"बुआ होलिका प्रह्लाद के पीछे सती हो गयी !!"
होली रंगो का पर्व है, ऐसा होली के बारे में लिखा-कहा गया है --
ऐसी कहानी है, 'होलिका' हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नामक दैत्य की बहन और प्रह्लाद नामक ईश् विष्णुभक्त की बुआ थी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, होलिका का जन्म कासगंज (उत्तर प्रदेश) के सोरों -शूकरक्षेत्र नामक स्थान पर हुआ था। कथ्य है, उन्हें यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। इस वरदान का लाभ उठाने के लिए विष्णु-विरोधी हिरण्यकश्यप ने उसे आज्ञा दी कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश कर जाए, जिससे प्रह्लाद की मृत्यु हो जाए । होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश की । ईश्वररूप वायु की कृपा से ईश् विष्णुभक्त प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। होलिका के अंत की खुशी में विष्णुभक्तों द्वारा होली का उत्सव मनाए जाने की परम्परा है।
पर आज हम होलिका को जलाकर ये तो दिखा देते हैं कि बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी !
लेकिन सती प्रथा जिसका अंत राजा राम मोहन रॉय और लार्ड विलियम बैंटिक के अथक प्रयास से 1829 में ख़त्म हुआ , फिर क्यों हम निर्दोष (नारी )होलिका को हर वर्ष बार-बार जलाकर और कई टन लकड़ियों को जलाकर ईंधन ख़त्म करते हैं और वातावरण प्रदूषित करके मना रहे हैं ?? वाह रे पर्व-त्यौहार !!
वैसे सती की कहानी कुछ ऐसी है--
भारत में प्राचीन हिन्दू समाज की यह घिनौनी एवं ग़लत प्रथा थी। इस प्रथा में जीवित / विधवा पत्नी को मृत पति की चिता पर ज़िंदा ही जला दिया जाता था। 'सती' (सती -- सत्य शब्द का स्त्रीलिंग रूप है) हिंदुओं के कुछ समुदायों की एक प्रथा थी, जिसमें हाल में ही विधवा हुई महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के समय खुद भी जलती चिता में कूदकर आत्मदाह कर लेती थी। इस शब्द को देवी सती (जिसे 'दक्षायनी' के नाम से भी जाना जाता है) से लिया गया है। देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष द्वारा उनके पति शिव का अपमान न सहने करने के कारण यज्ञाग्नि में जलकर अपनी जान दे दी थी। यह सती शब्द अब भी एक पवित्र नारी (सती-सावित्री ) की व्याख्या करने में प्रयुक्त होता है। यह प्राचीन हिन्दू समाज की एक घिनौनी एवं ग़लत प्रथा है।
क्या यह अज़ीब नहीं है, सती तो पति के मरने पर आत्मदाह करती थी (मजबूर करके)...और यहाँ तो होलिका सगे भतीजा के साथ सती हुई थीं... प्रत्येक वर्ष 'होलिका-दहन' कर इस प्रक्रिया को जीवंत रखा गया है...
किसी को यह पता होना चाहिए, चोवटिया जाति के लिए मातम है होली का त्यौहार!
क्योंकि इसके पीछे की कहानी है -----
"पूरे देश में होली का पर्व जहां उत्साह, उमंग व मस्ती के साथ मनाया जाता है , वहीं राजस्थान के पुष्करणा ब्राह्मण समाज की चोवटिया जोशी जाति के लिए होली खुशी का नहीं, वरन् शोक का पर्व है! ये लोग होली का पर्व हंसी - खुशी न मनाकर शोक के साथ मनाते हैं! होलकाष्टक से लेकर धुलण्डी के दिन तक चोवटिया जोशी जाति के घरों में खाना नहीं बनता है !
इसके पीछे कहानी यह है कि होलिका - दहन के समय इसी चोवटिया जोशी जाति की एक औरत दहन हो रही होलिका के समय फेरे निकाल रही थी। उस औरत के गोद में उसका छोटा लड़का भी था। बच्चा मां की गोद में उछल - कूद कर रहा था और मां होलिका के फेरे लगा रही थी। इस दौरान हाथ से छिटक कर वह बच्चा मां की गोद से धूं-धूं कर जल रही होलिका में गिर गया। बच्चे को जलती हुई आग में देखकर मां चीखने चिल्लाने लगी और बच्चे को बचाने के लिए गुहार करने लगी पर कोई और उपाय न दिखा तो अपने बच्चे को बचाने के लिए माँ भी जलती होलिका में कूद पड़ी। इस दुर्घटना में मां और बच्चा दोनों न बच सके और मां अपने बच्चे के पीछे सती हो गई।
कहते हैं बाद में इसी सती माता ने श्राप दे दिया कि कोई भी चोवटिया जोशी जाति का परिवार होलिका - दहन में हिस्सा नहीं लेगा और न ही होली को उत्साह से मनाएगा और तब से पुष्करणा ब्राह्मण समाज की इस चोवटिया जाति के लिए होली मातम का पर्व हो गया।
अब अगर किसी भी चोवटिया जोशी परिवार में होलिका दहन के दिन लड़के का जन्म हो और वह लड़का पूरे एक साल तक जिंदा रहे और अपनी माँ के साथ जलती हुई होलिका की परिक्रमा कर होलिका की पूजा करे तो ही इस जाति के लिए होली का पर्व हँसी-खुशी के साथ मनाना संभव होगा। इसे चमत्कार कहेंगे या संयोग कि इस दुर्घटना को हुए आज सैंकड़ों साल हो गए हैं लेकिन आज तक चोवटिया जोशियों के किसी भी परिवार में होलिका दहन के दिन किसी लड़के का जन्म नहीं हुआ है।"
जब माँ अपने बच्चे के पीछे सती हो सकती है तो फिर होलिका क्यों नहीं ??
T.Manu--
0 comments:
Post a Comment