'1' पोस्ट और 600 मित्रों ने अनफ्रैंड किया । वैसे भी दोस्ती और रिश्ता-- समान गुणवालों में ही शोभती है ! यह सोशल मीडिया है, शेष दोस्तों ! आप प्रेमिका की तरह यदि अनफ्रेंड करते जायेंगे तो प्रेमी आपको मनाने नहीं आयेंगे ! एक अन्फ्रेंड होंगे, तो 3 फ्रेंड हो जुट जाते हैं । ज़िन्दगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए ।
बड़ी से मतलब गाली-गलौज़ की अलापता लिए नहीं ! दोस्त तो नए-नए बनते रहते हैं, पर लंबी ज़िन्दगी-जैसी नहीं ! मेरे पोस्ट को 10++ ने शेयर किया , 20++ फॉलो करने लगे और 15+++ के गैर-जिम्मेदाराना मैसेज भी प्राप्त हुए !
कल मैंने 'लिव-इन-रिलेशनशिप' पर पोस्ट किया था ! कमेंट की बौछार-सी आ गयी !! कमेंट में 'लिव-इन-रिलेशनशिप' के पक्ष में ही काफी आये ! कितनों ने मुझपर कुठाराघात किये और अपने-अपने घर पर सीखे गालियां बके, जो अभी तक जारी है ! परंतु मैंने सभी के जवाबों के प्रतिजवाब भी दिये ! प्रतिजवाब कोई न समझे, तो उनकी अपनी महानता है ।
दोस्तों ! आपके देह हैं, जैसे-चाहे यूज़ करे, मसलें या बेचें ---- ? साथ ही उनलोगों ने प्रतिप्रश्न भी किये ? प्रतिप्रश्न और आपके जवाब से ऐसा लगता है कि आप 'लिव-इन' को सही मानते हैं, तो क्या आप रहना चाहेंगे 'लिव-इन' में ? खैर, आप रह भी लेंगे, क्योंकि इससे तो पुरुष पक्ष को कोई घाटा नहीं है ! अगर महिला भी रह लेती हैं, तो मुझे क्या ऐतराज़ ? सिर्फ यही कहना है कि क्या आप अपनी बेटी को लिव-इन में छोड़ सकते हैं ?
आप अपनी बेटियों के लिए अपने स्वधर्म और जातियों में दहेज़ देकर शादियाँ कराते हैं, परंतु बेटियों को लिव-इन के लिए क्यों नहीं छोड़ते हैं ! इससे आपके दहेज़ देना नहीं पड़ेगा और बेटी भी आपकी नित्य नई-नई आनंदोत्सव की गुल खिलायेगी । जो दोस्त लिव-इन का बचाव करते हैं, वो अपनी बेटी को इसके लिए छोड़े ! सिर्फ फकेती करने से कुछ नहीं होगा ! एक ब्राह्मण अपनी बेटी को किसी मोची के लड़के के साथ लिव-इन छोड़कर तो देखे । जिस दिन भारत में सभी कोई शादी-विवाह में धर्म और जाति से परे शादी किये जाने सोचने लग जाएंगे, तभी वो सच्चा लिव-इन-रिलेशनशिप होगा, फ़ख़्त दोनों के तुच्छ स्वार्थ के लिए नहीं ! अन्यथा, यही समझा जाएगा की यू.पी. में गधों पर राजनीति चल रही है, तो फेसबुक पर कुत्तों पर । जबकि दोनों प्राणी मनुष्य से ज्यादा वफादार और ईमानदार है । कुछ ने कमेंट में मुझे 'पिल्ले' भी कह डाले । चलिए, हरकोई अपने माँ-बाप का पिल्ला ही होता है । अगर कोई माँ-बाप के पिल्ले नहीं है, तो वो निश्चितश: अपनी बीबीके पिल्ले होंगे !
कुछ ने मेरे पोस्ट को अपने टाइमलाइन पर मेरे बारे में लिखकर यह पोस्ट किया कि जिसका सार यह है -- महिलाओं से रचना मांगने का मतलब है, आप उन्हें 'लाइन मार' रहे हैं ! जब इस 'लाइन-मारने' का विश्लेषण किया, तो मुझे कुछ यूँ लगा कि महिला संपादक अगर महिला रचनाकारों से रचना मांगे, तो वे तब 'लेस्बियन-दृष्टिकोण' रखती होंगी और पुरुष संपादक यदि पुरुष रचनाकारों से रचनाएँ मांगे तो वह 'गे-दृष्टिकोण' के होंगे, यही न, दोस्तों !
मेरे स्वनामधन्य पोस्ट पर किया प्रतिपोस्ट से मैंने यह भी जाना कि कोई छद्म नाम 'आलोचक' रख लेने से कोई 'आलोचक' नहीं हो जाता है, क्योंकि बिना पाठक बने राइटर हो जाने की कल्पना नहीं की जा सकती ! कोई पूज्य बापू गाँधीजी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' की भाँति सत्यकथा लिखने की साहस तो दिखाए, ऐसा खुशवंत सिंह और मटुक-जुली के सिवाय कोई लिख सकते ! क्योंकि किसी में इन त्रय-जैसा साहस का अभाव है ।
T.manu--
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