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2.15.2017

'सुरबाला के गहनों में न गुंथे जाने वाली कविता'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     15 February     कविता     No comments   

क्या देशभक्त सिर्फ पुरुष ही होते है, नहीं न !  बल्कि वे सभी देशभक्त हैं, जिनका देश के प्रति मान है, शान है, अभिमान हैं ! क्या 'बलात्कार' सिर्फ महिलाओं की ही होती है, यह सवाल अजीब है, लेकिन उत्तर सोचने को विवश कर देते हैं, क्योंकि 'बलात्कार' तो पुरुषों का भी होता हैं ! आज के अंक में  मैसेंजर ऑफ़ आर्ट लेकर आई है,  कुछ ऐसे ही टाइप के प्रश्नों का उत्तर गूगलिंग व सर्चिंग करने को हमारी टीम निकल तो चुके थे कि आंसर व उत्तर कविता के रूप में कवयित्री गुड़िया किरन  की  पिरोई शब्दों के फूलों  की अग्रांकित कवितामाला किनके शरीर से  स्पर्श होंगे ! प्रस्तुत कविताएँ कवि माखनलाल चतुर्वेदी की कविताओं की याद दिला देते हैं । आइये, आप सुविज्ञ पाठकबन्धु इसके लिए खुद तो आगे बढ़ें और इसे पढ़ें........ 







सुरबाला 

वह निकलेगी नवयुग लेकर 
आजाद तिरंगा फहराने।
वह लक्ष्मी की वंशज है 
सुन लो
हार ना ऐसे वो माने।

जब लुट पड़ेगी धरती पर
तब जाग उठेगी सुरबाला।

होगा जब आंचल तार- तार
जब बचे ना कोई रखवाला।

तब प्रस्फुटित होगी नई किरण
वो बन जाएगी एक ज्वाला।

वैदेही कब तक बनी रहे
चुड़ी कंगन में रमी रहे।

अब जाग उठी है वो अबला 
आंखों में कब तक नमी रहे।

अब निकल पड़ीं है वो फिर 
से अपने आजादी को दोहराने।

वह लक्ष्मी की वंशज है
सुन लो
हार ना ऐसे वो माने।

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दुर्जीव

पहचान करो पहचान करो
उस दानव की पहचान करो
जो दैत्य से भी बढ़कर है
उस मानव की पहचान करो

जो रोज आके इन गलियों मे
एक ढुंढता शिकार है
मस्तिष्क मे इसके घुम रहा 
एक सस्ता व्यभिचार हैं।

नष्ट कर दो उस वृत्ति को ही 
मत उसका सम्मान करो
जो दैत्य से भी बढ़कर है
उस मानव की पहचान करो ।

जो कदाचार अपनाया है 
जिसकी एक काली माया है
उखाड़ फेंको उस जड़ को
वो जितना मजबूत बनाया है

जितना भी हो सके संभव 
उतना इसका अपमान करो 
जो दैत्य से भी बढ़कर है
उस मानव की पहचान करो

इन्सान के रूप मे घुम रहा 
वो काला शैतान है
दुष्कर्म हजारों कर के वो
खोले वो दुकान है।

बन्द कर दो उस मंजर को 
मत उसपे एहसान करो 
जो दैत्य से भी बढ़कर है
उस मानव की पहचान करो ।

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मेरे अरमान 





सपनों के लिए उड़ान चाहती हूँ,
ख़्वाबों के लिए अरमान चाहती हूँ।
जिससे रोड सकूँ इन रुढियों को,
ऐसा कोई नया विज्ञान चाहती हूँ।

सवाल  न हो  मेरे  ऊपर,
यातनाओं का दौर बंद हो।
मुश्किलों में जीना सिख लूँ मैं,
निर्मम हत्याओं का दौर बंद हो।
अपने सपनों में आज नई जान 
चाहती हूँ...!

डूब गई चिर निद्रा मे आखिरी 
साँस  तक लड़ते  लड़ते ।।
निर्भय हो ही जाती हूँ क्यों
मरते मरते।।
आज जी लूँ अभय बन कर ,
ऐसा कोई नया फरमान चाहती हूँ
जिससे तोड़...! 

मिटाना चाहती हूँ उन राह की
बफ्तियों को,
मिटाना चाहती हूँ उन्ही बेबुनियाद 
हस्तियों को,
हे प्रभु आज तुमसे यही वरदान
चाहती हूँ,
जिससे तोड़ सकूँ...! 

गुड़िया पान्डेय 'किरन'


नमस्कार दोस्तों ! 


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