ये जो 'दोस्ती' हैं, कब, कहाँ, कैसे और क्यों हो जाती हैं, किसी को मालूम नहीं चल पाता ! परंतु आज के युग में यह दोस्ती भी फ़ायदा देखकर होती हैं ! कुछ दोस्ती कैटेगरी से हटकर होती हैं, जैसे-जगदीश चंद्र बसु की पेड़-पौधों से, महादेवी वर्मा की गौरा से , आर.टी.आई एक्टिविस्ट मनु की शनि से । ऐसे काफी सारे दोस्त हैं, जो लीक से हटकर हैं, आज मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट लेकर आई है सुश्री सोनरूपा की आत्मवृंत और कवितासंगिनी ! सोनरूपा जी नारीवादी लेखिका और कवयित्री नहीं हैं, बल्कि पुरुष के कार्यक्षेत्र को समझती है और यथावत स्वीकारने में जरा-सी भी हिचकिचाती नहीं हैं तथा उनमें हस्तक्षेप भी नहीं करती हैं। इस कवयित्री का कहना है, पति ही सर्वस्व है और हम स्त्रियों को पति नामक जीव का सहयोग करती रहनी चाहिए, क्योंकि नारी की देवीरूप तो अर्द्धांगिनी से भी जुड़ी हैं । आइये, प्रस्तुत लेखिका -सह- कवयित्री की ऐसे विचारों से भी हम आत्मसात होते हैं । पढ़िए तो ज़रा:---
मेरी प्यारी सहेलियों ,
बहुत दिनों से कुछ बताना चाहती थी या शायद कहना चाहती थी तुम सब से !
मैंने अपने घर के अंदर बहुत से प्लांट्स लगा रखें हैं!ज़्यादातर ऐसे हैं जो पानी में भी ख़ूब पनपते हैं !कहीं-कहीं मैंने घर के कोने को एक गाँव सा रूप दे दिया है और वहाँ कुछ इनडोर प्लांट्स रख दिए हैं !कहीं गैस की चिमनी के कोने में छोटे छोटे मिट्टी के,पॉटरी के बर्तनों में पौधे पनपा दिए हैं !
मुझे कई बार ऐसा लगा है दरअसल ये हुआ भी है कि मैं दो-तीन दिन के लिए बाहर गयी और लौट कर आई तो देखा मेरे इन प्लांट्स में से कई के पत्ते पीले हो गए हैं जबकि मेरे पीछे इनकी देखभाल में कोई कसर नहीं रहती ।
तब कई बार मैं सोचती हूँ क्या ये मेरे बिना अकेले हो जाते हैं इसीलिए मुरझा जाते हैं ?
मैं इनके पीले पत्ते अलग करती हूँ और इन्हें फिर से हरा भरा बना देती हूँ!
तुम सोचोगी ये भी कोई बात हुई,पौधे हैं मुरझायेंगे ही तुम्हारी याद थोड़ी करेंगे !
लेकिन तुम्हें पता है मैं अपनी इस सोच से ख़ूब ख़ुश होती हूँ और संतुष्ट भी वो इसीलिए कि मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपने घर के ज़र्रे ज़र्रे के लिए कितनी ज़रूरी हूँ! इतनी ज़रूरी कि ये पौधे भी मेरे बिन नहीं रह पाते!कितनी संतुष्ट सी हो जाती हूँ मैं ये सोचकर !हम स्त्रियों की ये संतोषी प्रवृत्ति स्त्री विमर्श के ख़ाके का एक कमज़ोर बिंदु माना जाता है लेकिन सच तो ये है यही हमारी ताक़त है !
ख़ैर जब मैं पौधों में ख़ुद का अस्तित्व स्वीकार लेती हूँ तो मैं अपने परिवार के लिए ख़ुद को कितना महत्त्वपूर्ण मानती होऊँगी ये आप अंदाज़ा लगा ही सकते हैं !दरअसल मैं मानती ही नहीं, मैं जानती हूँ कि अपने परिवार की केंद्रबिंदु हूँ !
एक पल के लिए भी ख़ुद को अपने घर से हटा कर देखती हूँ तो घर का ज़र्रा ज़र्रा मुझे पुकारता हुआ सा लगता है !
मेरी सहेलियों,
जब तुमसे कोई पूछता है कि आप क्या करती हैं?तुममें से ज़्यादातर कुछ इस तरह से कहती हैं कि हम तो हॉउस वाइफ़ हैं बस !
कई बार मैंने इस बस कहने में अनंत ख़ालीपन महसूस किया है तुममें!लगता है जैसे कि तुम्हारे हाउस वाइफ़ होने के कोई मायने ही नहीं!हाँ अक्सर ये होता होगा कि जब तुम्हारे पति तुमसे ये कहते होंगे 'आख़िर तुम करती ही क्या हो घर में,हमें देखो कितनी मेहनत करते हैं '!
कितनी बार ऐसा भी तुमने सुना होगा 'अरे जॉब क्यों नहीं की ?तुम तो पढ़ी लिखी थीं फिर भी घर बैठी हो'!
एक बात और याद आयी अभी एक भजन संध्या में मुझे अपनी एक परिचित मिलीं मैंने उनसे कहा 'भाभी जी, बड़े दिनों बाद दिखीं आप! वो बोलीं 'हाँ, ऐसे कहीं आ जाती हूँ या जब ये साथ हों तब कहीं चली जाती हूँ !किटी विटी इनको पसन्द नहीं इसीलिए ज्वाइन नहीं की! अब देखो सोना ,इनके विपरीत तो नहीं चल सकती न ,और ये कहते हैं कि एक बार औरत की ज़ुबान खुल जाए और क़दम घर से निकल जाए तो फिर वो रूकती नहीं '!ये कहते हुए उन्हें गर्व हो रहा था कि देखो कितनी पतिव्रता स्त्री हूँ मैं !मैं हैरान भी थी और दुःखी भी उनकी इस सोच पर !
ख़ैर ये तो उन स्त्रियों की बात है जो अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं हैं या कह लीजिये उनके अंदर वैचारिक शून्यता है !
लेकिन जो स्त्री अपने अस्तित्व को कहीं से कमतर नहीं मानती लेकिन परिस्तिथियाँ जहाँ उसका परिवार उसके घर के लिए किये गए काम या समर्पण को कोई महत्त्व नहीं देता या समाज की सोच कि 'हाउस वाइफ़ से एक कामकाजी स्त्री थोड़ी ज़्यादा सुपीरियर है' उसे अंदर ही अंदर कुंठाग्रस्त बना देती हैं !परिणामस्वरूप उसकी सोच ये हो जाती है 'हम तो हाउस वाइफ़ हैं बस'!
स्त्री चाहें कामकाजी हो या हाउस वाइफ,ग्रामीण हो या शहरी,संपन्न परिवार की हो या अन्य स्तर के परिवार की! दरअसल हर क्षेत्र में,हर रूप में वो आज भी पुरुषों से कमतर आँकी जाती है !
स्वतंत्र होकर भी परतंत्र,निरीह,वंचित,शोषित !
इस विषय पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है बहुत कुछ सुझाया जा सकता है लेकिन आज मैं अपनी जिन सहेलियों से मुख़ातिब हूँ ये वही हैं जो समाज की सबसे प्राथमिक इकाई यानि परिवार को सुदृढ़ नींव देती हैं ,एक मकान को घर बनाती हैं ,एक पुरुष की अर्धांगनी बनकर उसे पूर्ण बनाती हैं,अपनी कोख़ से उसका और अपना अंश जन्मती हैं !
मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मैं एक ऐसे परिवार में ब्याही हूँ जहाँ स्त्रियों पुरुषों में कोई अंतर नहीं!पति को ख़ुद से सुपीरियर समझने का कोई चलन नहीं हमारे यहाँ !मैंने अपनी ख़ुशी से नौकरी नहीं की,मुझे नहीं करनी थी इसीलिए नहीं की !मेरे पति कूपमंडूक नहीं, कभी नहीं कह सकते कि तुम करती क्या हो घर में,या तुमने किया ही क्या है आख़िर ,मुझे देखो मैं कितना कुछ करता हूँ....इस तरह का कुछ!
लेकिन यदि इस तरह का कोई भी प्रश्न या हालात मेरे सामने आते हैं! तो मुझमें माद्दा है कि मैं बता, जता सकूँ कि मैं कितनी ज़रूरी हूँ उनके लिए,परिवार के लिए!
लेकिन मेरी सहेलियों ऐसा जवाब आप तब दे पायेंगी जब आप स्वयं ख़ुद को स्वीकारेंगी!जिस दिन आपने ख़ुद को पहचान लिया,स्वीकार लिया फिर किसकी हिम्मत जो आपके वुजूद को हल्के में ले!क्यों कि जहाँ रौशनी होती है फिर वहाँ सिर्फ़ रौशनी ही होती है!
अभी पिछले दिनों की ही तो बात है जब मुझे अपनी एक दोस्त के अंदर एक घरेलू स्त्री होने की हीनता नज़र आई मैंने उस वक़्त उसे उसकी अहमियत हल्के फुल्के ढंग से बतलाई लेकिन उसी समय सोचा कि अपना मन फेसबुक पर ज़रूर साझा करुँगी क्यों कि मेरे जो पाठक हैं उनमें से कई स्त्रियाँ ऐसी होंगी जो इस तड़पन से गुज़र रही होंगी !
भारतीय समाज में ज़्यादा प्रतिशत ऐसी स्त्रियों का है जिनके होने को उतना स्वीकार नहीं किया गया जितना किया जाना चाहिए था!
हमें पुरुष से बराबरी नहीं करनी,करनी भी नहीं चाहिए! पुरुष पुरुष है हम हम हैं !
एक कविता ने उसी दिन मेरे मन में जन्म लिया था जिस दिन अपनी दोस्त को उदास देखा था!उसे शेयर कर रही हूँ !
मेरी दोस्तों इसे पढ़ियेगा और उससे भी ज़्यादा गुनियेगा !
सभी स्त्रियों से मेरी ये गुज़ारिश !
अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये
सृष्टि का आधार है,संरचनाएँ हैं
जीवन की इंद्रधनुषी छटाएँ हैं
धूप में छाँव देने वाली प्रथाएँ हैं
त्याग,तप,शौर्य, धैर्य की कथाएँ हैं
रिश्तों को संजोने वाली सभ्यताएँ हैं
हम भोर सी पुनीत भावनाएँ हैं
इसलिए काम ये ज़रूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये !
ज़िन्दगी को जन्म देने के सुभागी हम
घर के ज़र्रे-ज़र्रे के अनुरागी हम
प्रेम,त्याग,ममता के अनुगामी हम
मन की कठोरता के प्रतिगामी हम
हिमालय की बर्फ़ चख आये हैं
गर्व ख़ुद पर बदस्तूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये !
नदियाँ की धार कभी मुड़ती नहीं
वेगवान वायु कभी रूकती नहीं
पर्वतों की श्रृंखलाएं झुकती नहीं
जोश भरी वाणी कभी घुटती नहीं
आप किसी से भी कमज़ोर नहीं हैं
आँसू भरे नयनों की कोर नहीं हैं
मन से समस्त भ्रम दूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये!
पिता,पति,पुत्र का प्रशासन सहें
भीतर-भीतर रोज़ ख़ुद को दहें
कब तक सबके आदेशों को सुनें
ज़िन्दगी को अपने तरीक़े से जियें
बहुत हुआ ये शोषण का सिलसिला
क़िस्मत से न अब कीजिये गिला
शिक्षा से ये अन्धकार दूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये!
अपने हितों के प्रति मुखर बनें
स्वाभिमान वाला नेक रास्ता चुनें
अपसंस्कृति की आग में न पिघलें
आत्मसंयम वाली न राह बदलें
सत्य है स्वछंदता स्वतंत्रता नहीं
इसकी आज़ादी से कोई समता नहीं
फ़ैसले करें तो बाशऊर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये!
शो-केस में रक्खी आप गुड़िया नहीं
मोम की बनी हुई गुजरिया नहीं
आँसू बहाती हुई बदरिया नहीं
लाज को ढोने वाली चुनरिया नहीं
आप गर सीता सती सा विचार हैं
आप रणचंडी का भी अवतार हैं
हौसलों को ऊँचा भरपूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये !
आपकी सहेली--
सोनरूपा
मेरी प्यारी सहेलियों ,
बहुत दिनों से कुछ बताना चाहती थी या शायद कहना चाहती थी तुम सब से !
मैंने अपने घर के अंदर बहुत से प्लांट्स लगा रखें हैं!ज़्यादातर ऐसे हैं जो पानी में भी ख़ूब पनपते हैं !कहीं-कहीं मैंने घर के कोने को एक गाँव सा रूप दे दिया है और वहाँ कुछ इनडोर प्लांट्स रख दिए हैं !कहीं गैस की चिमनी के कोने में छोटे छोटे मिट्टी के,पॉटरी के बर्तनों में पौधे पनपा दिए हैं !
मुझे कई बार ऐसा लगा है दरअसल ये हुआ भी है कि मैं दो-तीन दिन के लिए बाहर गयी और लौट कर आई तो देखा मेरे इन प्लांट्स में से कई के पत्ते पीले हो गए हैं जबकि मेरे पीछे इनकी देखभाल में कोई कसर नहीं रहती ।
तब कई बार मैं सोचती हूँ क्या ये मेरे बिना अकेले हो जाते हैं इसीलिए मुरझा जाते हैं ?
मैं इनके पीले पत्ते अलग करती हूँ और इन्हें फिर से हरा भरा बना देती हूँ!
तुम सोचोगी ये भी कोई बात हुई,पौधे हैं मुरझायेंगे ही तुम्हारी याद थोड़ी करेंगे !
लेकिन तुम्हें पता है मैं अपनी इस सोच से ख़ूब ख़ुश होती हूँ और संतुष्ट भी वो इसीलिए कि मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपने घर के ज़र्रे ज़र्रे के लिए कितनी ज़रूरी हूँ! इतनी ज़रूरी कि ये पौधे भी मेरे बिन नहीं रह पाते!कितनी संतुष्ट सी हो जाती हूँ मैं ये सोचकर !हम स्त्रियों की ये संतोषी प्रवृत्ति स्त्री विमर्श के ख़ाके का एक कमज़ोर बिंदु माना जाता है लेकिन सच तो ये है यही हमारी ताक़त है !
ख़ैर जब मैं पौधों में ख़ुद का अस्तित्व स्वीकार लेती हूँ तो मैं अपने परिवार के लिए ख़ुद को कितना महत्त्वपूर्ण मानती होऊँगी ये आप अंदाज़ा लगा ही सकते हैं !दरअसल मैं मानती ही नहीं, मैं जानती हूँ कि अपने परिवार की केंद्रबिंदु हूँ !
एक पल के लिए भी ख़ुद को अपने घर से हटा कर देखती हूँ तो घर का ज़र्रा ज़र्रा मुझे पुकारता हुआ सा लगता है !
मेरी सहेलियों,
जब तुमसे कोई पूछता है कि आप क्या करती हैं?तुममें से ज़्यादातर कुछ इस तरह से कहती हैं कि हम तो हॉउस वाइफ़ हैं बस !
कई बार मैंने इस बस कहने में अनंत ख़ालीपन महसूस किया है तुममें!लगता है जैसे कि तुम्हारे हाउस वाइफ़ होने के कोई मायने ही नहीं!हाँ अक्सर ये होता होगा कि जब तुम्हारे पति तुमसे ये कहते होंगे 'आख़िर तुम करती ही क्या हो घर में,हमें देखो कितनी मेहनत करते हैं '!
कितनी बार ऐसा भी तुमने सुना होगा 'अरे जॉब क्यों नहीं की ?तुम तो पढ़ी लिखी थीं फिर भी घर बैठी हो'!
एक बात और याद आयी अभी एक भजन संध्या में मुझे अपनी एक परिचित मिलीं मैंने उनसे कहा 'भाभी जी, बड़े दिनों बाद दिखीं आप! वो बोलीं 'हाँ, ऐसे कहीं आ जाती हूँ या जब ये साथ हों तब कहीं चली जाती हूँ !किटी विटी इनको पसन्द नहीं इसीलिए ज्वाइन नहीं की! अब देखो सोना ,इनके विपरीत तो नहीं चल सकती न ,और ये कहते हैं कि एक बार औरत की ज़ुबान खुल जाए और क़दम घर से निकल जाए तो फिर वो रूकती नहीं '!ये कहते हुए उन्हें गर्व हो रहा था कि देखो कितनी पतिव्रता स्त्री हूँ मैं !मैं हैरान भी थी और दुःखी भी उनकी इस सोच पर !
ख़ैर ये तो उन स्त्रियों की बात है जो अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक नहीं हैं या कह लीजिये उनके अंदर वैचारिक शून्यता है !
लेकिन जो स्त्री अपने अस्तित्व को कहीं से कमतर नहीं मानती लेकिन परिस्तिथियाँ जहाँ उसका परिवार उसके घर के लिए किये गए काम या समर्पण को कोई महत्त्व नहीं देता या समाज की सोच कि 'हाउस वाइफ़ से एक कामकाजी स्त्री थोड़ी ज़्यादा सुपीरियर है' उसे अंदर ही अंदर कुंठाग्रस्त बना देती हैं !परिणामस्वरूप उसकी सोच ये हो जाती है 'हम तो हाउस वाइफ़ हैं बस'!
स्त्री चाहें कामकाजी हो या हाउस वाइफ,ग्रामीण हो या शहरी,संपन्न परिवार की हो या अन्य स्तर के परिवार की! दरअसल हर क्षेत्र में,हर रूप में वो आज भी पुरुषों से कमतर आँकी जाती है !
स्वतंत्र होकर भी परतंत्र,निरीह,वंचित,शोषित !
इस विषय पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है बहुत कुछ सुझाया जा सकता है लेकिन आज मैं अपनी जिन सहेलियों से मुख़ातिब हूँ ये वही हैं जो समाज की सबसे प्राथमिक इकाई यानि परिवार को सुदृढ़ नींव देती हैं ,एक मकान को घर बनाती हैं ,एक पुरुष की अर्धांगनी बनकर उसे पूर्ण बनाती हैं,अपनी कोख़ से उसका और अपना अंश जन्मती हैं !
मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मैं एक ऐसे परिवार में ब्याही हूँ जहाँ स्त्रियों पुरुषों में कोई अंतर नहीं!पति को ख़ुद से सुपीरियर समझने का कोई चलन नहीं हमारे यहाँ !मैंने अपनी ख़ुशी से नौकरी नहीं की,मुझे नहीं करनी थी इसीलिए नहीं की !मेरे पति कूपमंडूक नहीं, कभी नहीं कह सकते कि तुम करती क्या हो घर में,या तुमने किया ही क्या है आख़िर ,मुझे देखो मैं कितना कुछ करता हूँ....इस तरह का कुछ!
लेकिन यदि इस तरह का कोई भी प्रश्न या हालात मेरे सामने आते हैं! तो मुझमें माद्दा है कि मैं बता, जता सकूँ कि मैं कितनी ज़रूरी हूँ उनके लिए,परिवार के लिए!
लेकिन मेरी सहेलियों ऐसा जवाब आप तब दे पायेंगी जब आप स्वयं ख़ुद को स्वीकारेंगी!जिस दिन आपने ख़ुद को पहचान लिया,स्वीकार लिया फिर किसकी हिम्मत जो आपके वुजूद को हल्के में ले!क्यों कि जहाँ रौशनी होती है फिर वहाँ सिर्फ़ रौशनी ही होती है!
अभी पिछले दिनों की ही तो बात है जब मुझे अपनी एक दोस्त के अंदर एक घरेलू स्त्री होने की हीनता नज़र आई मैंने उस वक़्त उसे उसकी अहमियत हल्के फुल्के ढंग से बतलाई लेकिन उसी समय सोचा कि अपना मन फेसबुक पर ज़रूर साझा करुँगी क्यों कि मेरे जो पाठक हैं उनमें से कई स्त्रियाँ ऐसी होंगी जो इस तड़पन से गुज़र रही होंगी !
भारतीय समाज में ज़्यादा प्रतिशत ऐसी स्त्रियों का है जिनके होने को उतना स्वीकार नहीं किया गया जितना किया जाना चाहिए था!
हमें पुरुष से बराबरी नहीं करनी,करनी भी नहीं चाहिए! पुरुष पुरुष है हम हम हैं !
एक कविता ने उसी दिन मेरे मन में जन्म लिया था जिस दिन अपनी दोस्त को उदास देखा था!उसे शेयर कर रही हूँ !
मेरी दोस्तों इसे पढ़ियेगा और उससे भी ज़्यादा गुनियेगा !
सभी स्त्रियों से मेरी ये गुज़ारिश !
अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये
सृष्टि का आधार है,संरचनाएँ हैं
जीवन की इंद्रधनुषी छटाएँ हैं
धूप में छाँव देने वाली प्रथाएँ हैं
त्याग,तप,शौर्य, धैर्य की कथाएँ हैं
रिश्तों को संजोने वाली सभ्यताएँ हैं
हम भोर सी पुनीत भावनाएँ हैं
इसलिए काम ये ज़रूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये !
ज़िन्दगी को जन्म देने के सुभागी हम
घर के ज़र्रे-ज़र्रे के अनुरागी हम
प्रेम,त्याग,ममता के अनुगामी हम
मन की कठोरता के प्रतिगामी हम
हिमालय की बर्फ़ चख आये हैं
गर्व ख़ुद पर बदस्तूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये !
नदियाँ की धार कभी मुड़ती नहीं
वेगवान वायु कभी रूकती नहीं
पर्वतों की श्रृंखलाएं झुकती नहीं
जोश भरी वाणी कभी घुटती नहीं
आप किसी से भी कमज़ोर नहीं हैं
आँसू भरे नयनों की कोर नहीं हैं
मन से समस्त भ्रम दूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये!
पिता,पति,पुत्र का प्रशासन सहें
भीतर-भीतर रोज़ ख़ुद को दहें
कब तक सबके आदेशों को सुनें
ज़िन्दगी को अपने तरीक़े से जियें
बहुत हुआ ये शोषण का सिलसिला
क़िस्मत से न अब कीजिये गिला
शिक्षा से ये अन्धकार दूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये!
अपने हितों के प्रति मुखर बनें
स्वाभिमान वाला नेक रास्ता चुनें
अपसंस्कृति की आग में न पिघलें
आत्मसंयम वाली न राह बदलें
सत्य है स्वछंदता स्वतंत्रता नहीं
इसकी आज़ादी से कोई समता नहीं
फ़ैसले करें तो बाशऊर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये!
शो-केस में रक्खी आप गुड़िया नहीं
मोम की बनी हुई गुजरिया नहीं
आँसू बहाती हुई बदरिया नहीं
लाज को ढोने वाली चुनरिया नहीं
आप गर सीता सती सा विचार हैं
आप रणचंडी का भी अवतार हैं
हौसलों को ऊँचा भरपूर कीजिये
अपने वजूद पे ग़ुरूर कीजिये !
आपकी सहेली--
सोनरूपा
नमस्कार दोस्तों !
'मैसेंजर ऑफ़ ऑर्ट' में आप भी अवैतनिक रूप से लेखकीय सहायता कर सकते हैं । इनके लिए सिर्फ आप अपना या हितचिंतक Email से भेजिए स्वलिखित "मज़ेदार / लच्छेदार कहानी / कविता / काव्याणु / समीक्षा / आलेख / इनबॉक्स-इंटरव्यू इत्यादि"हमें Email -messengerofart94@gmail.com पर भेज देने की सादर कृपा की जाय ।
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