक्षेपास्त्र , टैंक 
बम-वर्षक विमान , पनडुब्बियाँ 

सूचनाएँ फैल रही थीं चारों ओर 
लाइलाज रोगों की तरह 

दिमाग़ में जगह नहीं बची थी 
फिर भी ऐरी-गैरी महाशंख सूचनाएँ 
ठूँसी जा रही थीं हर ज़हन में 

सूचनाओं के वायरस 
विश्व के कोने-कोने में मौजूद 
इंसानी ज़हन के साफ़्टवेयर पर 
कर रहे थे ताबड़तोड़ हमले 

अंत में वही हुआ जिसकी भविष्यवाणी 
नास्त्रेदेमस भी नहीं कर पाया था :

सूचनाओं के परम-विस्फोट में 
संवेदनाएँ मारी गईं ।


नमस्कार दोस्तों ! 


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