वैलेंटाइन डे तो हर साल आते है लेकिन इस साल का वैलेंटाइन डे मेरे लिए कुछ खास रहा !
वाकया यह था कि -- वैलेंटाइन डे मेरा 'थर्ड जेंडर' के साथ रहा ।
अरे ! हाँ दोस्तों !! गलत मत सोचिये । दरअसल हुआ यूँ कि BPSC आयोजित 60वीं से 62वीं पी.टी. देकर लौट रहा था ट्रेन से ।सुबह मेरी नींद 'तालियों की नमी-थपथपाहट' से खुली, जब कान सजग हुई, तो 'तालियों' की धमक मेरे बोगी तक आ धमकी थी । देखा तो 'वो रुपये-पैसे वसूलने वाले' किन्नर थे, जिसे लोग-बाग़ आम भाषा में हिजड़े कहा करते हैं और सरकारी भाषा में थर्ड जेंडर व तृतीय लिंग । मुझे लगा की रुपये-पैसे देने पड़ जाएंगे, तो 'सोने का नाटक' करने लगा और इस नाटक के विहित सोचने लगा........ 'किसी अंग में विकृति विकलांगता व दिव्यांगता है । जब दिव्यांगजन एक से बढ़कर एक कार्य कर ही भोजन ग्रहण करते हैं, तो ऐसे धंधे से पेट भरना क्यों ? जब किन्नर बंधु विधायक तक बन गए हैं, तो अपनी क्षमता को देशसेवा के लिए क्यों न लगाते ! ट्रेनों में इसतरह से रुपये-पैसे वसूलना, भीख से भी खराब है ! मैं इसे आजीविकोपार्जन नहीं मान सकता ! वे यदि उच्च शिक्षा ग्रहण करें, तो उनकी बेरोजगारी दूर हो सकती है ।'
मैंने आँखों की झिर्री से देखा, तो वे सब मिडिल बर्थ से रूपया मांग रहे थे और अचानक ही उनमें से एक किन्नरबंधु ने मिडिल बर्थ वाले के 'प्राइवेट पार्ट' को पकड़ बोलने लगे-- "ऐ जीजा ! देही न कुछ रुपया-पैसा !" बावजूद मिडिल बर्थ वाले ने कुछ ना दिए ।
चूंकि किन्नरबंधु ने मेरे नाटकीय-सोना को भांप लिए थे, तो वो मेरे गाल उमेठते हुए और 'अपने अमूल्य वचनों' से मुझे इस तरह बुलाने लगे-- "ऐ मेरे सोना, मेरे राजा ! दे द न कुछ रुपा ! तोर गाल कितना चिकना है, बड़ क्विट है ..." और मेरे गालों को छूने लगी, उमेठने लगा, तब मैंने बोला-- "आगे बढिए न !" वे सब आगे नहीं बढ़े, तब मैं सोचने लगा.... 'अगर कुछ नहीं दिया, तो वे सब अपना हाथ मेरे भी प्राइवेट पार्ट तक न पहुँचा देंगे !' लेकिन तब तक मेरी दीदी, जो मेरे साथ थी तथा वो भी मेरी तरह परीक्षार्थी थी, उन्होंने इससे निज़ात पाने के सोद्देश्य अपनी पर्स से ₹20 निकालकर दे दी, क्योंकि मेरी दीदी को किसी के द्वारा इस छुटकू भाई के गाल छुआ जाना पसंद नहीं है !
रुपये प्राप्त करने के बाद वे सब मुझे 'हैप्पी वेलेंटाइन डे' भी कहते चले गए । तब ही मुझे याद आया... ओह ! आज वेलेंटाइन दिवस है । काश ! कोई उन किन्नरबन्धुओं के काम-पीड़ा भी समझ पाते ! वे भी इंसान हैं । वे भी तो प्यार के भूखे हैं । आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है, कवयित्री कात्यायनी दीपक सिंह की 3rd जेंडर की पीड़ा को उकेरती कविता ! आइये, इसे हम दूरगामी सोच के साथ पढ़ते हैं -----
हमको भी करो प्यार
कहीं कभी
सुनती ढोलक की थाप या
सुनती शहनाई की मधुर धुन
तब !
तन मन मेरा झूम उठता
पर,
दिल के किसी कोने में
उठती छोटी-सी टीस
कि
मैं कैसी परछाई लेकर उतर आई
इस धरती पर
सूखे पेड़ की ठूँठ से थिर,
या झरते जाते पत्ते की तरह, कहीं भी
हमारे सूखे दिल में
पड़ी है हजारों दरारें
जिसमें पड़ी रहती हैं
कुछ मनचाही इच्छायें
काश !
हमारे भी कुछ होते.....
घर परिवार और
कुछ मासूम बच्चे
जिनकी किलकारियों से होते गुलजार
हमारा भी / घर आंगन
क्यूं ?
नही होता कुछ हमारा
क्यूं ?
हो जाते, हम एकाकी
ईश्वरीय कृति में
ये कैसा विधान है
जिसमें हम
अपनी फूटी किस्मत लिये
उतर आते हैं
सूखी और वीरान पड़ी धरती पर
अपनों में
अपना कुछ पाने को या
बहुत कुछ खो जाने को
रात के किसी झण
बुनने लगती हूँ, कुछ सपने
सजा रही अपने आप को
सज रही है डोली और कहार
जा रही हूँ दूर देश
पिया से मिलनकी एक अधूरी आस
करता होगा कोई
मेरा इंतजार
घर आंगन सजाते हुये
और निहार रहे होंगे
गली के अंतिम मोड़ तक
क्या हमें कभी मिलेगा
हमारे हिस्से का प्यार
नहीं कभी नहीं
मांस के लोथड़े
और विकृत स्त्रीत्व (!) से--
कौन करेगा प्यार ?
नमस्कार दोस्तों !
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