MESSENGER OF ART

  • Home
  • About Us
  • Contact Us
  • Contribute Here
  • Home
  • इनबॉक्स इंटरव्यू
  • कहानी
  • कविता
  • समीक्षा
  • अतिथि कलम
  • फेसबुक डायरी
  • विविधा

9.08.2017

'सब कुछ पीछे छूट गया'

 मैसेंजर ऑफ ऑर्ट     08 September     कविता     No comments   

दोस्तों के लिए पेश हैं '4-सालों' की 'खट्टी-मीठी' यादों का कुछ जमावड़ा :--- यादें याद आती हैं ! 'Annual function' डे (8 सितम्बर) के साथ 'विश्व साक्षरता दिवस'की हार्दिक शुभकामनायें ।


'सब कुछ पीछे छूट गया'

सब कुछ पीछे छूट गया,अभियंता बनते-बनते,
जिम्मेदार कब हम बन गये, पता भी न चला ।

जब भी याद आती है , इंजीनियरिंग कॉलेज के वह 4 साल,
मन सुपरसोनिक स्पीड से भी अरबों गुना तेज,निकल पड़ती है ।

उन लम्हों की खोज में,
जो भूली-बिसरी यादें बन , कभी हमें गुदगुदाती है, तो कभी रुलाती है ।

कितना किया था,मेहनत उस जुनून को पाने के लिए..!
कितना किया था,इंतजार उन दोस्तों से मिलने के लिए ।

जिन्हें तो जानता तक नहीं था,मैं ...!
पर निकलते-निकलते अपनन-सा बिछुड़न दे गए ।

अजीब सी थी वह दुनिया,कोई सुबह तो कोई दोपहर में जगते थे,
बाथरूम जाने के लिए, हम हमेशा लड़ते थे ।

12th में था, जब मेहनतकश-मजदूरी ही था रास्ता,
पढ़ते-पढ़ते इंजीनियरिंग कॉलेज आने का, अच्छा नौकरी पाने का ।

पर पता ही न चला हम, कब 4 साल गुजार गए,
हम इतने बड़े कब हो गए, छुटकन से बड़कन लोग बोल गए ।

लेकिन उन सालों में अजीब संस्कार हमें मिले,
किसी के पैंट उतारने का,किसी के गिरेहबान में झांकने का ।

ये हँसी मजाक था,जो क्लास बंक कर हम कर लिया करते थे,
कॉमन रूम में फ़िल्म कम ही चला करते थे ।

वो अजीब हालात थे,खाने के लिए हम मेस में लड़ा करते थे,
खाना मिल जाने पर, कूड़े में फेंकते थे ।

क्लास की क्या ? जब भी घंटी बजा करती थी, राम-रहीम याद आते थे,
वैसे न, तो कभी इन्सां मिले, न ही हनी..प्रीत !

प्रोजेक्ट के नाम पर,बस पन्ने हम भरा करते थे,
एग्जाम की सुबह micro कर लिया करते थे ।

यह अपना कॉलेज था, यहां सब माफ था ,
अन्ना की अनशन को भी पार्टी में हम बदल दिया करते थे ।

कोई घास हमें नहीं देती थी,वैसे भी ...भला कोई क्यों दे घास...?
क्योंकि घास के नाम पर , यहां बस जंगल हुआ करता था ।

रिजल्ट की खबर मिलते ही,लालजी की थाली सजती थी,
मार्क्स पर चर्चा, गदहे ही किया करते थे ।

लालजी नाम आते ही, उनके परिवार याद आते है,
अपना खाना में हमें, प्रेम के गूढ़ अर्थ समझाते थे ।

Snapdeal का डिब्बा, न कभी हम भूला करते है,
ब्रूनी का ताजमहल जो वहां हुआ करता था ।

मुमताज, तो उन्हें न मिला...?
पर हमारी खुशियों में , वह खुश हुआ करता था ।

याद आते है वो लम्हें, बीत जाने के बाद ...,
बस साथ रहते है फेसबुक और what's app का साथ ।

-- प्रधान प्रशासी सह संपादक ।
  • Share This:  
  •  Facebook
  •  Twitter
  •  Google+
  •  Stumble
  •  Digg
Newer Post Older Post Home

0 comments:

Post a Comment

Popular Posts

  • 'रॉयल टाइगर ऑफ इंडिया (RTI) : प्रो. सदानंद पॉल'
  • 'महात्मा का जन्म 2 अक्टूबर नहीं है, तो 13 सितंबर या 16 अगस्त है : अद्भुत प्रश्न ?'
  • "अब नहीं रहेगा 'अभाज्य संख्या' का आतंक"
  • "इस बार के इनबॉक्स इंटरव्यू में मिलिये बहुमुखी प्रतिभाशाली 'शशि पुरवार' से"
  • 'जहां सोच, वहां शौचालय'
  • "प्यार करके भी ज़िन्दगी ऊब गई" (कविताओं की श्रृंखला)
  • 'कोरों के काजल में...'
  • 'बाकी बच गया अण्डा : मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट'
  • "समाजसेवा के लिए क्या उम्र और क्या लड़की होना ? फिर लोगों का क्या, उनका तो काम ही है, फब्तियाँ कसना !' मासिक 'इनबॉक्स इंटरव्यू' में रूबरू होइए कम उम्र की 'सोशल एक्टिविस्ट' सुश्री ज्योति आनंद से"
  • "शहीदों की पत्नी कभी विधवा नहीं होती !"
Powered by Blogger.

Copyright © MESSENGER OF ART